1986 अधिनियम घरेलू हिंसा कानून, धारा 125 की तुलना में मुस्लिम महिलाओं के लिए अधिक मददगार
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1986 अधिनियम घरेलू हिंसा कानून, धारा 125 की तुलना में मुस्लिम महिलाओं के लिए अधिक मददगार

सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धर्मनिरपेक्ष धारा 125 के तहत मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार पर निर्णय दिया है. इस फैसले को प्रगतिशील निर्णय के रूप में व्यापक रूप से सराहा जा रहा है.


Domestic Violence Act: हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धर्मनिरपेक्ष धारा 125 के तहत मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार पर निर्णय दिया है. इस फैसले को लैंगिक समानता की वकालत करने वाले प्रगतिशील निर्णय के रूप में व्यापक रूप से सराहा जा रहा है. हालांकि, इस क्षेत्र में काम करने वाले सुप्रीम कोर्ट के वकील और कार्यकर्ता अलग तरह से सोचते हैं. उनका कहना है कि इस फैसले से कोई नया अधिकार नहीं बना है और सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ़ वही दोहराया है, जो उसने पहले के फैसलों में कहा था.

दिलचस्प बात यह है कि कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986, जिसे तत्कालीन राजीव गांधी सरकार द्वारा शाह बानो फैसले को दरकिनार करने के लिए बनाया गया था (जिसके लिए उन्हें काफी आलोचना झेलनी पड़ी थी), विडंबना यह है कि आज धारा 125 सीआरपीसी से कहीं ज़्यादा लोकप्रिय है. क्योंकि, यह मुस्लिम महिलाओं को ज़्यादा भरण-पोषण और कम समय-सीमा में भरण-पोषण प्रदान करता है.

इसके अलावा मुस्लिम महिलाओं को कानूनी सहायता प्रदान करने वाले जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि मुस्लिम महिलाएं एक और रास्ते के तहत भरण-पोषण के लिए आवेदन करना पसंद करती हैं, जो घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 (डीवी अधिनियम) है. महिला कार्यकर्ताओं का कहना है कि धारा 125 सीआरपीसी, जो अब वैसे भी नए भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) के तहत बदल जाएगी, एक अधिक श्रमसाध्य प्रक्रिया है.

नया या अनोखा नहीं

मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार के मुद्दे को परिप्रेक्ष्य में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता शाहरुख आलम ने द फेडरल को एक विशेष साक्षात्कार में बताया कि जस्टिस नागरत्ना-मसीह का निर्णय "स्वागत योग्य" है. हालांकि, इस मुद्दे पर पहले भी बहुत अधिक नए और व्यापक निर्णय आए हैं. आलम के अनुसार, मुस्लिम महिलाओं के पास पहले से ही 'धर्म तटस्थ' धारा 125 सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण के लिए आवेदन करने का विकल्प था और यह नवीनतम निर्णय इस अधिकार को पुनः स्थापित करता है.

आलम ने कहा कि यह कोई नई बात नहीं है और न ही जस्टिस नागरत्ना ऐसा कह रही हैं. दरअसल, वह डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ 2001 जैसे पहले के फैसलों पर भरोसा कर रही हैं, जो मुस्लिम महिलाओं के लिए कहीं अधिक कल्पनाशील और न्यायसंगत है और बाद में साल 2009 में शबाना बानो बनाम इमरान खान का फैसला, जिसने स्पष्ट रूप से पुष्टि की कि मुस्लिम महिलाओं के पास धारा 125 के अलावा एक वैकल्पिक उपाय है.

शाहबानो निर्णय

इसके अलावा मुस्लिम महिलाओं के लिए भरण-पोषण के अधिकार के इस विशेष मुद्दे पर कानून के विकास पर चर्चा करते हुए आलम ने कहा कि धारा 125 सीआरपीसी धर्मनिरपेक्ष है और किसी भी महिला को मजिस्ट्रेट से संपर्क करने का अधिकार है. हालांकि, शाह बानो के फैसले के बाद इस पर बहुत बड़ा विवाद हुआ और कुछ मुस्लिम संगठनों को लगा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ की व्याख्या करने के तरीके में उल्लंघन हुआ है और मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 अस्तित्व में आया.

