बहुत बहुत परेशान करने वाली बात, लोकपाल पर SC ने क्यों की ऐसी टिप्पणी
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बहुत बहुत परेशान करने वाली बात, लोकपाल पर SC ने क्यों की ऐसी टिप्पणी

क्य हाइकोर्ट के जजों के खिलाफ शिकायत सुनने का अधिकार लोकपाल के पास है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर खुद संज्ञान लेते बहुत बहुत परेशान करने वाली टिप्पणी


Supreme Court On Lokpal: यह तो कुछ बहुत ही परेशान करने वाली बात है, इस चिंता के साथ सुप्रीम कोर्ट ने 27 जनवरी वाले लोकपाल ऑर्डर पर रोक लगा दी। अब सुप्रीम कोर्ट की बेंच जिसमें जस्टिस बी आर गवई, सूर्यकांत और अभय एस ओका थे, उन्हें इस तरह की टिप्पणी क्यों करनी पड़ी। दरअसल लोकपाल ने कहा कि हाइकोर्ट के कार्यरत न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायत की जांच का उसके पास अधिकार है।

सर्वोच्च न्यायालय ने लोकपाल और हाइकोर्ट के जजों वाले केस पर खुद संज्ञान लिया। यह मामला तीन जजों की पीठ को सुपुर्द किया गया। जस्टिस गवई की पीठ ने बहुत ही परेशान करने वाली टिप्पणी के साथ केंद्र सरकार, लोकपाल और इस मामले में शिकायकर्ता को नोटिस जारी की। इसने अपने रजिस्ट्रार न्यायिक को निर्देश दिया कि शिकायतकर्ता की पहचान छिपाई जाए और उसे उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार न्यायिक के माध्यम से शिकायत भेजी जाए जहां शिकायतकर्ता रहता है। इसने शिकायतकर्ता को उस न्यायाधीश का नाम बताने से मना किया जिसके खिलाफ शिकायत दर्ज की गई थी या शिकायत की विषय-वस्तु का खुलासा करने से मना किया।

केंद्र की तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 में प्रासंगिक प्रावधानों की उनकी व्याख्या के मुताबिक “उच्च न्यायालय के न्यायाधीश कभी भी लोकपाल अधिनियम के दायरे में नहीं आएंगे। इसे बताने के लिए संवैधानिक प्रावधान और कुछ फैसले हैं।

वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने इस टिप्पणी से सहमति जताते हुए कहा कि यह बहुत बहुत परेशान करने वाला है, यह खतरे से भरा हुआ है। उन्होंने कहा कि कानून बनाना जरूरी था। न्यायमूर्ति गवई और न्यायमूर्ति ओका ने यह विचार व्यक्त किया कि संविधान लागू होने के बाद, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश संवैधानिक प्राधिकारी हैं, न कि केवल वैधानिक पदाधिकारी, जैसा कि लोकपाल ने निष्कर्ष निकाला था। मेहता ने कहा, प्रत्येक न्यायाधीश उच्च न्यायालय है।

सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर की अध्यक्षता में लोकपाल का यह आदेश एक उच्च न्यायालय के वर्तमान अतिरिक्त न्यायाधीश के विरुद्ध दो शिकायतों पर आया है, जिसमें आरोप लगाया गया है कि नामित न्यायाधीश ने संबंधित अतिरिक्त जिला न्यायाधीश को प्रभावित किया है, तथा उसी उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को, जिन्हें एक निजी कंपनी द्वारा शिकायतकर्ता के विरुद्ध दायर मुकदमे से निपटना था, उस कंपनी के पक्ष में काम करने के लिए प्रभावित किया है। इसमें आरोप लगाया गया है कि निजी कंपनी पहले नामित उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की मुवक्किल थी, जबकि वह बार में अधिवक्ता के रूप में कार्य कर रहे थे।

इस पर निर्णय लेते हुए लोकपाल के आदेश में कहा गया है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 के अंतर्गत स्थापित सर्वोच्च न्यायालय के विपरीत, संबंधित उच्च न्यायालय की स्थापना संसद के अधिनियम द्वारा की गई थी, इसलिए “यह तर्क देना बहुत भोलापन होगा कि उच्च न्यायालय का न्यायाधीश अधिनियम की धारा 14 (1) के खंड (एफ) में ‘किसी व्यक्ति’ की अभिव्यक्ति के दायरे में नहीं आएगा।

इस फैसले में 1991 के के वीरास्वामी बनाम भारत संघ के फैसले में बहुमत के दृष्टिकोण का हवाला दिया गया और कहा गया कि इसके अनुसार, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को लोक सेवक की परिभाषा से बाहर नहीं रखा जा सकता है और वह सीधे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 के दायरे में आएगा।इस रिपोर्ट किए गए फैसले में दिए गए अंतर्निहित सिद्धांत और तर्क को लागू करते हुए, 2013 के अधिनियम की धारा 14(1) (एफ) में ‘किसी भी व्यक्ति’ की अभिव्यक्ति में संसद के अधिनियम द्वारा स्थापित उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को भी शामिल किया जाना चाहिए।

लोकपाल ने यह भी कहा कि वीरस्वामी निर्णय के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के खिलाफ कोई आपराधिक मामला तब तक "पंजीकृत" नहीं किया जाएगा, जब तक कि मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श न लिया जाए।

27 जनवरी के आदेश में कहा गया कि लोकपाल ने जांच का आदेश दिया "जांच एजेंसी ने लोकपाल के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने और उसकी जांच करने का निर्देश जारी करने का प्रस्ताव रखा है" और उपाय यह होगा कि पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश से संपर्क किया जाए। लोकपाल ने यह भी स्पष्ट किया कि उन्होंने मामले के गुण-दोष पर विचार नहीं किया है। हम यह स्पष्ट कर रहे हैं कि इस आदेश द्वारा हमने एक असाधारण मुद्दे पर अंतिम रूप से निर्णय लिया है कि संसद द्वारा स्थापित उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 2013 के अधिनियम की धारा 14 के आम तौर पर सकारात्मक रूप में आते हैं। न अधिक और न ही कम। इसमें उल्लेख किया गया है कि गुण-दोष पर गौरव या जांच नहीं की गई है।

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