कैसे विजय माल्या ने एयर डेक्कन को मारने की कोशिश में किंगफिशर एयरलाइंस को डुबो दिया
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कैसे विजय माल्या ने एयर डेक्कन को 'मारने' की कोशिश में किंगफिशर एयरलाइंस को डुबो दिया

2014 में आई अपनी किताब ‘द विजय माल्या स्टोरी’ के अंश में के. गिरिप्रकाश ने बताया है कि कैसे प्रतिस्पर्धा को कुचलने के लिए विजय माल्या ने अपनी एयरलाइन को आत्म-विनाश के रास्ते पर डाल दिया।


The Vijay Mallya Story : एयर डेक्कन को 'खत्म' करने की कोशिश में, विजय माल्या अनजाने में किंगफिशर एयरलाइंस को भी खत्म करने की राह पर चल पड़े थे।

जब माल्या एयर डेक्कन और कैप्टन गोपीनाथ के सपनों को तहस-नहस कर रहे थे, उसी समय किंगफिशर एयरलाइंस के भीतर भी गंभीर उथल-पुथल चल रही थी। प्रारंभ में एयरलाइन को संचालित करने के लिए जो धन जुटाया गया था, वह यूबी ग्रुप की कई कंपनियों से आया था। समूह ने अपने अतिरिक्त कर्मचारियों को एयरलाइन में स्थानांतरित कर दिया और जेट एयरवेज तथा सहारा जैसी प्रमुख एयरलाइनों के वरिष्ठ अधिकारियों को भर्ती किया।

2006 तक किंगफिशर की पूरी टीम तैयार थी और एक वर्ष बाद SAP AG का महँगा एंटरप्राइज़ रिसोर्स प्लानिंग सॉफ्टवेयर स्टॉक की निगरानी हेतु सिस्टम में लगाया गया। पूरी स्टाफिंग, सिस्टम की व्यवस्था और देश के सबसे बड़े बेड़े के साथ, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह एयरलाइन जल्द ही भारत की सबसे बेहतरीन एयरलाइन बन जाएगी।

लेकिन एक प्रभावी CEO की कमी थी

दुर्भाग्यवश, ऐसा नहीं हुआ। चीजें मौजूद थीं, पर असली चुनौती थी — माल्या के दृष्टिकोण का क्रियान्वयन। एक नेता के रूप में माल्या ने बोर्ड और टॉप मैनेजमेंट को सब कुछ प्रदान किया — मेहनत की, बड़ी राशि खर्च की, सर्वश्रेष्ठ लोग नियुक्त किए और प्रबंधन को असीमित संसाधन दिए। लेकिन एक ऐसा अनुभवी व्यक्ति, जो उद्योग की समझ रखता हो और संचालन को प्रतिदिन सुचारु रख सके — वह नहीं था। 2010 के अंत तक किंगफिशर के पास कोई CEO नहीं था।

आंतरिक सूत्रों के अनुसार, कंपनी में हर वाइस प्रेसिडेंट ऐसा व्यवहार करने लगा मानो वही एयरलाइन चला रहा हो। माल्या खुद इतने व्यस्त रहते कि एयरलाइन के संचालन के लिए समय नहीं निकाल पाते। वह एयर होस्टेस की भर्ती में व्यक्तिगत रूप से रुचि लेते थे और यात्रियों से जुड़ाव रखते थे, पर यह एक एयरलाइन चलाने के लिए पर्याप्त नहीं था। इसे एक पूर्णकालिक, समर्पित CEO की आवश्यकता थी।

शुरुआती दौर की चकाचौंध और बेतुके फैसले

शुरू में माल्या ने कर्मचारियों के लिए फाइव स्टार होटलों में पार्टियाँ दीं, उनके परिवारों से मिले और माहौल को खुशनुमा बनाया। उन्होंने अन्य एयरलाइनों से दुगने वेतन पर लोग तोड़ लिए, लेकिन इन नियुक्तियों के पीछे गंभीर सोच नहीं थी। ऐसा प्रतीत होता था कि केवल अन्य एयरलाइनों से लोगों को लाना ही प्राथमिकता थी, भले ही वे योग्य हों या नहीं। उस समय यह मज़ाक चलता था कि जेट एयरवेज जानबूझकर ऐसे अधिकारियों को छोड़ देती थी जिन्हें वह रखना नहीं चाहती थी और फिर अफवाह फैलाती कि किंगफिशर ने उन्हें "पार कर लिया" है।

गलत सलाह और बैंकों से लिया गया कर्ज

भारी वेतन और आलीशान कार्यालयों के खर्च को पूरा करने के लिए माल्या ने कई बैंकों से कर्ज लेना शुरू किया, जिनमें सरकारी स्वामित्व वाला भारतीय स्टेट बैंक भी शामिल था। कई बैंकों ने बिना पर्याप्त जमानत के कर्ज दे दिया, मानो उन्होंने माल्या की लोकप्रियता के आधार पर फैसला लिया हो।

जब एयरलाइन कर्ज लौटाने में चूकने लगी, बैंकों के पास गिरवी रखने को कुछ खास नहीं था। उन्होंने कर्ज को शेयरों में बदल दिया, लेकिन जब किंगफिशर के शेयर गिरने लगे, तो वे केवल “कागज़ के टुकड़े” बन कर रह गए।