साल 1986 के अधिनियम में यह निर्णय दिया गया था कि मुस्लिम महिलाओं के लिए इद्दत (मृत्यु या तलाक के बाद प्रतीक्षा अवधि) की अवधि (90 दिन) के लिए एक "उचित प्रावधान" प्रदान किया जाना चाहिए और इसके बाद यदि महिला आर्थिक रूप से अपनी देखभाल करने में असमर्थ है तो रिश्तेदार या वक्फ बोर्ड उसकी देखभाल करेगा. इसके बाद शाहबानो के वकील डेनियल लतीफी ने साल 2001 में इस अधिनियम की संवैधानिकता को चुनौती दी और तर्क दिया कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन है.

संवैधानिक नहीं

साल 1986 के इस विशेष अधिनियम पर सवाल उठाते हुए लतीफी ने पूछा था कि एक मुस्लिम महिला को 125 CrPc के तहत मजिस्ट्रेट के पास जाने से क्यों रोका जाना चाहिए, इस अधिनियम का उद्देश्य क्या है? और रिश्तेदारों और वक्फ बोर्ड को इसमें क्यों घसीटा जाना चाहिए? उसके भरण-पोषण के लिए पति को उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए. जिस पर सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की पीठ ने उनसे सहमति जताते हुए कहा कि जो कुछ भी आबादी के एक हिस्से यानी मुस्लिम महिलाओं के लिए फायदेमंद नहीं है, वह संवैधानिक नहीं हो सकता है.

आलम ने बताया कि उनकी याचिका पर प्रतिक्रिया देते हुए पांच न्यायाधीशों की पीठ ने उस समय कुछ दिलचस्प और नया किया था. पांच न्यायाधीशों की पीठ ने 1986 के अधिनियम की धारा 3 (1) ए के तहत पत्नी के लिए उचित प्रावधान की व्याख्या एकमुश्त राशि प्रदान करने के रूप में की - एकमुश्त भुगतान 90 दिनों या इद्दत की अवधि के भीतर पत्नी को दिया जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट उसके जीवन भर के भरण-पोषण की गणना कर रहा था, ताकि पूर्व पति उसे एक ऐसी जीवनशैली प्रदान कर सके, जिसकी वह आदी है और जिसे उसके जीवनकाल की अनुमानित अवधि में जीने की आवश्यकता है. यह एक बहुत ही प्रगतिशील और व्यापक निर्णय था.

बड़ी राहत

न्यायाधीशों ने कहा था कि साल 1986 के अधिनियम की कोई भी अन्य व्याख्या इसे भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक बना देगी. आलम ने कहा कि इस फैसले से मुस्लिम महिलाओं को काफी राहत मिली है, जो अन्यथा धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता पाने के लिए महीनों तक संघर्ष कर रही थीं. दोबारा साल 2009 में शबाना बानो बनाम इमरान खान मामले में न्यायाधीशों ने दोहराया कि मुस्लिम महिलाओं को भी धारा 125 के तहत आगे बढ़ने का समानान्तर अधिकार है. वहीं, अपने हालिया फैसले में जस्टिस नागरत्ना ने भी कहा कि साल 1986 के अधिनियम को लागू करते समय संसद ने तलाकशुदा मुस्लिम महिला के लिए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का दावा करने पर कोई रोक नहीं लगाई थी.

जस्टिस नागरत्ना ने लिखा कि यह बात पहली बार साल 2001 में डेनियल लतीफी और अन्य बनाम भारत संघ के ऐतिहासिक फैसले में कही गई थी. फैसले में दोहराया गया कि धारा 125 सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 (एमडब्ल्यूपीआरडी अधिनियम) के तहत भरण-पोषण के प्रावधानों के अतिरिक्त रूप में मौजूद है, न कि इसके खिलाफ.

क्या धारा 125 इसका उत्तर है?

