तमिलनाडु का तीन भाषा विरोध: ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर पर आधारित
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तमिलनाडु का तीन भाषा विरोध: ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर पर आधारित

टॉकिंग सेंस विद श्रीनी के इस एपिसोड में द फेडरल के प्रधान संपादक एस श्रीनिवासन इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि दक्षिण में केवल तमिलनाडु ही केंद्र की हिंदी थोपने की कथित कोशिश के खिलाफ क्यों मजबूती से सामने आया है.


Talking Sense with Srini के एक एपिसोड में The Federal के एडिटर इन चीफ श्रीनिवासन ने इस पर चर्चा की कि क्यों तमिलनाडु केंद्र सरकार की तीन-भाषा नीति का विरोध करने में अकेला है. उनका यह विश्लेषण भारतीय भाषा विवादों के बीच महत्वपूर्ण हो गया है, खासकर जब देश के विभिन्न हिस्सों में इस विषय पर व्यापक बहस चल रही है.

तमिलनाडु का विरोध

श्रीनिवासन ने कहा कि तमिलनाडु का हिंदी विरोध केवल एक राजनीतिक रुख नहीं, बल्कि गहरी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर आधारित है. द्रविड़ राजनीति की नींव हिंदी विरोधी आंदोलनों में है. इस विरोध का इतिहास 1930 के दशक से शुरू होता है, जब हिंदी को थोपने की पहली कोशिशें राज्यभर में व्यापक विरोध का कारण बनीं. 1940 और 1960 के दशकों में यह विरोध और भी प्रबल हुआ और इसने द्रविड़ नेताओं जैसे सीएन अन्नादुराई और एम करुणानिधि को राजनीति में प्रमुखता दिलाई. इन आंदोलनों ने तमिलनाडु की भाषा-संस्कृति को एक सशक्त पहचान दी, जो आज भी जीवित है.

तमिल की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर

तमिलनाडु में तमिल भाषा के प्रति गहरी श्रद्धा और गर्व है. श्रीनिवासन ने इस पर जोर देते हुए कहा कि तमिल हजारों साल पुरानी भाषा है और यह राज्य की साहित्यिक परंपरा का एक अभिन्न हिस्सा है. थिरुक्कुरल और कंब रामायणम् जैसी कृतियां तमिल साहित्य का गौरव हैं. तमिल समाज में यह विश्वास है कि उनकी भाषा न केवल प्राचीन है, बल्कि उसमें एक समृद्ध साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर भी समाई हुई है. श्रीनिवासन के अनुसार, यह गर्व इस बात को सुनिश्चित करता है कि राज्य हिंदी को एक विदेशी भाषा के रूप में तो स्वीकार करता है. लेकिन उसे किसी भी रूप में थोपे जाने का विरोध करता है.

दक्षिणी राज्यों में हिंदी का विरोध

हालांकि, तमिलनाडु में हिंदी का विरोध तीव्र है, श्रीनिवासन ने दक्षिणी राज्यों के बीच इस विरोध में अंतर को भी रेखांकित किया. उन्होंने पूछा कि केरल, कर्नाटक या आंध्र प्रदेश ने हिंदी का विरोध तमिलनाडु की तरह क्यों नहीं किया? इसके लिए उन्होंने इन राज्यों के अद्वितीय भाषा, सांस्कृतिक और राजनीतिक संदर्भों को जिम्मेदार ठहराया. केरल में उच्च साक्षरता दर और वैश्विक प्रवास के कारण द्विभाषिकता प्रचलित है और कई मलयाली हिंदी बोलने में सक्षम हैं. राजनीतिक रूप से केरल हिंदी के थोपे जाने का विरोध करता है. लेकिन वहां तीन-भाषा नीति को बिना किसी प्रमुख विरोध के स्वीकार किया गया है.

आंध्र प्रदेश में तेलुगू भाषा पर गहरी क्षेत्रीय गर्व है. हालांकि, यहां भी भाषा मुद्दे उतने तीव्र रूप से राजनीतिक नहीं हुए हैं. साल 2014 में राज्य के विभाजन के बाद भी दोनों राज्यों ने शिक्षा और सरकारी ढांचे में हिंदी को स्वीकार किया है. बिना किसी बड़े विरोध के. कर्नाटका में हालांकि, हिंदी न जानने वालों के लिए नौकरी के अवसरों की कमी को लेकर एक दो-भाषा प्रणाली की चर्चा चल रही है. लेकिन इस मुद्दे पर कोई महत्वपूर्ण राजनीतिक आंदोलन नहीं हुआ है.

तमिलनाडु में हिंदी थोपे जाने का डर

श्रीनिवासन का कहना था कि तमिलनाडु में मुख्य मुद्दा हिंदी से नफरत नहीं, बल्कि उसे थोपे जाने का डर है. राज्य का राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास, जिसमें तमिल भाषा पर गर्व और ऐतिहासिक हिंदी विरोधी भावना मिलती है, उसे अन्य दक्षिणी राज्यों से अलग बनाता है. जबकि अन्य राज्य हिंदी और तीन-भाषा नीति को विभिन्न स्तरों पर स्वीकार करते हैं, तमिलनाडु में यह एक संवेदनशील और विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है. श्रीनिवासन ने इस पूरे विवाद को एक जटिल विषय बताया और पाठकों को The Federal की सीरीज The Great Language Divide को फॉलो करने का सुझाव दिया, जो भारत में तीन-भाषा नीति के प्रभावों पर गहराई से चर्चा करती है.



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