दिल्ली की राजनीति- दिल्ली की दुर्गति, चेहरा बदला लेकिन तस्वीर नहीं
x

दिल्ली की राजनीति- दिल्ली की दुर्गति, चेहरा बदला लेकिन तस्वीर नहीं

दिल्ली की कमान अब अरविंद केजरीवाल की जगह आतिशी के हाथ में होगी। लेकिन सवाल ये है कि व्यवस्था बदलने के नाम पर सत्ता में स्थापित आम आदमी पार्टी ने जमीन पर क्या किया।


Arvind Kejriwal Delhi Politics: दिलवालों की दिल्ली। पता नहीं यह मुहावरा कब और किसने शुरू किया। शायद इसका मतलब था कि दिल्ली वाले सबको आत्मसात कर लेते हैं और हर हाल में खुश रहते हैं। मगर क्या सचमुच दिल्ली वाले वैसे रह गए हैं? नहीं, सच्चाई यह है कि वे खुद ही तरह-तरह से परेशान हैं और कोई उनकी दुर्दशा पर ध्यान नहीं दे रहा है। मणिपुर से दिल्ली के हालात की तुलना इसलिए नहीं हो सकती कि यहां हथियारों वाली हिंसा नहीं हो रही, लेकिन सरकारी उपेक्षा, लापरवाही और राजनीतिक द्वेष कितने घातक और कितने क्रूर हो सकते हैं, इसे दिल्ली वाले सबसे ज़्यादा झेल रहे हैं।

क्या बदल जाएगी दिल्ली की सूरत-सीरत

हर प्रदेश की हालत वहां की राजनीति का बाईप्रोडक्ट होती है। इसलिए अरविंद केजरीवाल के पद छोड़ देने से और आतिशी या किसी और को मुख्यमंत्री बना देने से यह बदलने वाली नहीं है। अगर केंद्र ने दिल्ली के मुख्यमंत्री के अधिकार घटा दिए हैं और एलजी के चार गुने बढ़ा दिए हैं, तो इससे उपजी असहायता केजरीवाल की जगह किसी और के मुख्यमंत्री बनने पर और ज़्यादा उजागर होगी। एलजी के पास तो विधानसभा भंग करने के भी अधिकार हैं। मान लीजिए ऐसा हो जाए तो दोबारा कब चुनाव होंगे यह केंद्र की मर्ज़ी पर निर्भर करेगा।

स्थिति कुछ ऐसी है कि केजरीवाल चुनाव जीत कर खुद ही फिर से मुख्यमंत्री बन जाएं, तब भी ज़्यादा कुछ कर सकने की हालत में नहीं होंगे। इसकी वजह यह है कि न तो केजरीवाल की राजनीति का स्टाइल बदलने वाला है और न भाजपा का। उनके जीतने से उनके अधिकार नहीं बढ़ने वाले और केस तो उन पर चलता ही रहेगा। उल्टे, हो सकता है कि कुछ नए केस पैदा हो जाएं।

केंद्र सरकार का वो नोटिफिकेशन
हाल में केंद्र ने एक नोटीफिकेशन के जरिए एलजी को कोई भी आयोग या बोर्ड गठित करने के भी अधिकार दे दिए हैं जो कि असल में निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री के पास होने चाहिए। इससे ऐसी स्थिति बन सकती है कि दिल्ली सरकार के बोर्ड खुद दिल्ली सरकार को ही कटघरे में खड़े करते दिखाई दें। असल में, एलजी के अधिकार अब लगभग वही हो गए हैं जो 1993 से पहले थे, जब यहां विधानसभा नहीं थी और महानगर परिषद से काम चलता था। तब मुख्यमंत्री की जगह चीफ एग्जीक्यूटिव काउंसलर यानी मुख्य कार्यकारी पार्षद होता था और दिल्ली का राजनीतिक मुखिया होते हुए भी उसके वश में कुछ नहीं था। बल्कि महानगर परिषद से ज़्यादा अधिकार दिल्ली नगर निगम के पास थे। अब भी, केंद्र सरकार यहां के मुख्यमंत्री की हैसियत एक ‘ग्लोरीफ़ाईड मेयर’ जैसी बनाती जा रही है, जैसा कि कभी दिवंगत भाजपा नेता अरुण जेटली ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद के बारे में कहा था।

ऐसे में दिल्ली वालों की समस्याओं पर कौन ध्यान देगा? इस शहर में मुसीबतों का एक कैलेंडर बन चुका है। ढाई महीने पहले यहां पानी की भारी किल्लत चल रही थी। लोग बाल्टियां लिए टैंकरों के पीछे भागे फिर रहे थे। फिर बारिश शुरू हुई तो पानी सड़कों से हटने का नाम नहीं ले रहा था और उन्हें पहले से ज़्यादा ख़राब किए दे रहा है। मुश्किल से डेढ़ महीने बाद यहां जानलेवा वायु प्रदूषण शुरू हो जाएगा जो कम से कम अगली फ़रवरी तक चलेगा। बिना नागा, अपने नियत समय पर ये मुसीबतें आती हैं और हर साल इनकी तीव्रता बढ़ती जाती है। इनसे जूझते हुए कितने लोग मारे जाते हैं या घायल या बीमार होते हैं, इसके सही आंकड़े किसी के पास नहीं, लेकिन यह कलैंडर दिल्ली वालों की नियति बन चुका है।

