पहली बार नहीं बनी है बीजेपी और आरएसएस के बीच दूरी, जानिए कब कब क्या हुआ
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पहली बार नहीं बनी है बीजेपी और आरएसएस के बीच दूरी, जानिए कब कब क्या हुआ

जन संघ की स्थापना से बीजेपी के गठन तक, अटल बिहारी बाजपेयी सरकार से लेकर मोदी सरकार तक बीजेपी और आरएसएस के बीच कई बार बंटी बिगडती रही है बात. एक समय ऐसा भी आया कि जब आरएसएस ने कांग्रेस का समर्थन किया था.


BJP-RSS: लोकसभा चुनाव 2024 का समय था, बीजेपी के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने एक इंटरव्यू में कहा कि बीजेपी आरएसएस पर आश्रित नहीं है. उन्होंने कहा कि आरएसएस एक सांस्कृतिक संगठन है, जबकि बीजेपी एक राजनितिक संगठन. सबका अपना अपना काम है. शुरुआत में हम कम सक्षम थे और छोटे थे, उस समय हमे आरएसएस की जरुरत थी. आज हम सक्षम है, आत्मनिर्भर है. यही तब और आज की बीजेपी में अंतर है.

चुनाव के बीच आये नड्डा के इस बयान ने हलचल मचा दी. सब जगह इस बात की चर्चा होने लगी कि बीजेपी और आरएसएस के बीच ठीक नहीं चल रहा है. विपक्षी दल भी इस बात पर बीजेपी को घेरने लगे. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जब जमानत पर प्रचार के लिए जेल से बाहर आये तो उन्होंने भी इस बात का ज़िक्र किया. खैर चुनाव बीत गए और परिणाम आया, जिसमे बीजेपी पूर्ण बहुमत के आंकड़े से 32 सीट कम रही. बीजेपी के इस नाराशाजनक परिणाम के पीछे एक कारण ये भी माना गया.

इसके बाद 10 जून को संघ प्रमुख मोहना भागवत ने नागपुर में एक कार्यक्रम में कहा कि एक सच्चा सेवक मर्यादा बनाए रखता है, वो काम करते समय मर्यादा का पालन करता है. उसमें ये अहंकार नहीं होता कि वो कहे कि 'मैंने ये काम किया'. केवल वही व्यक्ति सच्चा सेवक कहलाता है.'

भागवत के इस बयान से ये समझा गया कि जिस तरह बीजेपी ने चुनाव के दौरान 400 पार का नारा दिया, मोदी की गारंटी के नारे पर चुनाव लड़ा और बीजेपी के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने आत्मनिर्भर होकर चुनाव लड़ने की बात कही थी, उसे लेकर ही भागवत ने अहंकार वाली बात कही है.

इसके बाद आरएसएस के कार्यकारिणी सदस्य इन्द्रेश कुमार ने जयपुर में कहा कि जिस पार्टी ने भगवान राम की भक्ति की, लेकिन अहंकारी हो गई उसे 241 पर रोक दिया गया, लेकिन वो सबसे बड़ी पार्टी बनी. जिनकी राम में कोई आस्था नहीं थी, उन्हें एक साथ 234 पर रोक दिया गया. लोकतंत्र में रामराज्य का विधान देखिए, जिन्होंने राम की भक्ति की लेकिन धीरे-धीरे अहंकारी हो गए, वो पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन भगवान ने उनके अहंकार के कारण उन्हें रोक दिया'. हालाँकि ये बात और है कि इन्द्रेश कुमार ने 24 घंटे में ही अपने बयान को पलट दिया और प्रधानमंत्री मोदी को बधाई दी.

इन तीनों की बयानों से ये साफ़ हो गया कि बीजेपी और आरएसएस के बीच कुछ ठीक नहीं चल रहा है. बात अहंकार और अहम के बीच कहीं अटकी हुई है, जो एक दम से नहीं हुई है. जानकार बताते हैं कि इस टकराव की शुरुआत 2019 से हुई है.

अब जानते हैं कि आरएसएस और बीजेपी में इस तरह की टकराव की स्थिति कब कब बनी.

पहले बात करते हैं आरएसएस की

आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सीधी राजनीती में नहीं है, लेकिन बीजेपी को उसका पोलिटिकल विंग कहा जाता है. ये भी कहा जाता रहा है कि बीजेपी सरकार का रिमोट कंट्रोल आएसएस के हाथ में ही होता है. ये भी सच है कि चाहे अटल बिहारी बाजपेयी हों या नरेन्द्र मोदी दोनों ही संघ के विद्यार्थी रहे हैं. संघ से जुड़े नेता 10 राज्यों के मुख्यमंत्री और 16 राज्यों के राज्यपाल हैं. ये भी चर्चा आम रहती है कि चुनावों में किसे टिकट दिया जाए किसे नहीं इसका निर्णय भी संघ द्वारा किया जाता रहा है. लेकिन फिलहाल दोनों के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है.


