तलाक के बाद मुस्लिम महिला भी मांग सकती है गुजारा भत्ता : सुप्रीम कोर्ट
न्यायालय ने माना कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986 धर्मनिरपेक्ष कानून पर प्रभावी नहीं होगा. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने 49 साल पुराने शाहबानो केस की याद दिलाई
Muslim Women Alimony: सुप्रीम कोर्ट ने 49 साल पहले आये शाहबानो केस से मिलता जुलता एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा है कि एक मुस्लिम महिला तलाक के बाद पति से गुजारे भत्ते की मांग कर सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने ये भी साफ़ किया कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत एक मुस्लिम महिला पति से गुजारे भत्ते की मांग कर सकती है.
दरअसल, ये मामला तेलंगाना के रहने वाले एक शख्स से जुड़ा है, जिसने पत्नी को गुजारा भत्ता देने के खिलाफ याचिका दायर की थी.
इससे पहले तेलंगाना हाई कोर्ट ने इस मुस्लिम शख्श को ये आदेश दिया था कि उसे पत्नी को गुजारा भत्ता देना होगा. हाई कोर्ट के इस आदेश को शख्स ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इससे जुड़े विस्तृत पहलू पर सुनवाई करते हुए ये अहम फैसला दिया है.
ये फैसला न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ द्वारा दिया गया है. खंडपीठ ने जोर देकर कहा कि गुजारा भत्ता मांगने का कानून सभी विवाहित महिलाओं पर लागू होता है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो. जस्टिस नागरत्ना और जस्टिस मसीह ने अलग-अलग, लेकिन समवर्ती फैसले सुनाए. उन्होंने कहा कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986 धर्मनिरपेक्ष कानून पर हावी नहीं होगा.
जानिए 49 साल पुराने शाहबानो मामले के बारे में
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने एक बार फिर से 49 साल पुराने शाहबानो केस की याद दिला दी. इस मामले को लेकर कांग्रेस पर हमेशा से हमले होते रहे हैं, ख़ासतौर से जब भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले और संविधान के सम्मान की बात सामने आती है.
ये मामला साल 1975 का है, जब इंदौर की रहने वाली एक 59 साल की महिला शाहबानो को उसके पति मोहम्मद अहमद खान ने तलक दे दिया था. शाहबानो के पांच बच्चे थे. शाहबानो ने बच्चों के लिए हर महीने गुजारा भत्ता देने की मांग की. लेकिन उसके पति ने मोहम्मद अहमद खान ने शाह बानो को तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) दे दिया और इसी बिनाह पर सने किसी भी तरह की मदद करने से इनकार कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया था गुजारा भत्ता देने का फैसला
शाहबानो ने अदालत से न्याय की मांग की. लेकिन उसके पति मोहम्मद अहमद खान ने दलील दी कि तीन तलाक के बाद इद्दत की मुद्दत तक ही तलाकशुदा महिला की देखरेख की जिम्मेदारी उसके पति की होती है. तलाक के बाद गुजारा भत्ता देने का कोई प्रावधान नहीं है. क्योंकि ये मामला मुस्लिम पर्सनल लॉ से जुड़ा था, इसलिए ये लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची. जिसे पांच जजो की संविधान पीठ को सौंप दिया गया. संविधान पीठ ने 23 अप्रैल 1985 को मुस्लिम पर्सनल लॉ बॉर्ड के आदेश के खिलाफ अपना फैसला सुनाते हुए शाहबानो के पति को आदेश दिया कि वो अपने बच्चों को 179.20 रूपये गुजारा भत्ता दे. साथ ही संविधान पीठ ने सरकार को समान नागरिक संहिता की दिशा में आगे बढ़ने की अपील की थी.
राजीव गाँधी सरकार ने पलट दिया था फैसला
शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर खास तौर से समान नागरिकता संहिता लागू करने वाली टिपण्णी को लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने नाराजगी जतायी. इसकी वजह से तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) कानून 1986 सदन में पेश किया. इसी के बाद से कांग्रेस पर इस बात को लेकर आरोप लगते रहे हैं कि वोट बैंक के चक्कर में कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया. खासतौर से बीजेपी कांग्रेस पर तुष्टिकरण का आरोप लगाती रही है.