लेकिन क्या मुस्लिम महिलाओं के लिए धारा 125 ही समाधान है? आलम के अनुसार, घरेलू हिंसा अधिनियम (डीवी) 2005 में अस्तित्व में आया, जो धारा 125 के बावजूद भरण-पोषण देता है. मुस्लिम महिलाओं द्वारा डीवी अधिनियम के तहत न्यायालयों का रुख करने पर कोई विवाद नहीं है. साथ ही, यह एक एकल खिड़की प्रणाली है, जहा आप निरोधक आदेश, संरक्षण, भरण-पोषण और निवास अधिकार जैसी राहत मांग सकते हैं. अब अधिकांश महिलाएं डीवी अधिनियम का विकल्प चुन रही हैं. इसलिए आज वास्तव में मुस्लिम महिलाओं को डीवी अधिनियम या उनके व्यक्तिगत कानूनों या धारा 125 के तहत समानांतर अधिकार प्राप्त हैं.

मुम्बई स्थित कार्यकर्ता ऑड्रे डी'मेलो ने आलम के विचार को दोहराते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा मुस्लिम महिलाओं के धारा 125 को चुनने के अधिकार को बरकरार रखा है. डी'मेलो ने कहा कि यह गलतफहमी है कि 1986 के अधिनियम के साथ धारा 125 को हटा दिया गया. उनके अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं इसे इसलिए चुनती हैं. क्योंकि यह अधिक सरल प्रक्रिया है. डी'मेलो मजलिस की निदेशक हैं, जो कानूनी प्रतिनिधित्व, वकालत और प्रशिक्षण के माध्यम से महिलाओं और बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाला एक गैर सरकारी संगठन है और इन सभी कानूनों के तहत कई महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं.

तुरंत राहत

डी'मेलो का मानना है कि मुस्लिम महिलाएं आज धारा 125 के बजाय घरेलू हिंसा अधिनियम या 1986 के अनुकूल अधिनियम को अधिक पसंद करती हैं. उन्होंने द फेडरल को बताया कि साल 2005 का घरेलू हिंसा अधिनियम, एक धर्मनिरपेक्ष कानून अधिक समग्र है. क्योंकि इसमें कार्यवाही संक्षिप्त रूप से की जाती है और महिलाओं को त्वरित राहत मिलती है. उन्होंने कहा कि सभी जातियों और धर्मों की महिलाएं घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत मामला दायर कर सकती हैं, जब उन्हें भरण-पोषण या घरेलू हिंसा आदि के खिलाफ सुरक्षा की आवश्यकता होती है. मुझे इस हालिया फैसले पर इतना हंगामा समझ में नहीं आता, जब मुस्लिम महिलाएं तस्वीर में आती हैं तो हर कोई उत्साहित क्यों हो जाता है.

आलम ने भी कहा कि वकील होने के नाते वे महिलाओं को धारा 125 के तहत मामला दर्ज करने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते. उन्होंने कहा कि अधिक भरण-पोषण पाने के लिए 1986 अधिनियम या डीवी अधिनियम के तहत मामला दर्ज करना बेहतर है. धारा 125 में सबसे अधिक समय लगता है और आमतौर पर महिलाओं को अधिक भरण-पोषण नहीं मिलता. आलम के लिए, जस्टिस नागरत्ना का फैसला, संक्षेप में, मुस्लिम महिलाओं के लिए रास्ते खोल रहा है, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि किसी भी चीज पर रोक नहीं है. हालांकि, उन्होंने स्वीकार किया कि इसमें जमीनी हकीकत को ध्यान में नहीं रखा गया है.

