
त्रिभाषा नीति: शिक्षा सुधार या भाषाई थोपने की रणनीति?
केंद्र सरकार द्वारा नयी शिक्षा निति के तहत त्रिभाषा फार्मूला लागू करने की बात पर विवाद हो गया है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने प्रश्न किया है कि आखिर हिंदी क्यों थोपी जा रही है?
Three Language Formula Controversy : देश में एक बार फिर से हिंदी भाषा को लेकर विवाद शुरू हो गया है। हमने इस विवाद को लेकर दो प्रोफेसर से बात कर उनसे ये समझना चाहा कि आखिर विवाद के पीछे कि क्या प्रमुख वजह हो सकती है और हिंदी की प्रासंगिकता क्या है? हमने इस विषय पर भाषा से जुड़े दो प्रोफेसर से बात की। दोनों प्रोफेसर ने भाषा पर अपनी क्या राय दी, उस पर नज़र डालते हैं और फिर ये जानते हैं कि आखिर क्या विवाद चल रहा है।
बृहत्तर भारत और क्षेत्र अध्ययन आईजीएनसीए के प्रमुख प्रोफेसर धरमचंद चौबे का कहना है कि दक्षिण भारत में हिंदी भाषा का विरोध कई कारणों की वजह से है, इसके पीछे कोई एक कारण नहीं हैं। तमिलनाडु में ये राजनीती का एक बड़ा मुद्दा है। वहां अंग्रेजी तो स्वीकार है, लेकिन हिंदी स्वीकार नहीं हैं। तमिलनाडु की बात करें तो वहां पर 1960 से ही हिंदी का विरोध होता आया है। इसका एक कारण ये भी हो सकता है कि वहां पर हिंदी के प्रभुत्व से डर प्रतीत होता है। साथ ही कोलोनियल प्रभाव भी इसके पीछे एक कारण रह सकता है, यही वजह है कि अंग्रेजी की स्वीकारियता है, लेकिन अपने ही देश की भाषा होने के बाद भी हिंदी का विरोध है।
यहाँ केंद्र सरकारों की भी लापरवाही दिखती है, जो देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में हमारे ही देश के अलग अलग राज्यों में बोले जाने वाली विभिन्न भाषाओँ को महत्व नहीं दिया गया।
इसके अलावा दक्षिण भारत में द्रविड़ और आर्य के बीच का अंतर भी काफी प्रबल है। हिंदी भाषा को आर्यन से जोड़ा जाता है। दक्षिण भारत में ये मान्यता प्रबल है कि आर्यन बाहर से आये और द्रविड़ों को सिंधु घाटी से दक्षिण भारत की ओर रुख करना पड़ा। कुछ समय पहले कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने संसद में द्रविड़ और आर्यन का ज़िक्र किया था।
हजारों वर्ष का इतिहास है दक्षिण भारतीय भाषाओँ का
प्रोफेसर चौबे का कहना है कि इस विवाद को समाप्त होने में अभी समय लगेगा। दक्षिण भारत के लोगों का कहना है कि उत्तरी भारत के लोग हमारी भाषा जैसे तमिल, मलयालम, कन्नड़ आदि सीखे तब हम हिंदी को भी अपने क्षेत्र में सिखायेंगे।
दक्षिण भारतीय भाषाओं का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। जब तक सबकी भाषा का सम्मान नहीं करेंगे तब तक ये विरोध शांत नहीं होगा।
बात बराबरी की होनी चाहिए
भारत संस्कृतियों का हार (गारलैंड) है, जब तक सभी को समान रूप से महत्व नहीं मिलेगा तब तक ऐसा होता रहेगा।
वहीँ जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र के प्रोफेसर देवशंकर नवीन का कहना है कि सबसे बड़ा संकट ये है कि हम भाषा को सिर्फ संवाद का माध्यम समझते आ रहे हैं. लेकिन भाषा में ये बात है नहीं. असल में भाषा में संस्कृति का वास होता है।
राष्ट्रिय पहचान होती है भाषा
भाषा हमारी पहचान है, राष्ट्रिय पहचान है। घर में रह कर भाषा के बारे में देखेंगे तो ऐसा लगता है कि सिर्फ एक भाषा बोली जाती है लेकिन अगर आप अलग अलग घर जाओगे तो भाषा में भिन्नता महसूस होगी. हमारा देश बहुत बड़ा है, भिन्नता है, इसलिए एक भाषा ऐसी होनी चाहिए, जिसको राष्ट्रिय पहचान की तरह समझा जाए।
