
हेल्थ संग पॉकेट पर भी पड़ रही है हवा में घुले विष मार, ये है कहानी
दुकानों और बाजारों में घटते ग्राहकों और उपभोग के कारण सालाना $22 बिलियन की क्षति हुई। अकेले दिल्ली को ही हर साल वायु प्रदूषण से अपने GDP का 6% तक गंवाना पड़ता है...
भारत में वायु प्रदूषण अब केवल एक पर्यावरणीय समस्या नहीं रह गया है, यह एक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपदा और आर्थिक बाधा बन चुका है। हर साल 1.6 मिलियन से ज्यादा मौतें और अरबों डॉलर की आर्थिक क्षति इसकी भयावहता को दर्शाती है। लेकिन इसके बावजूद नीति-निर्माण अभी भी बिखरा हुआ और बेहद कमजोर बना हुआ है।
साल 2019 में, वायु प्रदूषण से भारत में 1.67 मिलियन यानी 17.8% मौतें हुईं, जो दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। लेकिन यह समस्या सिर्फ फेफड़ों तक सीमित नहीं है। वायु प्रदूषण गर्भवती महिलाओं में समय से पहले प्रसव या कम वजन वाले बच्चों को जन्म देने जैसी समस्याएं पैदा करता है और बच्चों के मानसिक विकास को भी प्रभावित करता है।
वायु प्रदूषण न सिर्फ जानें लेता है बल्कि अर्थव्यवस्था को भी गहरा नुकसान पहुंचाता है। साल 2019 में, भारत के स्वास्थ्य ढांचे पर इसका बोझ लगभग $12 बिलियन था। इसके अलावा The Lancet Planetary Health की एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रदूषण-जनित बीमारियों और असमय मौतों के कारण देश को $36.8 बिलियन का उत्पादन नुकसान हुआ, जो GDP का लगभग 1.36% बनता है। ग्लोबल कंसल्टेंसी Dalberg के अनुसार, भारतीय व्यवसायों को यह नुकसान $95 बिलियन तक पहुंचता है।
यहां तक कि उपभोक्ता अर्थव्यवस्था भी इससे नहीं बची है। दुकानों और बाजारों में घटते ग्राहकों और उपभोग के कारण सालाना $22 बिलियन की क्षति हुई। अकेले दिल्ली को ही हर साल वायु प्रदूषण से अपने GDP का 6% तक गंवाना पड़ता है।
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, यदि भारत ने पिछले 25 वर्षों में अपने वायु प्रदूषण को आधा कर लिया होता, तो 2023 के अंत तक उसकी GDP 4.5% अधिक होती।
नीति की विफलताएं और सीमाएं
हालांकि घरेलू प्रदूषण के खिलाफ प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (PMUY) जैसे प्रयासों ने रसोई के धुएं से होने वाली मौतों को घटाया है। लेकिन बाहरी वायु प्रदूषण ने कहीं ज्यादा तेजी से नुकसान किया है, खासकर वाहनों के धुएं और कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के कारण।
नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम (NCAP), जिसे 2019 में लॉन्च किया गया। लेकिन अब तक की कार्रवाई मुख्य रूप से PM10 (बड़े कण) को केंद्र में रखकर की जा रही है, जबकि PM2.5 जो ज्यादा घातक है, उस पर ध्यान कम है।
अधिकतर प्रयास सड़क की धूल को नियंत्रित करने तक सीमित हैं, जैसे रोड स्वीपिंग और वॉटर स्प्रिंकलिंग, जो असली समस्या का समाधान नहीं हैं। इसके अलावा भारत के सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (CPCB) के पास महज 500-600 कर्मचारी हैं जबकि अमेरिका के EPA में 17,000 लोग काम करते हैं। भारत में महज 550 रियल-टाइम और 930 मैनुअल एयर क्वालिटी मॉनिटरिंग स्टेशन हैं जबकि लक्ष्य 1,500 स्टेशनों का है।
समाधान और बदलाव की जरूरत
विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत को संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता है। क्योंकि वायु प्रदूषण से निपटना उससे निपटने में चूक करने की तुलना में बहुत सस्ता है। शुद्ध हवा केवल स्वास्थ्य के लिए नहीं, बल्कि आर्थिक स्थिरता के लिए भी अनिवार्य है। Devic Earth जैसी स्टार्टअप कंपनियां Pure Skies तकनीक जैसे इनोवेशन के साथ आगे आ रही हैं, जो रेडियो वेव्स के जरिए हवा की गुणवत्ता को 50% तक बेहतर कर सकती है।
इसके साथ-साथ, चीन जैसे उदाहरणों से भारत को सीखना चाहिए। जहां बीजिंग ने 2013 से 2022 के बीच वायु गुणवत्ता में 40% सुधार किया और औसत जीवन प्रत्याशा दो वर्ष बढ़ गई। अमेरिका ने 1970 के दशक से अब तक 70% प्रदूषण घटाया है, जबकि GDP में 250% की वृद्धि की।
भारत का बहुस्तरीय संकट
भारत की समस्या बाकी देशों से अलग है क्योंकि यहां वायु प्रदूषण के कई स्रोत हैं, वाहन, उद्योग, ईंधन जलाना, सड़क की धूल और कृषि अपशिष्ट। ऐसे में नीति-निर्माण को समग्र और बहुस्तरीय होना पड़ेगा।
सिर्फ टुकड़ों में समाधान लाने से बात नहीं बनेगी। हमें नीति को इस तरह विकसित करना होगा कि सभी स्रोतों पर एक साथ ध्यान दिया जा सके। यदि भारत को अपनी संभावनाओं को जीवंत बनाना है तो उसे अपनी हवा को साफ करना ही होगा। वरना यह ‘अदृश्य हत्यारा’ देश के भविष्य को भी दमघोंटू बना देगा।
डिसक्लेमर- यह आर्टिकल जागरूकता के उद्देश्य से लिखा गया है। किसी भी सलाह को अपनाने से पहले डॉक्टर से परामर्श करें।