देखो रे से बहना चेत सके तो चेत तक, कैसे महिलाओं के लोक गीत राजस्थान में आंदोलनों को आकार देते हैं
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देखो रे से बहना चेत सके तो चेत तक, कैसे महिलाओं के लोक गीत राजस्थान में आंदोलनों को आकार देते हैं

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर राजस्थान की महिलों के संघर्ष की अनोखी कहानी, जिसमें आन्दोलन का हथियार गीतों को बनाया गया।


गीत हमेशा से सामाजिक संचार के शक्तिशाली साधन रहे हैं। राजनीतिक और सामाजिक क्रांतियाँ इन्हें जन्म देती हैं, और तानाशाही शासन इन्हें प्रतिबंधित कर देता है। हर देश और संस्था को अपनी पहचान के लिए एक गीत की आवश्यकता होती है। इसी तरह, ग्रामीण भारत की महिलाएँ भी लोक गीतों के माध्यम से अपनी पहचान की खोज और अभिव्यक्ति करती हैं।

राजस्थान के समृद्ध लोक गीतों की विरासत का अन्वेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि इस रेगिस्तानी राज्य के लोगों के पास हर मौसम, स्थिति और समय के लिए एक गीत है।


परंपरा से आगे बढ़कर आंदोलन तक

मौसम, देवी-देवताओं और त्योहारों का उत्सव मनाने के अलावा, ये गीत उन महिलाओं के संघर्षों और आकांक्षाओं को आवाज देते हैं जो आमतौर पर पर्दे के पीछे छिपी होती हैं। सामूहिक रूप से गाए जाने वाले ये गीत महिलाओं को एकजुट करते हैं।

इस तरह, महिलाओं ने इस संगीतमय मंच का उपयोग कर परंपरा से आगे बढ़कर समकालीन लोक गीतों की रचना की है, जो उनके आसपास के आंदोलनों को दर्शाते हैं। उन्होंने अपनी प्रतिभा के माध्यम से क्रांतिकारी विचारों को सरल छंदों में पिरोकर महत्वपूर्ण संदेशों को जन-जन तक पहुँचाया है।


देशभक्ति और स्वतंत्रता संग्राम

राजस्थान के सबसे प्रसिद्ध गीतों में से एक, केसरिया बालम, धौलामारू की प्रसिद्ध प्रेम कहानी के माध्यम से वीरता का गुणगान करता है। यह गीत मातृभूमि की यादों के स्वर में देशभक्ति की भावना को भी उजागर करता है।

कम प्रचलित गीतों में कुछ ऐसे भी हैं जो देशभक्ति की भावना जगाते हैं और महिलाओं की स्वतंत्रता की ओर संकेत करते हैं। निता मुखर्जी अपनी पुस्तक वॉयसेस फ्रॉम द इनर कॉरटयार्ड में एक गीत का उल्लेख करती हैं, जो महात्मा गांधी की शहर यात्रा और उनके द्वारा चरखा लाने का वर्णन करता है। गीत के बोल हैं:

"जकड़िया स्ट्रीट में सभा बनाई, सब दुनिया देखन कूं आई। शहर गांधीजी आया, घर-घर चरखो लाया।"

चरखा न केवल स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक था, बल्कि यह महिलाओं की भागीदारी को भी दर्शाता था।


जागरण का समय

यदि केसरिया बालम राजस्थान का प्रतिनिधित्व करने वाला गीत है, तो बहना चेत सके तो चेत राज्य में महिला आंदोलनों का प्रतिनिधि गीत है। अजमेर की ग्रामीण महिलाओं द्वारा रचित इस गीत ने कई राष्ट्रीय सम्मेलनों में महिलाओं की एकजुटता की ताकत दिखाई है।

1980 के दशक में राजस्थान में जब महिला विकास कार्यक्रम (WDP) शुरू हुआ, तब गांवों में महिलाओं के स्वयं सहायता समूह मजबूत हो रहे थे। 1985 में तिलोनिया स्थित बेयरफुट कॉलेज में आयोजित महिला मेला में पूरे राजस्थान और भारत से 1,000 महिलाओं ने भाग लिया।