आज कल एसएमएस की भाषा जितनी बिगड़ी हो गयी है और इस पर बहुराष्ट्रिय कोम्पियों का बाज़ारवाद हो गया. इसकी वजह से संस्कृति भी विकृत हो रही है। जिनकी ज़िम्मेदारी थी कि इसको संभाले लेकिन वो इसे नहीं संभाल रहे हैं।
अब जब ये सवाल उठाते हैं कि हिंदी थोप रहे हैं या हिंदी रोज़गार का साधन बने. तो ये गलत है क्योंकि भाषा कभी रोज़गार का साधन नहीं हो सकती, भाषा मनुष्य की पहचान होती है। हमारे देश के लोग कैसे समझेंगे कि हमारे देश में 29 राज्य हैं. इतना बड़ा देश है और भिन्नता है। हमारा देश कई राज्यों से एक राष्ट्र बना है। हम विभिन्नता में एकता की बात करते हैं तो उसमें केवल भाषा के माध्यम से कर सकते हैं।
लेकिन दुर्योग से कई कारणों जैसे जाति, धर्म, दल आदि विसंगतियों को दूर करने के लिए भाषा को ठीक से समझना बहुत जरुरी है।
1857 की क्रांति के बाद अस्तित्व में आई हिंदी
आपको याद होना चाहिए कि जब 1857 में जब हम हार गए थे तो भारतेंदु हरीश चन्द्र ने नारा दिया था कि ‘निज भाषा उन्नतिय है, सब उन्नति को मूल’. मतलब अपनी भाषा की उन्नति चाहते हैं तो अपनी भाषा की उन्नति करें तो सारी उन्नति हो जाएगी। लेकिन सवाल ये है कि क्या एक तमिल भाषी या कन्नड़ भाषी या बंगला भाषी से हिंदी भाषी संवाद कर सकते हैं? तो आपसी संवाद के लिए एक भाषा की आवश्यकता होगी और वो भाषा भारत में हिंदी ही हो सकती है।
अपने देश की भाषाओँ के अज्ञान पर शर्म नहीं आती लेकिन अंग्रेजी न जानने पर शर्म महसूस होती है
आप सोचिए कि हमें अंग्रेजी नहीं आने पर शर्म महसूस होती है लेकिन वहीँ अगर हमें तमिल नहीं आती, तेलुगु नहीं आती, मलयालम, बांग्ला, पंजाबी या हमारे ही देश की अन्य भाषाए नहीं आती, जो संविधान में अनुसूचित भाषाए हैं, तो हम शर्म महसूस नहीं करते। जब तक हम अपने देश की संस्कृति और भाषाओँ के प्रति सावधान नहीं होंगे तब तक ये काम नहीं हो सकता।
एक तरफ फिल्मजगत भी भाषा को बिगाड़ रहा हैं या फिर हमारे धरोहर के सम्मान को कुचलने की कोशिश कर रहे हैं।
मेरी राय में जब तक आप अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति सम्मान भाव नहीं रखेंगे तब तक आप एक सबल राष्ट्र के सबल नागरिक हो सकते।
भारत की विभिन्न भाषाओँ को एक सूत्र में बाँधने के लिए या कार्यालयों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा हिंदी उचित भाषा है। जिस हिंदी और हिन्दुस्तानी की बुलंदी के लिए महात्मा गाँधी ने आवाज दी और बाद में बहुत सारे विद्वानों ने दी, वो भाषा क्योंकि ये भाषा की संरचना इस तरह से तैयार की गयी। भारतेंदु के समय में खड़ी बोली हिंदी बनायीं गयी है।
जो विरोध हिंदी के लिए हो रहा है क्या वो अंग्रेजी के लिए हो रहा है। जो विरोध तमिलनाडु में हो रहा है और उदहारण के लिए अगर हम तमिल को राजकीय भाषा बनाते हैं तो क्या पंजाब में इसका स्वागत होगा। वहां तमिल का विरोध होने लगेगा. इसलिए ही भारतेंदु के समय में खड़ी हिंदी बनायीं गयी।
त्रिभाषा विवाद: तमिलनाडु बनाम केंद्र सरकार
भारत में भाषाई विविधता हमेशा से एक संवेदनशील मुद्दा रही है, और हाल ही में केंद्र सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के तहत लागू किए जा रहे त्रिभाषा फॉर्मूले ने तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच टकराव को और बढ़ा दिया है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन और केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के बीच इस मसले पर तीखी बहस जारी है। पहले समझते हैं कि क्या है ये मामला?
