
11 साल का मोदी राज, रिकॉर्ड से परे सत्ता की नई परिभाषा
नरेंद्र मोदी ने इंदिरा गांधी का रिकॉर्ड तोड़ा है। लेकिन 11 वर्षों में बदली राजनीति की धारा, लेकिन लोकतंत्र, आर्थिक असमानता और संस्थाओं की स्वतंत्रता पर सवाल भी उठे हैं। ।
पीएम नरेंद्र मोदी ने इंदिरा गांधी का रिकॉर्ड तोड़ते हुए अब भारत के दूसरे सबसे लंबे समय तक लगातार कार्य करने वाले प्रधानमंत्री बन गए हैं। इस मौके पर देश-विदेश के राजनीतिक विश्लेषक और आलोचक उनके 11 वर्षों के निर्बाध शासनकाल, उनकी रणनीतियों, आर्थिक प्रदर्शन और लोकतंत्र की सेहत पर उठ रहे सवालों की गंभीर समीक्षा कर रहे हैं।
‘द फेडरल’ के संपादक एस. श्रीनिवासन ने विजय श्रीनिवास से बातचीत में मोदी के इस लंबे कार्यकाल की विरासत, उनकी राजनीतिक यात्रा और सामाजिक-आर्थिक प्रभावों पर विस्तार से बात की।
मोदी का सफर क्यों खास है?
25 जुलाई 2025 तक नरेंद्र मोदी 4,078 दिन प्रधानमंत्री पद पर बिता चुके हैं—जो इंदिरा गांधी के लगातार कार्यकाल (1966-1977) के 4,077 दिनों से एक दिन अधिक है। हालांकि यह ध्यान देना ज़रूरी है कि इंदिरा गांधी 1980 में फिर सत्ता में लौटीं और 1984 तक शासन किया, जिससे उनका कुल कार्यकाल 5,829 दिन बनता है। वहीं पंडित जवाहरलाल नेहरू का रिकॉर्ड 6,130 दिनों का है, जो अब भी सबसे लंबा है।लेकिन मोदी की उपलब्धि इसलिए खास है क्योंकि वह गैर-कांग्रेसी पृष्ठभूमि से आने वाले पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने इतना लंबा कार्यकाल बिना किसी अवरोध के पूरा किया है।
अगर और व्यापक दृष्टि से देखें तो मोदी ने 24 वर्षों तक लगातार सत्ता में बने रहने का रिकॉर्ड कायम किया है—पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में तीन कार्यकाल और फिर भारत के प्रधानमंत्री के रूप में।
राजनीति को बदलने वाला नेतृत्व
यह केवल समय की बात नहीं है। मोदी ने भारत की राजनीति की दिशा ही बदल दी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का जो सपना दशकों से अधूरा था—हिंदुत्व को भारतीय राजनीति के केंद्र में लाना—वह मोदी के शासन में काफी हद तक साकार हुआ है। यह शायद उनकी सबसे प्रभावशाली उपलब्धि है।
क्या इंदिरा गांधी और मोदी की तुलना की जा सकती है?
इंदिरा गांधी का शासन सख्त और केंद्रीकृत था। आपातकाल थोपना उनकी एक ऐतिहासिक भूल थी, जिसे उन्होंने बाद में स्वीकार भी किया और 1977 में चुनावी हार के रूप में उसकी कीमत भी चुकाई। फिर भी 1971 का युद्ध और बांग्लादेश का निर्माण उनके खाते में भारत की सबसे बड़ी सैन्य और कूटनीतिक जीत के तौर पर दर्ज है।
वहीं मोदी को एक वैचारिक विरासत मिली थी, जिसे अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने तैयार किया था। 2014 से मोदी ने इस विरासत को राजनीतिक जनलहर में तब्दील कर दिया, और हिंदुत्व को सत्ता की मुख्यधारा में स्थापित किया।
मतदान का महारथी: चुनावी रणनीति में मोदी-शाह की जोड़ी
मोदी को अक्सर चुनावी महाशक्ति कहा जाता है। इसकी वजह है उनकी और अमित शाह की चुनावी रणनीति। उन्होंने राज्यवार योजनाएं बनाईं, जातीय समीकरणों को नए ढंग से जोड़ा। उत्तर प्रदेश में पिछड़ों, दलितों और सवर्णों का गठबंधन बनाकर मजबूत आधार तैयार किया।
छोटी पार्टियों से गठबंधन कर उन्हें धीरे-धीरे समाहित करने की राजनीति की प्रयोगशाला उन्होंने बना दी। मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता और राम मंदिर आंदोलन के प्रतीक बनकर उन्होंने बहुसंख्यक हिंदू भावनाओं को बखूबी भुनाया। हालांकि आलोचक इसे संस्थाओं का दुरुपयोग, चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल, और जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के तौर पर भी देखते हैं। इसके बावजूद भाजपा ने पूर्वी और दक्षिण भारत में अपने पैर मजबूत किए हैं।
‘मोदीनॉमिक्स’ का प्रभाव: विकास की चमक या असमानता की दरार?
