
क्यों विशेषज्ञ सरकार को धरोहर संरक्षण में निजी क्षेत्र की भूमिका को लेकर सावधान कर रहे हैं
संरक्षण विशेषज्ञों को डर है कि जब सरकार धरोहर संरक्षण में निजी भागीदारी पर विचार कर रही है, तो कहीं सौंदर्य और ब्रांडिंग की होड़ असलियत और प्रामाणिकता पर भारी न पड़ जाए।
इतिहासकारों और संरक्षणवादियों ने इस खबर पर चिंता जताई है कि सरकार ऐसा नया ढांचा तैयार करने की दिशा में सोच रही है, जिसके तहत देश के संरक्षित स्मारकों के संरक्षण का काम निजी कंपनियों को सौंपा जा सके।
द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) निगरानी की भूमिका में रहेगा और विस्तृत परियोजना रिपोर्टों की स्वीकृति देगा, जबकि निजी एजेंसियां वास्तविक कार्यान्वयन करेंगी।
लंबे समय से सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) की बात चल रही है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि अगर ऐसा हुआ तो इससे इतिहास का विकृतिकरण, धरोहर का बाजारीकरण और राज्य की जिम्मेदारी का कमजोर होना तय है।
संरक्षण में कॉर्पोरेट भूमिका
1861 में स्थापित ASI के पास अब तक स्मारक संरक्षण का एकाधिकार रहा है। 1996 में स्थापित नेशनल कल्चर फंड (NCF) के जरिये दान राशि आती थी, लेकिन काम ASI ही करता था। अब इस नए प्रस्ताव के तहत कंपनियों को संरक्षण कार्य के स्वरूप पर कहीं ज्यादा नियंत्रण मिलेगा, हालांकि सरकार का कहना है कि अंतिम अधिकार ASI के पास ही रहेगा।
आलोचकों की आशंका
मौखिक इतिहासकार सुहैल हाशमी कहते हैं, “जो कुछ आगे होने वाला है, उसकी झलक हमें पहले से CSR ढांचे में दिख चुकी है।” कंपनी अधिनियम 2013 के तहत CSR (Corporate Social Responsibility) की व्यवस्था की गई थी, जिसमें कंपनियों को अपने शुद्ध लाभ का कम से कम 2% सामाजिक विकास पर खर्च करना अनिवार्य है — और *धरोहर संरक्षण* भी इसमें शामिल है।
लाल किला ‘गोद लेने’ का मामला
2018 में दिल्ली का लाल किला ‘Adopt a Heritage’ योजना के तहत सीमेंट कंपनी डालमिया भारत को “गोद” दिया गया। कंपनी ने 25 करोड़ रुपये खर्च करने का वादा किया — रोशनी, पथ, शौचालय, पीने के पानी और लैंडस्केपिंग के लिए।
इसके बदले उसे साइनबोर्ड और प्रचार सामग्री पर ब्रांडिंग अधिकार दिए गए।
हाशमी ने The Federal से कहा, “हमने देखा कि जिन लोगों को धरोहर संरक्षण की समझ नहीं है, वे स्मारकों के साथ क्या कर सकते हैं। हाल ही में लाल किले में एक कार्यक्रम हुआ जिसमें सारा भोजन शाकाहारी था — क्योंकि डालमियाजी शाकाहारी हैं!
