‘अपना टाइम आएगा’ की प्रतीक्षा में RSS, मोदी युग ने कैसे बदला शक्ति संतुलन?
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‘अपना टाइम आएगा’ की प्रतीक्षा में RSS, मोदी युग ने कैसे बदला शक्ति संतुलन?

मोदी युग में आरएसएस की वैचारिक पकड़ बरकरार रही लेकिन राजनीतिक फैसलों पर उसका प्रत्यक्ष नियंत्रण लगातार कमजोर होता गया। अपने शताब्दी वर्ष में संघ ने व्यावहारिक रूप से भूमिका सीमित की है।


RSS vs BJP: यह एक विरोधाभास है कि अपने अपेक्षाकृत शांत शताब्दी वर्ष में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) को इस आम धारणा का सामना करना पड़ा है कि नागपुर से संचालित होने वाला यह बड़ा भाई संगठन एक ऐसे व्यक्ति के कारण काफी हद तक कमजोर पड़ गया है, जो न केवल इसी संगठन की सबसे निचली सीढ़ी से निकला, बल्कि वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत (Mohan Bhagwat का समकालीन भी है। हालांकि, यह आरएसएस के लिए कोई नई चुनौती नहीं है। एक ऐसा संगठन, जो लंबे समय से एक ताक़तवर, हिंदू-प्रथम राष्ट्र के सपने को साकार करने की दिशा में काम करता रहा है।

सिर्फ 2025 में ही नहीं, बल्कि दो अलग-अलग चरणों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) के कारण आरएसएस का कद लगातार सिमटता गया है। पहला, 2001 से गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में और दूसरा, 2014 के बाद भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर। लेकिन संघ परिवार के वैचारिक स्रोत के रूप में अक्सर पहचाने जाने वाले आरएसएस का सबसे नाटकीय पतन उस वर्ष में देखने को मिला, जो अब इतिहास बनने जा रहा है। यह वह दौर था, जब आरएसएस ने अपने अस्तित्व के 100 वर्ष पूरे किए थे और 2 अक्टूबर को विजयादशमी के अवसर पर नागपुर में मोहन भागवत ने शताब्दी भाषण दिया था। इस कार्यक्रम में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया की उल्लेखनीय मौजूदगी रही।

वर्ष की शुरुआती हफ्तों में ऐसा प्रतीत हुआ कि आखिरकार मोदी को आरएसएस और उसके नेतृत्व के सामने झुकना पड़ा है। मार्च के अंतिम सप्ताह में यह आकलन तब और मजबूत हुआ, जब मोदी ने बहुप्रचारित नागपुर दौरा किया, ऐतिहासिक और अत्यंत सम्मानित हेडगेवार स्मृति मंदिर में पर्याप्त समय बिताया और मोहन भागवत के साथ कुछ देर एकांत में बातचीत की। इसके बाद मोदी ने आरएसएस से जुड़े और उसके दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर के नाम पर बने एक नेत्र अस्पताल के नए विंग का उद्घाटन किया और भागवत के साथ एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया।

फरवरी-मार्च 2024 से शुरू होकर उस पूरे दौर में, जब अक्टूबर 2001 में सार्वजनिक पद संभालने के बाद पहली बार आरएसएस ने मोदी पर दबदबा बनाया, संगठन की वह अपार क्षमता और शक्ति एक बार फिर सामने आई, जिसने भारतीय राजनीति में उसकी सर्वव्यापकता को दर्शाया। यह क्षमता खत्म नहीं हुई है—इसका संकेत वर्ष के अंत में विडंबनापूर्ण ढंग से तब मिला, जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और संघ परिवार के लंबे समय से विरोधी रहे दिग्विजय सिंह ने आरएसएस की संगठनात्मक क्षमता की सराहना की। उन्होंने स्पष्ट किया कि वे विचारधारा के आलोचक हैं, लेकिन संगठन की मजबूती को नकार नहीं सकते। शशि थरूर सहित कांग्रेस के भीतर भी इस तर्क को समर्थन मिला कि कांग्रेस को अपनी संगठनात्मक संरचना मजबूत करनी चाहिए।

अक्सर कहा जाता है कि आरएसएस की सोच दीर्घकालिक होती है, जबकि उसके सहयोगी संगठन विशेषकर भाजपा अल्पकालिक राजनीतिक लक्ष्यों पर केंद्रित रहते हैं। लेकिन इस मोर्चे पर भी मोदी ने आरएसएस को पीछे छोड़ दिया। उन्होंने 2047 तक विकसित भारत का लक्ष्य रखा और हालिया उद्देश्य के रूप में अगले 10 वर्षों में तथाकथित औपनिवेशिक मानसिकता को समाप्त करने की बात कही। यह तथ्य कि मोदी आरएसएस पर भारी पड़े हैं, 2025 के विजयादशमी भाषण में स्पष्ट दिखा, जब मोहन भागवत ने संघ के मिशन को मोदी द्वारा तय किए गए 2047 के लक्ष्य से जोड़ दिया।

