Saurabh Kumar Gupta

पत्रकार की हत्या: मौन के व्याकरण में लहूलुहान शब्द


पत्रकार की हत्या: मौन के व्याकरण में लहूलुहान शब्द
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शब्दों की उम्र गोली से लंबी होती है. वे मिटाए नहीं जाते, सिर्फ़ इतिहास के किसी और पन्ने पर उभर आते हैं.

एक पत्रकार की हत्या की ख़बर आई. कुछ पलों के लिए शोर उठा, सोशल मीडिया पर आक्रोश उभरा, न्यूज़ चैनलों पर संक्षिप्त चर्चा हुई और फिर जीवन की लय में सब कुछ वापस पहले जैसा हो गया. यह घटना एक नई नहीं थी, बल्कि उसी पुराने सिलसिले की अगली कड़ी थी, जिसमें सच लिखने की सज़ा अक्सर मृत्यु होती है.

सवाल उठता है कि वे कौन हैं, जो इन आवाजों को रोक रहे हैं? वे जो सत्ता के गलियारों में बैठे हैं, जिनके लिए हर असहज सवाल एक चुनौती है. वे जो अपराध की दुनिया में राज करते हैं और जानते हैं कि एक सच सामने आया तो पूरा खेल उजागर हो जाएगा. वे जो विचारधाराओं के ठेकेदार हैं और जिनकी राजनीति तभी तक फलती-फूलती है, जब तक विरोध के स्वर या तो झुके रहें या फिर हमेशा के लिए ख़ामोश कर दिए जाएं. साथ ही वे भी, जो सब कुछ देख-सुनकर भी चुप रहते हैं, जिन्हें लगता है कि ये सब सिर्फ़ पत्रकारों का मसला है, हमारा नहीं.

लेकिन सच यही है कि जब शब्द मरते हैं तो समाज की चेतना कमज़ोर होती है. जब पत्रकार डरने लगते हैं तो जनता का विवेक कुंद होने लगता है. पत्रकारों की हत्या महज़ व्यक्तिगत त्रासदी नहीं होती. यह इतिहास से उन आवाज़ों को मिटाने की कोशिश होती है, जो कभी समाज के अंधेरे कोनों में रोशनी डालने का साहस रखती थीं. हर हत्या के साथ न केवल एक व्यक्ति खो जाता है, बल्कि एक नज़र भी खो जाती है. क्या यह महज़ संयोग है कि पत्रकारों की हत्याओं की गुत्थियां कभी सुलझती नहीं? यह भी कि हर मामले में जांच तो होती है, लेकिन जवाबदेही किसी की तय नहीं होती? क्या यह भी संयोग है कि वे पत्रकार जो सत्ता और अपराध के गठजोड़ पर अंगुली उठाते हैं, वे ही सबसे पहले मारे जाते हैं या फिर यह एक संदेश है, एक अघोषित नियम कि यहां सच को उतनी ही जगह मिलेगी, जितनी सत्ता की मंज़ूरी होगी.

पत्रकारिता अब सिर्फ़ सूचना देने का माध्यम नहीं, बल्कि एक परीक्षा बन गई है, साहस बनाम चुप्पी की परीक्षा. कौन लिख सकता है? कितनी दूर तक लिख सकता है? कब तक लिख सकता है? किस बिंदु पर उसे लिखना बंद कर देना चाहिए? इन प्रश्नों के उत्तर अब अख़बारों के दफ़्तरों में नहीं, बल्कि शायद बंदूक़धारियों के हाथ में हैं.

यह महज़ एक हत्या नहीं, बल्कि एक संदेश होता है. एक चेतावनी कि जो लिखा जाएगा, वह मिटा दिया जाएगा. जो बोला जाएगा, वह दबा दिया जाएगा और जो सत्य की राह पर चलेगा, उसके लिए रास्ते की अंतिम मंज़िल तय है. यह प्रणाली अब व्यवस्थित हो चुकी है. पहले छोटे-छोटे संकेत मिलते हैं—धमकियां, मुक़दमे, चरित्रहनन. फिर, जब ये तरीके असफल हो जाते हैं, तब गोलियां चलती हैं. लोकतंत्र के लिए यह सबसे कठिन प्रश्न है- क्या एक जीवंत समाज में सच की उम्र इतनी छोटी हो सकती है? हर हत्या के बाद यही प्रश्न उठता है- क्या हम पत्रकारों की हत्या को सिर्फ़ संख्याओं तक सीमित कर देंगे? क्या हमें इस बात की आदत हो गई है कि सच बोलने की कीमत जान देकर चुकानी पड़ती है? हां, सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न- यह केवल पत्रकारों की लड़ाई है या पूरे समाज की?

कोई भी लोकतंत्र तब तक जीवित नहीं रह सकता, जब तक उसके नागरिक सवाल पूछने से डरने न लगें. जब पत्रकार मरते हैं तो समाज धीरे-धीरे अंधकार में उतरने लगता है. हर समाज को तय करना होता है कि वह अपने सच को कैसे देखना चाहता है-आईनों में या दीवारों पर. आईनों में सच दिखता है. लेकिन दीवारों पर लिखा जाता है ताकि उसे मिटाया जा सके. पत्रकारों की हत्याएं उन दीवारों पर दर्ज लकीरों की तरह हैं, जिन्हें हर बार यह सोचकर मिटाने की कोशिश की जाती है कि कल कोई नई स्याही नहीं बहेगी. फिर भी हर हत्या के बाद एक नया नाम जुड़ जाता है, हर ख़ामोशी के बाद कोई और आवाज़ उठने लगती है.

शब्द कभी पूरी तरह मरते नहीं. वे सिर्फ़ अपनी शक्लें बदलते हैं. कभी किसी रिपोर्ट में, कभी किसी किताब में, कभी किसी विरोध के नारे में. जब इतिहास करवट लेता है, तब यही शब्द साक्ष्य बनते हैं कि अंधेरे ने कितनी कोशिश की थी रोशनी को बुझाने की.

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