
राफेल उड़ा सकती हैं तो JAG में क्यों नहीं, सुप्रीम कोर्ट का तीखा सवाल
जज ने इस तथ्य पर जोर दिया कि लिंग तटस्थता का मतलब यह नहीं है कि पद 50:50 के अनुपात में विभाजित हैं, बल्कि यह कि पद किसी भी लिंग के सदस्य द्वारा भरा जा सकता है
सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय सेना की जज एडवोकेट जनरल (JAG) शाखा में महिला अधिकारियों की सीमित संख्या पर केंद्र सरकार से सख्त सवाल पूछे हैं। कोर्ट ने टिप्पणी की, "जब एक महिला वायुसेना में राफेल लड़ाकू विमान उड़ा सकती है, तो सेना में JAG जैसी जेंडर न्यूट्रल पोस्ट पर महिलाएं क्यों नहीं?
यह मामला सेना की JAG शाखा में 50:50 पुरुष और महिला चयन नीति के विरोध में दो महिला अधिकारियों – अर्शनूर कौर और आस्था त्यागी – द्वारा दायर याचिका से जुड़ा है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि उन्होंने पुरुष उम्मीदवारों की तुलना में उच्च मेरिट हासिल की थी (क्रमश: चौथा और पाँचवाँ स्थान), फिर भी केवल तीन महिला सीटें होने के कारण उनका चयन नहीं हो सका।
कोर्ट की टिप्पणी: "जेंडर न्यूट्रल का अर्थ 50:50 नहीं होता"
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और मनमोहन की पीठ ने कहा कि यह व्यवस्था जेंडर न्यूट्रल नहीं कही जा सकती, यदि उच्च मेरिट वाली महिला उम्मीदवार को सिर्फ सीटों के लिंग-आधारित आरक्षण के चलते बाहर कर दिया जाए।
जस्टिस मनमोहन ने सवाल उठाया, "अगर सभी 10 महिला उम्मीदवार मेरिट में शीर्ष पर हों, तो क्या उन्हें JAG शाखा में नियुक्त किया जाएगा? यदि नहीं, तो यह प्रणाली जेंडर न्यूट्रल कैसे है?"
अर्शनूर को अगली ट्रेनिंग में शामिल करने के निर्देश
कोर्ट ने अर्शनूर कौर की याचिका को लेकर कहा कि "प्रथम दृष्टया याचिकाकर्ता के तर्क संतोषजनक हैं।" कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि उसे अगली उपलब्ध ट्रेनिंग में शामिल किया जाए ताकि उसे JAG पोस्टिंग दी जा सके।
वहीं, आस्था त्यागी ने याचिका की सुनवाई के दौरान भारतीय नौसेना में सेवा जॉइन कर ली, जिसकी जानकारी कोर्ट को दी गई।
राफेल वाली मिसाल और युद्धबंदी की आशंका
कोर्ट ने एक समाचार रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि एक महिला पायलट अब राफेल विमान उड़ाएगी। ऐसे में यदि युद्ध की स्थिति में वह बंदी भी बन जाए, तो यह महिला अधिकारियों की बहादुरी का प्रमाण है। फिर सेना लिंग के आधार पर उन्हें कानूनी पदों से कैसे वंचित रख सकती है?
केंद्र सरकार की दलीलें
केंद्र और सेना की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने जवाब देते हुए कहा कि महिलाओं की नियुक्ति एक "प्रगतिशील प्रक्रिया" है, जो सेना की "ऑपरेशनल जरूरतों" के अनुसार तय होती है। उन्होंने कहा कि 2012 से 2023 तक महिलाओं की भर्ती अनुपात 70:30 था, जिसे 2024 से बढ़ाकर 50:50 किया गया है।
भाटी ने कहा, "यह सोचना कि यह नीति भेदभावपूर्ण है या मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है, न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल देना होगा।"
जेंडर-आधारित रिक्तियों को उचित ठहराया
भाटी ने आगे कहा कि सेना की हर शाखा में "मैनपावर असेसमेंट" के आधार पर जेंडर-आधारित सीटें तय की जाती हैं। JAG शाखा को सिर्फ कानूनी सलाहकार नहीं माना जा सकता, बल्कि यह सेना की ऑपरेशनल तैयारियों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
उन्होंने यह भी बताया कि पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग SSB आयोजित करना आवश्यक होता है क्योंकि टेस्ट में निकट शारीरिक संपर्क की ज़रूरत होती है।
‘लड़ाकू ज़ोन से दूर रखना सरकार का सोच-समझकर लिया गया निर्णय’
भाटी ने स्पष्ट किया कि महिला अधिकारियों को लड़ाकू क्षेत्रों में तैनात न करना सरकार का सचेत निर्णय है, क्योंकि वहां उनके शत्रु संपर्क में आने की आशंका अधिक होती है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट की यह सुनवाई महिला अधिकारियों की समानता, योग्यता आधारित चयन और लिंग भेदभाव के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण पड़ाव बन सकती है। कोर्ट का रुख यह दर्शाता है कि केवल आंकड़ों में नहीं, नीतियों में भी वास्तविक जेंडर न्यूट्रलिटी ज़रूरी है।