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क्यों अदाणी-एलआईसी बॉन्ड विवाद सार्वजनिक जवाबदेही के लिए खतरे की घंटी है


क्यों अदाणी-एलआईसी बॉन्ड विवाद सार्वजनिक जवाबदेही के लिए खतरे की घंटी है
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वॉशिंगटन पोस्ट ने आंतरिक दस्तावेजों का हवाला देते हुए आरोप लगाया कि मई महीने में वित्त मंत्रालय ने एलआईसी को अडानी समूह द्वारा जारी किए गए 33,000 करोड़ रुपये के बॉन्ड्स में निवेश कराने की योजना तैयार की थी।

केंद्र सरकार की इस कथित कार्रवाई ने कृपापरक पूंजीवाद (cronyism) और विश्वासपरक जिम्मेदारियों (fiduciary duties) के क्षरण को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए है, हालांकि यह पॉलिसीधारकों के धन को लेकर घबराहट फैलाने का कारण नहीं बनता।

वॉशिंगटन पोस्ट ने आंतरिक दस्तावेजों का हवाला देते हुए यह आरोप लगाया है कि मई महीने में वित्त मंत्रालय ने एलआईसी (भारतीय जीवन बीमा निगम) को अदाणी समूह द्वारा जारी किए गए 33,000 करोड़ रुपये के बॉन्ड में निवेश कराने की योजना रची।

केंद्र सरकार की इस कथित पहल ने पक्षपातपूर्ण पूंजीवाद (cronyism) और विश्वस्त जिम्मेदारियों (fiduciary duties) के ह्रास को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं — हालांकि यह पॉलिसीधारकों के फंड को लेकर किसी घबराहट का कारण नहीं बनना चाहिए।

करीब तीन साल पहले हिन्डनबर्ग ने अदाणी समूह के खिलाफ जो बम फोड़ा था — और जिसके बाद अमेरिकी शॉर्ट सेलर खुद पीछे हट गया — उसके काफी समय बाद भी अदाणी समूह विवादों से घिरा हुआ है।

ताजा मामला वॉशिंगटन पोस्ट की उस रिपोर्ट का है, जिसमें दावा किया गया है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) के जरिए अदाणी समूह के बॉन्ड्स को बचाने के लिए एक तरह का “बेलआउट” आयोजित किया।

दो बड़े सवाल

इससे दो अहम सवाल उठते हैं — पहला, क्या यह फिर से “क्रोनी कैपिटलिज्म” यानी पक्षपातपूर्ण पूंजीवाद का उदाहरण है?

क्या वित्त मंत्रालय, जो एलआईसी का “मालिक” भी है, ने अपनी शक्ति का इस्तेमाल अदाणी समूह जैसे प्रभावशाली कारोबारी घराने के पक्ष में किया?

दूसरा सवाल और भी गंभीर है —क्या इस कदम से करोड़ों बीमा धारकों की जीवन भर की बचत खतरे में पड़ सकती है?

यह सवाल इसलिए अहम है क्योंकि एलआईसी के अधिकांश पॉलिसीधारक मध्यमवर्गीय और गरीब तबके से आते हैं — जिनके लिए एलआईसी जैसी संस्था में निवेश ही सुरक्षा का प्रतीक है।

ज्यादातर मीडिया रिपोर्टों में इन दोनों मुद्दों — यानी राजनीतिक पक्षपात और जनहित जोखिम — को एक साथ मिलाकर पेश किया जा रहा है।

आइए अब वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट में लगाए गए आरोपों को थोड़ा विस्तार से समझें।

अदाणी बॉन्ड्स

पोस्ट ने अपने खुलासे में दावा किया कि इस साल मई 2025 में वित्त मंत्रालय के वित्तीय सेवा विभाग ने एलआईसी को अदाणी समूह की कंपनियों द्वारा जारी 3.9 अरब डॉलर (करीब 33,000 करोड़ रुपये) के बॉन्ड में निवेश करने के लिए प्रेरित किया।

रिपोर्ट के अनुसार, इस निवेश का समय बेहद अहम था, क्योंकि उस वक्त समूह अब भी हिन्डनबर्ग रिपोर्ट के असर से जूझ रहा था।

साल 2023 में हिन्डनबर्ग रिसर्च ने आरोप लगाया था कि अदाणी समूह भारी कर्ज में डूबा है और उसने अपने शेयरों के मूल्य को कृत्रिम रूप से बढ़ाने के लिए आपस में जुड़ी कंपनियों के जरिए शेयर ट्रेडिंग का नेटवर्क खड़ा किया था।

इससे कंपनी को अपने बढ़े हुए मार्केट वैल्यू के आधार पर और अधिक कर्ज लेने में आसानी हुई।

सबसे गंभीर आरोप यह था कि समूह के कुछ विदेशी “निवेशकों” की पहचान अस्पष्ट थी — जो बाजार नियामकों के ‘अपने निवेशक को जानो’ (KYI) नियमों का सीधा उल्लंघन था।