प्रारंभ में कर्ज छोटे-छोटे हिस्सों में मिला — कुछ सौ करोड़ रुपये हर छह महीने में — जिनके लिए यूबी ग्रुप की कंपनियाँ गारंटी देती थीं। बाद में यूनाइटेड स्पिरिट्स और यूबी होल्डिंग्स जैसी कंपनियों के शेयर गिरवी रखने शुरू हुए।

एविएशन उद्योग में लाभ की दर मात्र 3% के आसपास होती है — यह शराब के धंधे जितना लाभदायक नहीं था। इसलिए व्यय पर नियंत्रण अत्यंत आवश्यक था, लेकिन किंगफिशर में यह अनुपस्थित था।

कैप्टन गोपीनाथ खर्च के मामले में बेहद सतर्क थे — उन्होंने तो कभी बिक्री टीम को बस में सफर करने का निर्देश तक दे दिया था।

फिजूलखर्ची के अनेक उदाहरण

• यदि कोई यात्री लेट आता, तो उसे मना नहीं किया जाता, बल्कि उसके लिए दूसरी एयरलाइन की टिकट किंगफिशर स्टाफ स्वयं खरीदता।

• आखिरी समय में टिकट की कीमत ₹12,000 तक पहुंच सकती थी, जबकि एडवांस में ₹4,000 मिलती।

• माल्या ने कर्मचारियों को अन्य एयरलाइनों से 75% अधिक वेतन पर नियुक्त किया।

• डेक्कन एविएशन के अधिग्रहण के बाद उन्होंने एक भी कर्मचारी नहीं हटाया, जिससे स्टाफ की अधिकता हो गई और वेतन व्यय बहुत बढ़ गया।

• कभी-कभी देरी होने पर यात्रियों को फाइव स्टार होटलों में ले जाकर बीयर और स्नैक्स मुफ्त में परोसे जाते थे।

वित्त विभाग के एक कर्मचारी के अनुसार, "हमें समझ ही नहीं आता था कि पैसे का उपयोग सही तरीके से हो रहा है या नहीं।"

यात्रियों के लिए खरीदे गए अंतरराष्ट्रीय अख़बार और पत्रिकाएँ गोदामों में पड़ी रहती थीं, लेकिन भुगतान समय पर हो जाता था।

बाद में ये पुरानी पत्रिकाएँ और अख़बार कबाड़ी वालों को बेचने की अनुमति दी गई और इससे हर महीने कुछ लाख रुपये आने लगे।

अंतरराष्ट्रीय विस्तार और मूल्य युद्ध से दूरी

• पहली अंतरराष्ट्रीय उड़ान 3 सितंबर 2008 को बेंगलुरु से लंदन के लिए शुरू हुई।

• एयरलाइन को उम्मीद थी कि लंदनवासी दक्षिण भारत और श्रीलंका घूमने आएँगे और आईटी पेशेवर इसका उपयोग करेंगे।

• सेवा गुणवत्ता बेहतरीन मानी गई, लेकिन किंगफिशर ने मूल्य युद्ध में भाग नहीं लिया जबकि विदेशी एयरलाइनों ने किराया कम कर दिया था।

• किंगफिशर ने अपने बेहतर सेवाओं का हवाला दिया, लेकिन प्रतियोगियों के मुकाबले उसके पास ‘नकद भंडार’ नहीं था।

अंततः संचालन में कटौती और गिरावट की शुरुआत

• नए सेवा शुरू करने पर दो विकल्प होते हैं: या तो बैंक बैलेंस पर्याप्त हो या किराया बहुत सस्ता रखा जाए — किंगफिशर दोनों में असफल रही।

• छुट्टी पर जाने वाले यात्री अक्सर लागत-संवेदनशील होते हैं और ज्यादा किराया नहीं देते।

• घरेलू संचालन भी विफल हो रहा था, जबकि अंतरराष्ट्रीय विस्तार के लिए करोड़ों की जरूरत थी।

• 2008 के अंत तक संकट के संकेत मिलने लगे — अमेरिकी कंपनी GECAS ने डिफॉल्ट के कारण चार A320 विमान जब्त करने की कोशिश की।

• माल्या का प्रभाव इतना था कि DGCA केवल नोटिस तक ही सीमित रह गई।

• अंततः मामला कर्नाटक हाईकोर्ट पहुंचा, लेकिन किंगफिशर को 'अंतरिम राहत' मिल गई।

वित्तीय विश्लेषकों ने जब बैलेंस शीट को गहराई से देखना शुरू किया तो पाया गया कि डेक्कन एविएशन और किंगफिशर के संयुक्त नुकसान ₹2000 करोड़ से अधिक थे।

इस घाटे के कारण एयरलाइन को 32 नए विमानों की डिलीवरी 2012 तक टालनी पड़ी और 14 लीज पर लिए गए विमानों को वापस करने की योजना बनाई गई।

(यह अंश के. गिरिप्रकाश द्वारा लिखित पुस्तक "The Vijay Mallya Story" से साभार, प्रकाशक: पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया)


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