प्रशासनिक से अधिक राजनीतिक समस्या
इन हालात की मूल वजह प्रशासनिक है, मगर उससे कहीं ज़्यादा राजनीतिक है। आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार का दावा है कि अफ़सर, एलजी और केंद्र सरकार उसे काम नहीं करने दे रहे जबकि केंद्र व भाजपा उसे भ्रष्ट और नाकारा साबित करने के लिए दिन-रात एक किए दे रहे हैं। हर वह काम जो पूरा हो जाता है, आम आदमी पार्टी उसे अपनी उपलब्धि बताती है। और जो नहीं हो पाता उसे वह अफ़सरों पर, एलजी पर, केंद्र सरकार पर या भाजपा पर डाल देती है कि ये सब मिल कर हमारे काम रोक रहे हैं। सवाल है कि अगर काम रोके जा रहे हैं तो आपके कुछ काम पूरे कैसे हो जाते हैं, जिनका आप श्रेय भी लेते घूमते हैं? उनमें कोई अफ़सर आड़े क्यों नहीं आता? और सवाल यह भी है कि अगर आपके काम रोके जा रहे हैं तो किसी आंदोलन से निकली पार्टी इतनी असहाय हो जाएगी?

लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि अफ़सर या एलजी कामों में अड़चन नहीं डालते। अलग-अलग कारणों से दिल्ली सरकार की कई योजनाएं रोकी जा चुकी हैं और मंत्रियों की शिकायत है कि कई कामों के लिए बजट वाला पैसा नहीं दिया जा रहा। हाल में नालों और सीवरों की डीसिल्टिंग नहीं कराए जाने और बस मार्शलों के ऐसे ही मुद्दे सामने आए। साथ ही, ऐसे काम जिनमें भाजपा के नेता एलजी से भ्रष्टाचार की शिकायत कर देते हैं उन्हें सीबीआई को भेज दिया जाता है। स्थिति इस कदर बिगड़ चुकी है कि एलजी और दिल्ली सरकार के एक मंत्री एक अख़बार में एक-दूसरे के विरुद्ध लेख तक लिख चुके हैं। देश में यह अपनी तरह का पहला उदाहरण है। पिछले दिनों दिल्ली विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष विजेंद्र गुप्ता ने राष्ट्रपति को पत्र भेज कर मांग की कि दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाए और राष्ट्रपति ने उनके ज्ञापन को गृह मंत्रालय भेज भी दिया है।

दिक्कतों पर जरा गौर करें
अब ज़रा समस्याओं पर गौर कीजिए। अपने जल-स्रोतों की क्षमता बढ़ाने के बावजूद अगर पानी की कमी हो जाए तो दिल्ली को हरियाणा से गुजारिश करनी ही पड़ेगी कि वह सुप्रीम कोर्ट के निर्धारित किए कोटे के अलावा भी कुछ पानी दे दे। भाखड़ा डैम से विभिन्न राज्यों को मिल रहे पानी के कोटे की समीक्षा अगले साल होनी है। हो सकता है कि तब दिल्ली की बढ़ी आबादी के आधार पर यहां का कोटा बढ़ जाए। मगर इस साल जब दिल्ली सरकार ने हरियाणा से मानवीय आधार पर अतिरिक्त पानी देने और केंद्र से इस मामले में सहयोग की मांग की तो एक विचित्र स्थिति पैदा हो गई। लोग परेशान होते रहे, जबकि एलजी का कहना था कि पानी की कोई कमी नहीं है और यह केवल पानी के वितरण के कुप्रबंधन का मामला है। दिल्ली की ज्यादा पानी की मांग पर पहले कभी किसी एलजी ने ऐसा नहीं कहा था। ध्यान रहे कि जो केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में दलील देती है कि देश की राजधानी के प्रशासन में वह अपना हस्तक्षेप कैसे छोड़ सकती है, उसने इस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया।

इसी तरह, यहां मुख्य रूप से पीडब्लूडी की सड़कें हैं जो दिल्ली सरकार के तहत आता है। मगर सड़कें तो एमसीडी, एनडीएमसी, कैंटूनमेंट बोर्ड, डीडीए और नेशनल हाईवे अथॉरिटी की भी हैं। इसलिए जब आपको किसी सड़क की खस्ता हालत पर अपना सिर पीटने की इच्छा होती है तो आपको पता भी नहीं होता कि वास्तव में किस एजेंसी को इसके गड्ढे भरने चाहिए थे। अब जब जलभराव का मौसम चल रहा है तब यहां के मंत्री कह रहे हैं कि हमारे आदेश के बावजूद अफ़सरों ने नाले-नालियों की डीसिल्टिंग नहीं कराई जबकि एलजी निर्वाचित सरकार को दोष दे रहे हैं।