आरएसएस की विचारधारा वाले तीन लोगों ने ये सोचा कि क्यों ने राजनितिक पार्टी तैयार कर मुख्यधारा की राजनीती में आया जाए

बात 1951 की है, आजादी को 4 साल ही हुए थे. आरएसएस से जुड़े 3 बड़े अधिकारीयों ने निर्णय लिया कि राजनितिक पार्टी बनाया जाए. श्यामा प्रसाद मुख़र्जी, प्रोफेसर बलराज मधोक और दीनदयाल उपद्याय ने मिलकर पार्टी का गठन किया नाम रखा जन संघ. जैसा होता है किसी भी नए काम का कहीं विरोध होता है तो कहीं समर्थन. यहाँ भी वैसा ही हुआ. संघ के कई सदस्यों ने इस निर्णय की आलोचना की, उनका मत था कि आरएसएस एक सांस्कृतिक संगठन है, उससे जुड़ी राजनीतिक पार्टी बनाना सही नहीं होगा.

वाल्टर एंडरसन द्वारा लिखी किताब 'द ब्रदरहुड इन सैफरन' में इस बात का उल्लेख है कि आरएसएस के एक सदस्य ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय से सवाल किया कि पावर करप्ट होता है और एबसल्यूट पावर एबसल्यूटली करप्ट होता है. ऐसे में सत्ता मिलने पर जनसंघ के नेता करप्ट नहीं होंगे, इसकी क्या गारंटी है?

जनसंघ नेता और आरएसएस के प्रचारक दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि ये संभव है, लेकिन अगर संघ से जुड़ी पार्टी भ्रष्ट होती है, तो उसे खत्म करने की शक्ति आरएसएस के पास ही होगी.' इसके बाद ही ये तय किया गया कि आरएसएस 4 साल में राजनितिक पार्टी को ख़त्म कर सकती है.


शुरू से ही दिखा आरएसएस का प्रभाव

आज के समय में ये दावा किया जाता है कि बीजेपी आरएसएस का राजनितिक विंग है. इस दावे के लिए हमें 73 साल पहले जाना होगा. 1951 में श्यामा प्रसाद मुख़र्जी ने अपने सामने दो महासचिव नियुक्त किये, दीन दयाल उपाध्याय और मौली चन्द्र शर्मा. वाल्टर एंडरसन अपनी किताब में लिखते हैं कि 1954 में मुख़र्जी की मौत के बाद मौली चन्द्र शर्मा को जन संघ का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया. लेकिन आरएसएस को ये बात पसंद नहीं आई. संघ नहीं चाहता था कि उसके हस्तक्षेप के चलते पार्टी में कोई तनाव पैदा हो, इसलिए शुरुआत में संघ खामोश रहा. लेकिन संघ ने संगठन सचिव का एक नया पद बना कर पार्टी का नियंत्रण काफी हद तक अपने हाथ में रखा. पार्टी के दैनिक कार्य हों, चुनाव प्रचार, उम्मीदवार का चयन इन सब में संगठन सचिव की अहम भूमिका रहती. पार्टी में अध्यक्ष पद के कमजोर पड़ने पर मौली चन्द्र शर्मा ने संगठन सचिव पद को ख़त्म करने की मांग की लेकिन ऐसा नहीं हुआ, उल्टा मौली चन्द्र शर्मा को ही अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा.

आरएसएस ने किया कांग्रेस का समर्थन

1977 में इमरजेंसी को दौर सबको पता है. जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर तमाम विपक्षी दलों ने विलय करके जनता पार्टी का गठन किया, जिसमें जनसंघ भी शामिल था. जनता पार्टी के टूटने के बाद अटल बिहारी बाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी ने 1980 में नयी राजनितिक पार्टी का गठन किया नाम रखा भारतीय जनता पार्टी. जानकार बताते हैं कि बीजेपी ने खुद को आरएसएस से दूर करने की कोशिश की, इसके लिए संस्थापकों ने तीन काम किए. एकात्म मानववाद की बजाय गांधी के समाजवाद को पार्टी का दर्शन बनाया गया.

आरएसएस के साथ होने वाली समन्वय समिति की बैठकों में हिस्सा लेना बंद कर दिया गया. पार्टी के लिए आरएसएस प्रचारकों से मदद लेना बंद कर दिया गया. लेकिन संस्थापकों के इस निर्णय का विरोध पार्टी के अन्दर ही होने लगा. संस्थापक सदस्यों में से एक राजमाता विजया राजे सिंधिया ने कहा कि पार्टी के कुछ नेताओं ने प्रगतिशील दिखने के लिए गांधीवादी समाजवाद को अपनाया है, ऐसा करके बीजेपी कांग्रेस की प्रतिलिपि मात्र बनकर रह गई है.