क्या है त्रिभाषा फॉर्मूला?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के तहत छात्रों को तीन भाषाएँ सीखनी अनिवार्य होंगी। इनमें से एक हिंदी हो सकती है, लेकिन इसकी अनिवार्यता नहीं होगी। राज्यों को यह तय करने की छूट दी गई है कि वे किन तीन भाषाओं को अपने पाठ्यक्रम में शामिल करेंगे। इस नीति का उद्देश्य मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा और एक अन्य भाषा के समावेश को सुनिश्चित करना है।
प्राथमिक शिक्षा (कक्षा 1 से 5) के दौरान शिक्षण मातृभाषा या स्थानीय भाषा में होगा, जबकि माध्यमिक कक्षाओं (कक्षा 6 से 10) में तीन भाषाओं की पढ़ाई अनिवार्य होगी। हिंदी भाषी राज्यों में दूसरी भाषा के रूप में अन्य भारतीय भाषाओं को शामिल किया जा सकता है, जबकि गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी या कोई अन्य भारतीय भाषा एक विकल्प हो सकती है।
तमिलनाडु सरकार का सख्त विरोध
तमिलनाडु दशकों से द्विभाषा नीति (2-लैंग्वेज पॉलिसी) का पालन कर रहा है, जिसमें छात्र केवल तमिल और अंग्रेजी पढ़ते हैं। राज्य सरकार का कहना है कि नई शिक्षा नीति जबरन हिंदी थोपने का प्रयास कर रही है, जिसे तमिलनाडु किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं करेगा। डीएमके सरकार ने स्पष्ट किया है कि वे अपनी द्विभाषा नीति से पीछे नहीं हटेंगे और किसी भी भाषा को थोपने की अनुमति नहीं देंगे।
केंद्र सरकार का रुख
केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने तमिलनाडु सरकार से आग्रह किया है कि वे भाषा के मुद्दे को राजनीति से ऊपर उठकर देखें। उनका तर्क है कि विदेशी भाषाओं की अत्यधिक निर्भरता भारतीय भाषाओं के विकास में बाधा डाल सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि NEP छात्रों को भाषाई स्वतंत्रता देती है और उन्हें अपनी पसंद की भाषा चुनने का अवसर प्रदान करती है।
दक्षिण भारत में हिंदी भाषियों की स्थिति
जहां तक दक्षिण भारत में हिंदी भाषियों की संख्या का सवाल है, तो यहाँ हिंदी बोलने वालों की संख्या बेहद कम है। 2011 की जनगणना के अनुसार:
- तमिलनाडु में हिंदी बोलने वालों की संख्या केवल 0.54% थी।
- केरल में हिंदी भाषियों की संख्या 0.15% थी।
- कर्नाटक में 3.29% लोग हिंदी बोलते थे।
- आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में यह आंकड़ा 3.6% था।
- पुडुचेरी में यह 0.51% था।
पूर्वोत्तर भारत में हिंदी का प्रभाव
दक्षिण भारत की तरह पूर्वोत्तर राज्यों में भी हिंदी भाषियों की संख्या कम है। 2011 की जनगणना के अनुसार:
- सिक्किम में 7.9% लोग हिंदी बोलते थे।
- अरुणाचल प्रदेश में 7.09% लोग हिंदी भाषी थे।
- नगालैंड में 3.18%, त्रिपुरा में 2.11%, मिजोरम में 0.97%, और मणिपुर में 1.11% लोग हिंदी बोलते थे।
त्रिभाषा नीति को लेकर केंद्र और तमिलनाडु सरकार के बीच यह टकराव केवल भाषा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह क्षेत्रीय अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान का भी मुद्दा बन चुका है। तमिलनाडु सरकार हिंदी को अनिवार्य करने का विरोध कर रही है, जबकि केंद्र सरकार इसे भाषाई समावेशन और शिक्षा के नए आयाम के रूप में देख रही है।