आर्थिक सुधार या वैचारिक बदलाव? ‘हिंदू इकॉनॉमी’ की कहानी
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आर्थिक सुधार या वैचारिक बदलाव? ‘हिंदू इकॉनॉमी’ की कहानी

मोदी सरकार ‘हिंदू अर्थव्यवस्था’ के मॉडल पर आगे बढ़ रही है। संविधान, समानता और लोकतंत्र के बीच यह नया वैचारिक बदलाव भारत की दिशा तय करेगा।


भारतीय जनता पार्टी (BJP) की केंद्र सरकार, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का वैचारिक समर्थन प्राप्त है, आज भारत को एक ‘हिंदू अर्थव्यवस्था’ (Hindu Economy) में बदलने के मिशन पर आगे बढ़ रही है। सरकार की कई नीतियाँ अब प्राचीन हिंदू ग्रंथों से लिए गए सिद्धांतों पर आधारित होती जा रही हैं।The Federal की तीन-भागों वाली विशेष श्रृंखला इस परिवर्तन को समझाने का प्रयास करती है—यह भारत के संविधान, अर्थव्यवस्था और आम नागरिकों पर क्या असर डालता है।

पहले दो हिस्सों की झलक

भाग 1: ‘श्रम शक्ति नीति 2025’ ने भारतीय राज्य को अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों से पीछे हटाकर मज़दूरों को असुरक्षित स्थिति में छोड़ दिया।

भाग 2: इस श्रृंखला ने बताया कि कैसे ‘धर्म आधारित जाति व्यवस्था’ ने भारत की समृद्धि को कमजोर किया।

भाग 3 (यह लेख): बताता है कि धर्म और राजशाही के सिद्धांतों पर आधारित नीतियाँ भारत के संवैधानिक ढांचे के विपरीत हैं।

परिवर्तन का नया ढांचा: ‘धर्म आधारित शासन’ की ओर

‘श्रम शक्ति नीति 2025’ में प्रस्ताव रखा गया है कि केंद्र सरकार मज़दूरों के अधिकारों की रक्षा और कल्याण की ज़िम्मेदारी से पीछे हटे और यह कार्य निजी कंपनियों को सौंप दे। यह नीति राज्यों को श्रम कानूनों के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी देने की भी सिफारिश करती है।

नीति दस्तावेज़ इसे “पैराडाइम शिफ्ट (बड़े बदलाव)” का नाम देता है — जहाँ श्रम शासन को धर्म और प्राचीन भारतीय ग्रंथों के सिद्धांतों के अनुरूप ढालने की बात की गई है। यह वह समय था जब लोकतंत्र या संविधान नहीं, बल्कि राजा शासन करते थे और जाति आधारित पेशे धर्म द्वारा तय किए जाते थे।

संवैधानिक राज्य बनाम धर्म आधारित राज्य

भारत का संविधान 1950 में लागू हुआ और तब से देश एक लोकतांत्रिक, जवाबदेह और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने वाला संवैधानिक राज्य है। संविधान हर नागरिक को — चाहे वह महिला हो, दलित हो या अल्पसंख्यक — सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार और आस्था की स्वतंत्रता, समान अवसर, और गरिमा के साथ जीवन का अधिकार देता है।

सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर इन अधिकारों का विस्तार करते हुए ‘जीवन का अधिकार’, ‘रोज़गार का अधिकार’, ‘प्रदूषण-मुक्त पर्यावरण का अधिकार’ और ‘गोपनीयता का अधिकार’ जैसी कई नई व्याख्याएँ जोड़ीं।

संविधान की प्रस्तावना भारत को समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष गणराज्य घोषित करती है। इसका अर्थ है — सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान और हर प्रकार के सामाजिक, आर्थिक शोषण का उन्मूलन। इसलिए सरकार की जवाबदेही संविधान के प्रति है, न कि प्राचीन ग्रंथों के प्रति।

कृषि कानून और श्रम कोड: संविधान से विचलन

इस श्रृंखला के पहले हिस्से में बताया गया कि श्रम कोड 2019–2020 कैसे मज़दूर-विरोधी थे। इसी तर्ज पर सरकार ने 2020 में तीन नए कृषि कानून लाए, जिन्हें “सुधार” बताया गया।इन कानूनों को बिना बहस और बिना राज्यों की सहमति के महामारी के दौरान लागू कर दिया गया।