मुद्रास्फीति नियंत्रण में है, राजकोषीय घाटा FRBM एक्ट के दायरे में है, और भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। लेकिन इन शीर्षक सूचकों के नीचे वास्तविकता कुछ और है।बेरोजगारी गंभीर समस्या बनी हुई है। PLI योजनाओं और अन्य सुधारों के बावजूद निर्माण क्षेत्र और कैपिटल गुड्स सेक्टर में अपेक्षित उछाल नहीं आया। गिग इकॉनमी में काम करने वाले लोगों को सुरक्षा और अधिकार नहीं मिले हैं।
सरकार का दावा है कि गरीबी में भारी गिरावट आई है, लेकिन 2011 के बाद कोई उपभोग आंकड़ा जारी नहीं हुआ, जिससे इन दावों पर संशय बना हुआ है। प्रति व्यक्ति आय अब भी महज़ $2,200 है, जबकि UK की $45,000 है।
जन धन, आधार और मोबाइल (JAM) ट्रिनिटी ने कल्याण योजनाओं में पारदर्शिता लाई है, लेकिन अकेली विकास दर देश के सपनों को साकार नहीं कर सकती। मैन्युफैक्चरिंग और निर्यात को गति मिलनी अभी बाकी है।
विदेश नीति में ग्लोबल नेता की छवि या प्रतीकों की राजनीति?
मोदी ने विदेश नीति को अत्यधिक दृश्यता दी—विश्व नेताओं से मेल-मुलाकात, आलिंगन, वैश्विक मंचों पर उपस्थिति। पश्चिमी देशों को चीन का विकल्प देने के उद्देश्य से भारत को एक वैश्विक नेता के रूप में पेश किया गया। लेकिन चीन के साथ सीमा तनाव, अमेरिका के साथ व्यापार विवाद और पाकिस्तान-नेपाल-बांग्लादेश जैसे पड़ोसियों के साथ संबंधों में खटास—ये सभी गंभीर कूटनीतिक चुनौतियाँ बनी हुई हैं। श्रीलंका स्थिर है, लेकिन दक्षिण एशिया नीति को और गहराई की ज़रूरत है।
लोकतंत्र पर मंडराते सवाल: आलोचना कितनी जायज़?
मोदी सरकार पर आरोप हैं कि उन्होंने संवेदनशील मुद्दों को साम्प्रदायिक रंग दिया है और लोकतांत्रिक संस्थानों की स्वतंत्रता को कमज़ोर किया है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा, विश्वविद्यालयों पर अंकुश, और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले—ये सभी चिंताजनक संकेत हैं।अल्पसंख्यकों को टिकट न देना, मीडिया और न्यायपालिका पर दबाव, और संविधान को बदलने की आवाजें—ये सब लोकतंत्र के मूल्यों के खिलाफ़ माने जा रहे हैं।
बिहार में चल रही मतदाता सूची की विशेष पुनरीक्षण प्रक्रिया (SIR) ने भी संदेह पैदा किया है कि वोटर लिस्ट में हेरफेर हो सकता है। संसद में विपक्ष ने इस पर जमकर विरोध किया। राहुल गांधी ने तो भाजपा पर चुनाव चुराने तक का आरोप लगाया है।
रिकॉर्ड से आगे क्या है?
नरेंद्र मोदी ने न सिर्फ एक रिकॉर्ड तोड़ा है, बल्कि एक नई राजनीतिक संस्कृति गढ़ी है। अब सवाल यह है कि क्या यह सत्ता का विस्तार संविधानिक संतुलन के साथ होगा, या फिर भारत के लोकतंत्र को एक एकतरफा राष्ट्रवाद में बदल देगा?उनकी विरासत अब केवल दिनों की गिनती नहीं है, बल्कि उस असर की है जो आने वाली पीढ़ियों को महसूस होगा।