7 अक्टूबर 2001 को गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही मोदी एक कठिन पूर्व प्रचारक साबित हुए। भाजपा के अन्य नेताओं यहां तक कि प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी के विपरीत, मोदी ने आरएसएस नेतृत्व के साथ नियमित परामर्श बैठकों की परंपरा जारी नहीं रखी। मुख्यमंत्री रहते हुए संगठन के क्षेत्रीय पदाधिकारी उनसे अपेक्षा करते थे कि वे उनके सामने झुकें, लेकिन मोदी ने ऐसा नहीं किया। कुछ ही वर्षों में उन्होंने न केवल ‘समस्या पैदा करने वाले’ आरएसएस पदाधिकारियों को अन्य राज्यों में स्थानांतरित करवा दिया, बल्कि स्वयं राज्य में संघ परिवार के सबसे प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। समय के साथ, गुजरात से जुड़े फैसलों में चाहे उम्मीदवार चयन हो या नीतिगत निर्णयभाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व भी पीछे छूट गया।

प्रधानमंत्री बनने के शुरुआती दौर में मोदी ने आरएसएस के साथ परामर्शात्मक संबंध बनाए रखा। अक्टूबर 2014 में उन्होंने चुनिंदा आरएसएस नेताओं के साथ बैठक भी की, जिसमें मंत्रियों ने नीतिगत मुद्दों पर चर्चा की। लेकिन जैसे-जैसे मोदी का आत्मविश्वास बढ़ा, गुजरात मॉडल को राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाने लगा। 2019 के लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत के बाद आरएसएस से पूर्ण कार्यात्मक स्वायत्तता का दौर शुरू हुआ। शुरुआत में संघ ने अपनी द्वितीयक भूमिका स्वीकार की, क्योंकि मोदी ने उसके लंबे समय के एजेंडे राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370 की समाप्ति और नागरिकता संशोधन अधिनियम को लागू किया। लेकिन समय के साथ आर्थिक मोर्चे पर टकराव बढ़ा, जैसे 2020 में बिना व्यापक परामर्श के लाए गए कृषि कानून।

राम मंदिर के भूमि पूजन (अगस्त 2020) और प्राण प्रतिष्ठा (जनवरी 2024) में मोदी स्वयं मुख्य भूमिका में रहे। मोहन भागवत भी अनुष्ठानों में शामिल थे, लेकिन उनकी भूमिका मोदी के बाद की थी। दूसरे कार्यकाल में दोनों के बीच तनाव और बढ़ा, क्योंकि सत्ता और प्रचार पर मोदी की पकड़ और मजबूत होती गई।

आरएसएस को सबसे अधिक आपत्ति भाजपा के 2024 चुनाव अभियान के अत्यधिक व्यक्तिकरण मोदी की गारंटी और अबकी बार 400 पार जैसे नारे से हुई। अंतिम झटका तब लगा, जब भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने यह कहा कि पार्टी को अब आरएसएस की जरूरत नहीं है। चुनावों में, आरएसएस के जमीनी नेटवर्क के दूर रहने से भाजपा की सीटें 2019 के 303 से घटकर 240 रह गईं। इसके बाद रिश्ते सुधारने की कोशिशें शुरू हुईं और अगस्त 2024 में समन्वय बैठकों के जरिए तालमेल बहाल हुआ।

हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में आरएसएस कैडर की वापसी से भाजपा को बड़ी जीत मिली। नागपुर में मोदी का दौरा एक तरह से धन्यवाद था, लेकिन ऑपरेशन सिंदूर और बिहार चुनावों के बाद उन्होंने फिर से अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। स्पष्ट है कि आरएसएस ने द्वितीयक भूमिका स्वीकार कर ली है, क्योंकि उसके वैचारिक लक्ष्य पूरे हो रहे हैं।

आज भी, शिक्षा से लेकर खेल और संस्कृति तक, विभिन्न संस्थानों में अपने लोगों के जरिए आरएसएस नीतियों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। भले ही वह फिलहाल ‘दूसरी पंक्ति’ में दिखे, लेकिन संघ मानता है कि कोई भी अमर नहीं होता। हिंदी फिल्म गली बॉय के गीत की तरहअपना टाइम आएगा। आरएसएस को भरोसा है कि मोदी युग के बाद उसका समय फिर लौटेगा।

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