विवादों का तूफ़ान कुछ समय के लिए थम-सा गया था, खासकर इसलिए क्योंकि भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI), न्यायालयों और सरकार — तीनों ने किसी न किसी रूप में अडानी समूह को “क्लीन चिट” दी थी। लेकिन यह राहत ज़्यादा समय तक टिक नहीं पाई। वर्ष 2024 में समूह पर फिर से नए आरोप लगे — इस बार अमेरिकी कानून प्रवर्तन एजेंसियों की ओर से। इन एजेंसियों ने समूह के प्रमुख गौतम अडानी और उनके सहयोगियों पर घूसखोरी, धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। द पोस्ट का दावा है कि इसी पृष्ठभूमि में वित्त मंत्रालय ने अडानियों को बचाने के लिए “ऑर्केस्ट्रा के संचालक” की भूमिका निभाई।

असाधारण सहयोग

यह तथ्य है कि उसी महीने (30 मई, 2025 को), एलआईसी (LIC) अडानी समूह की पोर्ट्स सब्सिडियरी द्वारा जारी किए गए 585 मिलियन डॉलर (लगभग 4,950 करोड़ रुपये) के बॉन्ड इश्यू की एकमात्र निवेशक बनकर सामने आई। यह इश्यू कथित तौर पर पुराने कर्ज को चुकाने के लिए लाया गया था। द पोस्ट ने दावा किया कि वित्त मंत्रालय, नीति आयोग और एलआईसी — तीनों ने इस पर विचार-विमर्श में हिस्सा लिया था।

रिपोर्ट में वित्त मंत्रालय को उद्धृत करते हुए कहा गया कि उसने इस बेलआउट को सही ठहराने के लिए गौतम अडानी को “दूरदर्शी उद्यमी” बताया। द पोस्ट के अनुसार, मंत्रालय का कहना था कि इसका रणनीतिक उद्देश्य “अडानी समूह में विश्वास का संकेत देना” था।

सबसे दिलचस्प बात यह है कि मंत्रालय ने इस योजना को यह कहकर उचित ठहराया कि इससे “अन्य निवेशकों की भागीदारी को प्रोत्साहन” मिलेगा।

यदि यह सब सच है तो वित्त मंत्रालय की ये कार्रवाइयाँ निश्चित रूप से असाधारण कही जाएँगी। भले ही मंत्रालय यह मानता हो कि यह व्यावसायिक समूह — जो आज भारत के बंदरगाहों, सड़कों, हवाईअड्डों, सीमेंट और डेटा सेंटर (गूगल के साथ साझेदारी में) जैसे कई बुनियादी ढांचों में प्रमुख भूमिका निभा रहा है — समर्थन के योग्य है, लेकिन सवाल यह है कि उसे “दूरदर्शी” कहने जैसी गैर-ब्यूरोक्रेटिक भाषा क्यों अपनाई गई? और फिर एलआईसी को “अडानी समूह में विश्वास जताने” की अपील कर अतिरिक्त विवाद क्यों पैदा किया गया?

दरअसल, द पोस्ट का आरोप है कि मंत्रालय ने एलआईसी को यहाँ तक कहा कि अडानी बॉन्ड उसके अपने भारतीय रिज़र्व बैंक के ज़रिए जारी सरकारी बॉन्डों से कहीं अधिक आकर्षक हैं।

मार्की निवेशक के रूप में एलआईसी

जो लोग भारत के प्रमुख बीमाकर्ता एलआईसी के कामकाज से परिचित हैं, वे जानते हैं कि आज भी उसके निवेश का अधिकांश हिस्सा सरकारी प्रतिभूतियों (government securities) में होता है। यह उसकी पॉलिसीधारकों की प्रोफ़ाइल को दर्शाता है — जिनमें से अधिकांश छोटे प्रीमियम वाले जीवन बीमा धारक हैं। उनके लिए सुरक्षा और स्थिरता ऊँचे लेकिन जोखिमभरे रिटर्न के भ्रम से कहीं अधिक मायने रखती है।

पोस्ट के आरोप के अनुसार, इस पूरे कदम के पीछे यह मंशा थी कि वित्त मंत्रालय ने एलआईसी को एक “मार्की निवेशक” (प्रमुख निवेशक) के रूप में इस्तेमाल किया ताकि घरेलू और विदेशी स्तर पर झिझक रहे अन्य निवेशकों को अडानी बॉन्ड्स में निवेश के लिए प्रेरित किया जा सके — उस समय जब बाजार के कई खिलाड़ी ऐसा कदम उठाने से हिचक रहे थे।

वास्तव में, एलआईसी द्वारा मई में अडानी बॉन्ड्स में निवेश करने के बाद यही हुआ। एलआईसी की एंट्री के एक महीने के भीतर, अमेरिका की एथेने इंश्योरेंस (Athene Insurance) ने अडानी पोर्ट्स द्वारा जारी 750 मिलियन डॉलर के बॉन्ड्स खरीदे। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, मई 2025 में एलआईसी के निवेश के बाद से अडानी समूह ने कम से कम 10 अरब डॉलर के बॉन्ड्स जारी किए हैं। इनमें से करीब 13,750 करोड़ रुपये (1.625 अरब डॉलर) के बॉन्ड्स घरेलू निवेशकों — जिनमें म्यूचुअल फंड, बीमा कंपनियाँ और बैंक शामिल हैं — द्वारा खरीदे गए हैं।