इस दौरान, बहना चेत सके तो चेत गीत का जन्म हुआ, जो महिलाओं की एकता, उनकी आकांक्षाओं और उनके संघर्षों को दर्शाता है। गीत का एक प्रसिद्ध छंद है:

"गाँव की सब बहना चेती, धरती पलटो खायो।"

अर्थात, जब कुछ महिलाएँ जागरूक हुईं, तो कोई बदलाव नहीं हुआ, लेकिन जब पूरे गाँव की महिलाएँ चेतन हुईं, तो उन्होंने दुनिया को हिला दिया।


बिसलपुर बाँध पुनर्वास आंदोलन

1990 के दशक में टोंक जिले में बिसलपुर बाँध के निर्माण के खिलाफ आंदोलन में महिलाओं ने निराशा और आक्रोश से भरे गीत रचे। एक प्रसिद्ध गीत था:

"बांधो बिसलपुर को बन गयो रे, डूबे म्हाका खेत-कुवां, दिन खोटो आ गयो रे।"

इसका अर्थ है: बिसलपुर बाँध ने मेरे खेत और कुएँ को डुबो दिया, यह हमारे लिए बुरे दिन लेकर आया।

इस आंदोलन से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ता इंदिरा पंचोली बताती हैं कि महिलाएँ सरल लेकिन प्रभावशाली तरीके से अपनी बात रखती हैं। एक गीत जो बाँध निर्माण में भ्रष्टाचार की ओर संकेत करता था:

"देखो रे कोठयारी का खेल, खा गयो सीमेंट, पी गयो तेल।"


साक्षरता अभियान और पंचायती राज

जब 1992 में लोक जुंबिश (शिक्षा के लिए जन आंदोलन) कार्यक्रम शुरू हुआ, तो लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए कई गीत बनाए गए। इसी दौरान महिलाओं के लिए 33% सीटों का आरक्षण देने वाला पंचायती राज अधिनियम पारित हुआ।

इससे प्रेरित होकर महिलाओं ने गीत बनाया:

"पासो पलट गयो..."

जिसका अर्थ था कि अब सत्ता का संतुलन बदल गया है और महिलाएँ गाँव की नेता बनेंगी।


सूचना का अधिकार (RTI) आंदोलन

1996 में ब्यावर से शुरू हुआ सूचना का अधिकार (RTI) आंदोलन 2005 में कानून बनने तक जारी रहा। इस दौरान भी महिलाओं ने गीतों के माध्यम से अपनी मांगों को रखा।

RTI आंदोलन में शामिल कार्यकर्ता अरुणा रॉय कहती हैं, "RTI की जटिलता को आम जनता तक पहुँचाना मुश्किल था, लेकिन हमने इसे गीतों के माध्यम से समझाया।"

सुषिला देवी का एक प्रसिद्ध गीत था:

"डरो मत, म्हे तो म्हाको हक मांगा।"

इसका अर्थ था: हमने कोई एहसान नहीं माँगा, बस अपना अधिकार माँगा है।

लोकप्रिय भजनों की धुन पर भी गीत बनाए गए, ताकि लोग उन्हें आसानी से अपना सकें। धरनों और बैठकों के दौरान इन गीतों का निरंतर गान आंदोलन को ऊर्जा देता था।


गीत और आंदोलन: एक अटूट संबंध

सामाजिक सक्रियता और गीतों का गहरा नाता रहा है। ग्रामीण महिलाओं के लिए गीत उनकी आत्म-अभिव्यक्ति का सबसे सुलभ माध्यम है।

जैसा कि नौरती देवी कहती हैं:

"जिस तरह कलाकार अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है, वैसे ही हम महिलाएँ भी करती हैं। जब मैं घर से बाहर निकलती हूँ और स्वतंत्रता तथा एकजुटता का अनुभव करती हूँ, तो मैं जागरूक होती हूँ। जब मैं सचेत हो जाती हूँ, तो मैं बोलती हूँ, पूछती हूँ, माँगती हूँ, व्यक्त करती हूँ और अपने अधिकारों के लिए लड़ती हूँ। यह सब मेरे गीतों में गूंजता है।"


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