नयी साउंड-एंड-लाइट शो में मुगलों की भूमिका घटा दी गई है और मराठों की भूमिका बढ़ा दी गई है।
यह भी सुना गया था कि डालमिया समूह हुमायूँ के मकबरे के दक्षिणी द्वार पर एक फाइन डाइनिंग रेस्टोरेंट खोलना चाहता था।
CSR का मतलब ये नहीं कि स्मारकों से पैसा कमाया जाए। किसी मकबरे में रेस्तरां खोलना तो सामान्य शिष्टाचार के भी खिलाफ है।”
हाशमी ने कहा, “जब ऐसे लोग जिन्हें इतिहास की जानकारी नहीं है, या कंपनियां जो सरकार को खुश करना चाहती हैं, उन्हें इन स्मारकों की देखरेख की जिम्मेदारी दी जाएगी, तो इनका इतिहास क्या बचेगा? पहले गंभीर इतिहासकारों की एक समिति बननी चाहिए जो तय करे कि मानदंड क्या होंगे।”
संरक्षण की नैतिकता और सिद्धांत
भारत में जो कुछ निजी या परोपकारी संगठॆन धरोहर संरक्षण में सक्रिय रहे हैं, उनमें प्रमुख है आगा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर (AKTC)। उनके अनुसार उन्होंने अब तक 350 से अधिक ऐतिहासिक स्थलों का संरक्षण या पुनरुद्धार किया है।
AKTC के सीईओ रतिश नंदा ने The Federal से कहा, “हम पिछले 25 वर्षों से ASI के साथ संरक्षित स्मारकों पर काम कर रहे हैं। मैं और कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि मैं इस रिपोर्ट का आशय नहीं जानता।”
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहासकार और इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के सचिव प्रो. अली नदीन रिज़वी ने कहा कि चिंता सिर्फ राजनीति की नहीं बल्कि संरक्षण की तकनीक को लेकर भी है।
उन्होंने याद दिलाया कि संरक्षण की परंपराएं सर जॉन मार्शल के समय से हैं — जिन्होंने 1904 के *Ancient Monuments Preservation Act* में यह सिद्धांत तय किया था कि “क्षय को रोको, लेकिन नये सिरे से निर्माण मत करो।”
वास्तविकता और प्रामाणिकता की मांग
इस वर्ष के बजट में ASI को ₹1,278.49 करोड़ आवंटित हुए थे।
रिज़वी कहते हैं, “ASI कहता है कि फंड की कमी है, लेकिन सरकार का यह कदम कैंसर का इलाज करने के बजाय खुद शरीर के अंग काटने जैसा है।
डालमियाओं के लाल किले का उदाहरण देखिए, स्थिति उतनी ही खराब है जितनी पहले थी।
संग्रहालय में प्रवेश के लिए भारी शुल्क देना पड़ता है, लेकिन कोई भी संग्रहालय मुगल काल पर केंद्रित नहीं है। मोर सिंहासन वाले उस सुंदर संगमरमर को आप अब देख भी नहीं सकते, क्योंकि उसे ढँकने वाला शीशा इतना गंदा है।"
वे कहते हैं, “इन स्मारकों को निजी हाथों में देना वास्तव में इन्हें नष्ट करने जैसा है। जिन संस्थाओं को संरक्षण का ज्ञान नहीं है, वे उस स्थल की पवित्रता कैसे बनाए रख सकती हैं?”
विशेषज्ञों की राय: जवाबदेही और योग्यता जरूरी
इतिहासकार और संरक्षण विशेषज्ञ स्वप्ना लिडल ने कहा, “सबसे जरूरी बात यह है कि काम करने वाले लोगों की योग्यता और जवाबदेही क्या है। क्या वे प्रशिक्षित हैं, और क्या उनके काम की जवाबदेही तय होगी? मेरे लिए यही सबसे महत्वपूर्ण है।”
उनके अनुसार खतरा तब पैदा होता है जब निजी कंपनियों को यह तय करने दिया जाए कि कौन-सा स्मारक सुधारा जाए और कैसे।
“किस स्मारक को संरक्षण की जरूरत है, इसका निर्णय निजी कंपनियों की पसंद या प्रचार-लाभ की इच्छा पर नहीं होना चाहिए।”
सुंदरता’ ही धरोहर नहीं है
रिज़वी कहते हैं, “सार्वजनिक-निजी भागीदारी का विचार बुरा नहीं है, लेकिन इसका लागू होना तय करेगा कि नतीजे क्या होंगे। उदाहरण के तौर पर हुमायूँ के मकबरे में AKTC ने जो किया — वे उसे ‘पुनर्निर्मित’ कर बैठे। अब वह असल में वही नहीं रहा जो था, बल्कि वैसा है जैसा उन्हें ‘मूल’ लगा। उसका बगीचा अंग्रेज़ी ढंग का बना दिया गया, जबकि मुगल बागान कभी ऐसे नहीं थे।
धरोहर सिर्फ सुंदरता नहीं होती — कभी-कभी कुरूपता भी हमारी विरासत होती है**, और वही शायद आज नष्ट हो रही है।”