तीनों कानून —

किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य अधिनियम 2020,

किसान (सशक्तिकरण व संरक्षण) मूल्य आश्वासन अधिनियम 2020,

आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम 2020 कागज़ पर किसानों की सुरक्षा के लिए बनाए गए थे, लेकिन वास्तविकता में उन्होंने किसानों को कॉर्पोरेट्स के हवाले कर दिया। दो साल लंबे आंदोलन के बाद केंद्र को ये कानून वापस लेने पड़े।

पर्यावरण कानूनों में भी ढील

इसी तरह, पर्यावरण और वन कानूनों में भी केंद्र सरकार ने कई संवैधानिक प्रावधानों को दरकिनार किया है।वन (संरक्षण) नियम 2022 ने ग्राम सभाओं और आदिवासी अधिकारों को नज़रअंदाज़ करते हुए निजी प्रोजेक्ट्स को स्वतः “ग्रीन क्लीयरेंस” दे दी। जन विश्वास अधिनियम 2023 ने पर्यावरण सुरक्षा कानूनों के उल्लंघन को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया — जिससे प्रदूषण-मुक्त जीवन के अधिकार को सीधी चुनौती मिली।

‘स्वधर्म’ और जाति आधारित पेशे

सितंबर 2023 में केंद्र सरकार ने पीएम-विश्वकर्मा योजना शुरू की, जिसका उद्देश्य पारंपरिक कारीगरों और हस्तशिल्पकारों को सहयोग देना बताया गया।13,000 करोड़ रुपये की इस योजना में 18 पारंपरिक व्यवसाय शामिल हैं — जैसे बढ़ई, सुनार, लोहार, कुम्हार, नाई, दर्जी, धोबी आदि।

हालाँकि, ये सभी जाति-आधारित पेशे हैं — इसलिए यह योजना “स्वधर्म” के नाम पर जातिगत व्यवस्था को संरक्षित करने का प्रयास प्रतीत होती है।

स्वदेशी और आत्मनिर्भरता मॉडल का विरोधाभास

2014 के बाद से मोदी सरकार ने ‘स्वदेशी’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ के नाम पर संरक्षणवादी नीतियाँ अपनाईं — टैरिफ वॉल और नॉन-टैरिफ वॉल लगाकर घरेलू उद्योग को सुरक्षित करने की कोशिश की गई।परिणाम उल्टा हुआ — उत्पादन घटा, नौकरियाँ कम हुईं और अमेरिका ने भारत पर 25% प्रतिशोधी शुल्क (reciprocal tariff) लगा दिया।वहीं, चीन से आयात बढ़ता जा रहा है क्योंकि स्वदेशी उद्योग तकनीकी नवाचार में पिछड़ गए हैं।

गरीबी और सरकारी राहत पर निर्भरता

‘स्वदेशी मॉडल’ ने भारत को इतना गरीब बना दिया है कि आज 58% भारतीय (813 मिलियन लोग) “मुफ्त राशन” पर निर्भर हैं।10 करोड़ से अधिक परिवारों को पीएम-किसान योजना के तहत हर साल ₹6,000 नकद मिलते हैं।10 करोड़ परिवार पीएम उज्ज्वला योजना के तहत सब्सिडी वाली गैस पाते हैं।6 करोड़ से अधिक ग्रामीण मजदूर मनरेगा के तहत न्यूनतम मज़दूरी से भी कम वेतन पर काम करते हैं।

चुनाव से पहले “रेवड़ी संस्कृति” यानी मुफ्त योजनाओं की घोषणा आम बात बन चुकी है — हाल ही में प्रधानमंत्री ने बिहार में 75 लाख महिलाओं को ₹10,000 का लाभ वितरित किया, जबकि कई राज्यों में महिलाओं को ₹1,500–₹2,500 प्रति माह नकद सहायता दी जा रही है।

संविधान बनाम ‘धर्म आधारित अर्थनीति’

मोदी सरकार की आर्थिक दिशा अब एक ऐसे वैचारिक ढाँचे की ओर बढ़ रही है जो संवैधानिक राज्य की भावना से टकराता है।जहाँ संविधान समानता, सामाजिक न्याय और अधिकारों की गारंटी देता है, वहीं “धर्म आधारित शासन” और “स्वधर्म” का विचार असमानता और वर्गीय ढांचे को पुनर्जीवित करता है।यह न केवल भारत के आर्थिक विकास बल्कि उसकी लोकतांत्रिक आत्मा के लिए भी चुनौती बनता जा रहा है।

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