इन सबकी वजह से संघ बीजेपी से काफी नाराज़ हुआ और 1980 के चुनाव में संघ ने कांग्रेस का समर्थन किया. इतना ही नहीं, बीजेपी से अपनी दुरी की भरपाई करने के लिए विश्व हिद्नु परिषद् को देश भर में सक्रीय किया. संघ ने तमिलनाडु में हिंदू मुन्नानी नामक एक नई पार्टी भी बनाई.

लाल कृष्ण आडवाणी ने अध्यक्ष बनने के बाद संघ के साथ फिर से शुरू की रिश्तों की शुरुआत

1986 में लाल कृष्ण आडवाणी बीजेपी के अध्यक्ष बने. उन्होंने गांधावादी समाजवाद की जगह एकात्म मानववाद को अपनाया. इसके साथ ही आरएसएस के साथ समन्वय बैठकों की शुरुआत भी की, जिसके माध्यम से संघ प्रचारकों को पार्टी में प्रवेश देना शुरू किया गया. ये वाही समय था, जब आज के बीजेपी के ब्रांड मोदी ने संघ से बीजेपी में प्रवेश किया था.

संघ का बीजेपी सरकार में दखल

जब भी कोई ये दावा करता है कि बीजेपी की सरकार का रिमोट कंट्रोल संघ के हाथ में होता है तो बेशक बीजेपी और आरएसएस इसका खंडन करते हैं, लेकिन ऐसी कई घटनाएं हैं, जो ये बताती हैं कि संघ का प्रभाव बीजेपी सरकार में किस हद तक रहा है.

1998 में जब अटल बिहारी बाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने तो संघ का उनकी सरकार में काफी दखल दिखा. द ब्रदरहुड इन सैफरन के लेखक वाल्टर एंडरसन के अनुसार पहली बार आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन ने आधी रात को वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री पद से जसवंत सिंह को इस्तीफा देने को कहा और उनकी जगह यशवंत सिन्हा को नया वित्त मंत्री बनवाया गया.

इस बीच वर्ष 2000 में तत्कालीन संघ प्रमुख केएस सुदर्शन ने प्रधानमंत्री बाजपेयी के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस की. उन्होंने आरोप लगाया कि ब्रजेश मिश्रा, एनके सिंह जैसे लोग, बाजपेयी सरकार में विदेशी कंपनी और नेताओं के लिए इंटरनेशनल लॉबी की तरह काम करते हैं. सुदर्शन बाजपेयी के निजी सलाहकार ब्रजेश मिश्र को नापसंद करते थे. इतना ही नहीं आरएसएस से जुड़ा संगठन भारतीय मजदूर संघ भी अटल सरकार के खिलाफ देश भर में प्रदर्शन करने लगा. एक एनी किताब द न्यू बीजेपी में दावा किया गया कि साल 2004 के चुनाव में आरएसएस कार्यकर्ताओं ने बीजेपी मुंह मोड़ लिया. कहीं न कहीं ये भी एक कारण रहा कि इंडिया शिनिंग के नारे के बावजूद बीजेपी को सत्ता से बहार होना पड़ा.

20 साल बाद फिर से बीजेपी और आरएसएस के बीच दिख रहा है मनमुटाव

2024 के आम चुनावों में जो हुआ, वो 20 साल पहले 2004 की याद दिलाता है. ऐसे ही आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने चुनाव में बीजेपी से मुह मोड़ लिया था. राजनितिक विशेषज्ञों का मानना है कि ये एक दम से नहीं हुआ. 2019 लोकसभा चुनाव के बाद से ही बीजेपी और संघ के बीच टकराव बढ़ने शुरू हो गए थे. आरएसएस कार्यकर्ता और लेखक रतन शारदा संघ के मुखपत्र 'ऑर्गेनाइजर' में लिखते हैं कि जो लोग ये कहते हैं कि आरएसएस ने चुनाव में बीजेपी के लिए काम नहीं किया तो मैं उनसे कहना चाहता हूं कि संघ बीजेपी की फील्ड फोर्स नहीं है. बीजेपी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है, जिसके पास अपने कार्यकर्ता हैं.' शारदा का ये लेख कहीं न कहीं बीजेपी पर कटाक्ष है.

राजनितिक जानकारों की माने तो 2019 की मोदी 2.0 सरकार के गठन के बाद से ई मुद्दों पर बीजेपी और आरएसएस के बीच टकराव ज्यादा बढ़ा. चाहे वो किसान आन्दोलन हो या फिर राम मंदिर, देश में बढती बेरोज़गारी हो या फिर दल बदलुओं को बीजेपी में प्रवेश देना. इन सब विषयों पर अलग अलग बिन्दुओं पर आरएसएस और बीजेपी के बीच मतभेद हुए और बात यहाँ तक पहुँच गयी, जो आज के हालत दर्शा रहे हैं.

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