वित्तीय सुरक्षा के लिए संघर्ष

लेकिन जस्टिस नागरत्ना-मसीह के फैसले में जो बात उभर कर सामने आई, वह यह है कि इस बात पर जोर देने के अलावा कि भरण-पोषण कोई दान नहीं बल्कि अधिकार है. जस्टिस ने महिलाओं की वित्तीय सुरक्षा के लिए भी सक्रियता से वकालत की. कानूनी विशेषज्ञों ने बताया कि यह निर्णय सामान्य विवाह में भी "संसाधनों के वित्तीय बंटवारे" को महत्व देता है. जस्टिस ने "संयुक्त खाते" की तरह संसाधनों को साझा करने के लिए वित्तीय स्वतंत्रता तंत्र स्थापित करने की वकालत की. विशेषज्ञों ने कहा कि यह मुख्य रूप से उसे सम्मान की भावना देने के लिए है, यदि पति ही घर का एकमात्र कमाने वाला है और पत्नी अपने स्वयं के संसाधनों के बिना घर की देखभाल कर रही है. इस दृष्टि से विशेषज्ञों का तर्क है कि यह एक "सूक्ष्म" निर्णय है और इसमें भारतीय परिवार की कार्यप्रणाली पर विचार किया गया है.

गृहणियों को सशक्त बनाना

अपने 45 पृष्ठ के फैसले में जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि भारतीय महिलाओं की 'वित्तीय सुरक्षा' के साथ-साथ 'निवास की सुरक्षा' को भी संरक्षित और बढ़ाया जाना चाहिए. उनके विचार में, इससे भारतीय महिलाओं को वास्तविक रूप से सशक्तीकरण मिलेगा, जिन्हें 'गृहिणी' कहा जाता है और जो भारतीय परिवार की ताकत और रीढ़ हैं. उन्होंने कहा कि भारतीय समाज में यह स्थापित प्रथा है कि एक बार बेटी की शादी हो जाने पर वह अपने पति या उसके परिवार के साथ रहती है, जब तक कि करियर की अनिवार्यता या अन्य किसी कारण से उसे कहीं और नहीं रहना पड़ता. यदि किसी महिला के पास आय का स्वतंत्र स्रोत है तो वह आर्थिक रूप से संपन्न हो सकती है और अपने पति और उसके परिवार पर पूरी तरह से निर्भर नहीं हो सकती है.

आय का स्रोत

लेकिन उस विवाहित महिला का क्या होगा, जिसे प्रायः "गृहिणी" कहा जाता है और जिसके पास आय का कोई स्वतंत्र स्रोत नहीं है तथा जो अपने वित्तीय संसाधनों के लिए पूरी तरह से अपने पति और उसके परिवार पर निर्भर है?

उन्होंने कहा कि कुछ पति इस तथ्य से अवगत नहीं हैं कि उनकी पत्नी, जिसके पास वित्त का कोई स्वतंत्र स्रोत नहीं है, न केवल भावनात्मक रूप से बल्कि वित्तीय रूप से भी उन पर निर्भर है. इस तरह का वित्तीय सशक्तीकरण ऐसी कमजोर पत्नी को परिवार में अधिक सुरक्षित स्थिति में रखेगा. इसलिए, उन्होंने सुझाव दिया कि, जो भारतीय विवाहित पुरुष इस पहलू के प्रति सचेत हैं, उन्हें "अपने जीवनसाथी के लिए घरेलू खर्चों के अलावा, व्यक्तिगत खर्चों के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने चाहिए, संभवतः संयुक्त बैंक खाता खोलकर या एटीएम कार्ड के माध्यम से, इसकी पुष्टि की जानी चाहिए.

मामला क्या था?

10 जुलाई को जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने धारा 125 सीआरपीसी के तहत मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को बरकरार रखते हुए अलग-अलग लेकिन सहमति वाले फैसले सुनाए. जब एक मुस्लिम व्यक्ति ने तेलंगाना हाई कोर्ट के उस निर्देश को चुनौती दी, जिसमें उसने अपनी पूर्व पत्नी को 10,000 रुपये का अंतरिम भरण-पोषण देने का निर्देश दिया था. उसने तर्क दिया था कि उसके मामले में भरण-पोषण का दावा मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 (1986 अधिनियम) के प्रावधानों द्वारा शासित होगा. फैसले में कहा गया कि धारा 125 सीआरपीसी के तहत राहत एक सामाजिक सुरक्षा उपाय है, जो किसी भी मुस्लिम पर्सनल लॉ उपचार से स्वतंत्र रूप से संचालित होता है और उसकी याचिका खारिज कर दी गई.

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