प्रदूषण की अपनी गाथा
प्रदूषण की गाथा तो और भी ग़जब है। दिल्ली के प्रदूषण पर काबू पाने के लिए जो एजेंसियां जिम्मेदार हैं उनकी संख्या दो दर्जन से ऊपर है और इनमें ज़्यादातर केंद्र के अधीन हैं। इतनी एजेंसियों के बावजूद प्रदूषण विकराल होता जा रहा है। जब किसी काम के लिए बहुत से लोग जिम्मेदार बना दिए जाएं तो समझिए कि किसी की ज़िम्मेदारी नहीं रहती। यानी एजेंसियों की बहुलता अपने आप में एक समस्या है। हर साल यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट पहुंचता है। हर बार अदालत दिल्ली सरकार को फटकारती है। लेकिन इन तमाम एजेंसियों के और पड़ोसी राज्यों के बीच समन्वय बन सके और वे सब मिल कर प्रदूषण रोकने की किसी सतत योजना में जुटें, यह काम हो ही नहीं पा रहा। इस बार तो भाजपा प्रदूषण शुरू होते ही दिल्ली सरकार पर दोगुनी शक्ति से हमले करेगी क्योंकि विधानसभा चुनाव और नजदीक आ जाएंगे।

चुनावी चेष्टाएं पुराने सभी मानक तोड़े डाल रही हैं। इसीलिए तमाम तनातनी के बावजूद, लोकसभा चुनाव और अरविंद केजरीवाल के इक्कीस दिन की अंतरिम जमानत पर छूटने से पहले, एक दिलचस्प वाकया सामने आया। हमेशा की तरह आम आदमी पार्टी दावा कर रही थी कि भाजपा हमारे नेताओं को इसलिए जेल भेज रही है क्योंकि वह हमारी सब्सिडी वाली योजनाओं को बंद करना चाहती है। इस पर राजनिवास से बाकायदा एक संदेश जारी किया गया। इसमें कहा गया कि दिल्ली वालों को जो मुफ्त सेवाएं मिल रही हैं उनमें कोई कमी नहीं आएगी। मुफ्त बिजली, पानी, महिलाओं की मुफ्त बस यात्रा और मोहल्ला क्लीनिक जैसी योजनाएं चलती रहेंगी। इस संदेश में एलजी ने कहा कि लोगों को इन्हें बंद किए जाने की अफवाहों से बचना चाहिए। उनका कहना था कि “ये सब्सिडी वाली योजनाएं भारत सरकार और उपराज्यपाल की ओर से अनुमोदित बजट का हिस्सा हैं। ये किसी व्यक्ति या राजनीतिक दल की नहीं हैं। और किसी व्यक्ति के जेल जाने से इन पर कोई असर नहीं पड़ेगा।“ इस संदेश में केवल यह कहना बच गया था कि ये योजनाएं आम आदमी पार्टी की नहीं, बल्कि भाजपा की हैं।

मुफ्त की योजना को माना धर्म

आम आदमी पार्टी ने भी शायद इन मुफ़्त की योजनाओं को ही अपना धर्म मान लिया है। वह भूल गई है कि प्रदूषण रोकना, पानी का इंतजाम, सड़कों को दुरुस्त करना, जलभराव से निपटना, यमुना की सफ़ाई और कूड़े के पहाड़ों को ख़त्म करना भी दिल्ली सरकार का ही काम है। अपने नेता को जमानत मिलने पर यह पार्टी उत्साहित है, लेकिन इस मौके पर पटाखे चलाना, यानी दो दिन पहले पटाखों पर अपनी ही सरकार के लगाए प्रतिबंध का मजाक उड़ाना, उसकी अगंभीरता दर्शाता है।

दिल्ली में तीन ही मुख्य पार्टियां हैं। आम आदमी पार्टी को लगता है कि मुफ़्त की सेवाओं और विक्टिम कार्ड से उसका काम चल जाएगा। भाजपा मानती है कि चारों दिशाओं में आम आदमी पार्टी को भ्रष्ट और निकम्मा प्रचारित करके वह छब्बीस साल बाद दिल्ली की सत्ता में लौट सकती है। जबकि कांग्रेस के लिए आम आदमी पार्टी का जितना नुक्सान हो उतना ही अच्छा है। दिल्ली में अपना जनाधार वापस पाने की उसकी उम्मीदें इसी में छिपी हैं। जो लोग इन तीनों पार्टियों में से किसी के भी समर्थक हैं, उन्हें उसके ईको सिस्टम का आसरा मिल जाता है और वे उसी धुन में मगन रहते हैं। मगर उन लोगों का क्या जो किसी पार्टी के समर्थक नहीं हैं? वे क्या करें? यहां के ज़मीनी हालात से सबसे ज़्यादा त्रस्त तो वही लोग हैं जो किसी पार्टी के साथ नहीं। या जो दिन-रात रोजी-रोटी की मशक्कत में डूबे हुए हैं और जिन्हें ज़िंदगी ने राजनीतिक जागरूकता हासिल करने लायक न समय दिया है और न सुविधा।

Read More
Next Story