एलआईसी: एक विशाल संस्थान

हालिया विवाद पर मीडिया की टिप्पणियों से यह झलकता है कि बहुत से लोगों को एलआईसी जैसी संस्था की प्रकृति, पैमाने और महत्त्व का सही अंदाज़ा नहीं है।

असल में, एलआईसी केवल एक और निवेशक नहीं है, और अडानी बॉन्ड्स केवल एक और बिज़नेस अवसर नहीं हैं। गौरतलब है कि अडानी बॉन्ड्स में निवेश करने वाले अन्य घरेलू निवेशकों — जैसे देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक एसबीआई या निजी बैंक आईसीआईसीआई और एचडीएफसी — में से किसी के पास भी एलआईसी जितना विशाल निवेश कोष (investment corpus) नहीं है।

मार्च 2024 तक एलआईसी का लाइफ फंड (Life Fund) — जिसमें बीमा प्रीमियम जमा होते हैं और जिससे सभी दायित्वों का भुगतान होता है — 47.85 लाख करोड़ रुपये का था। किसी भी भारतीय वित्तीय संस्था या किसी वैश्विक जीवन बीमाकर्ता के पास एलआईसी जितनी वित्तीय ताकत नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में यह कोष लगभग 10 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ रहा है, जो एलआईसी को बाजार में भारी प्रभावशाली बनाता है।

इसलिए जब सरकार जैसी कोई संस्था एलआईसी को अडानी बॉन्ड्स में निवेश करने के लिए “प्रेरित” करती है, तो जो निवेशक पहले झिझक रहे थे, वे भी उसी दिशा में आकर्षित हो जाते हैं।

क्या यह व्यावसायिक रूप से उचित था?

एलआईसी ने वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट को खारिज करते हुए कहा कि ऐसा कोई दस्तावेज मौजूद नहीं है जो उसकी कथित भागीदारी को साबित करे। उसने दावा किया कि उसके सभी निवेश उसके बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के निर्णयों पर आधारित हैं।

भारतीय मीडिया की रिपोर्टिंग ने इस विवाद के सबसे अहम सवाल को लगभग नजरअंदाज़ कर दिया —सरकार को देश की सबसे बड़ी वित्तीय संस्था के कारोबारी फैसलों को निर्देशित करने की आवश्यकता क्यों है?

यह तर्क कि एलआईसी का अडानी समूह में निवेश "व्यावसायिक दृष्टि" से उचित है, असल मुद्दे से ध्यान भटकाता है।

इसके अलावा यह तर्क भी बेमानी है कि एलआईसी का अडानी समूह में निवेश आईटीसी, टाटा या रिलायंस जैसे समूहों में किए गए निवेश की तुलना में बहुत कम है — क्योंकि ये अन्य समूह दशकों पुराने हैं। इन कंपनियों में एलआईसी के निवेश उसकी लंबे समय की विरासत का हिस्सा हैं। इसके विपरीत, अडानी समूह की तेजी से हुई वृद्धि का कालखंड नरेंद्र मोदी के 2014 में प्रधानमंत्री बनने के साथ मेल खाता है।

पॉलिसीधारकों के हित

अब दूसरे महत्वपूर्ण सवाल पर आते हैं — क्या एलआईसी के इन निवेशों से उसके पॉलिसीधारकों को कोई खतरा है?

संक्षिप्त उत्तर है — नहीं, कम-से-कम फिलहाल नहीं।

भारत में कर्मचारियों के सबसे बड़े संगठन ऑल इंडिया इंश्योरेंस एम्प्लॉईज एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष अमनुल्ला खान का कहना है कि एलआईसी के पॉलिसीधारकों को तीन मुख्य कारणों से चिंता करने की जरूरत नहीं है —

पहला, संस्था का विविधीकृत निवेश पोर्टफोलियो उसे सीमित परिसंपत्तियों में निवेश के जोखिम से बचाता है।

एलआईसी लगभग 350 भारतीय कंपनियों में निवेश करती है, जो भारतीय सूचीबद्ध कंपनियों के कुल बाज़ार पूंजीकरण का लगभग 4 प्रतिशत हिस्सा हैं। इस विविध निवेश ढांचे से जोखिम काफी हद तक कम हो जाता है।

दूसरा, खान के अनुसार, एलआईसी की निवेश प्रक्रियाएं बेहद मज़बूत हैं, जिनमें निगरानी और नियंत्रण की ठोस व्यवस्था शामिल है।

तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण पहलू, जिस पर अधिकांश टिप्पणीकारों ने ध्यान नहीं दिया, यह है कि एलआईसी द्वारा जारी हर जीवन बीमा पॉलिसी पर सरकार की संप्रभु गारंटी होती है।

किसी और बीमा कंपनी की पॉलिसियों पर यह गारंटी नहीं मिलती। सरकार न केवल पॉलिसी की मूल राशि की गारंटी देती है, बल्कि हर साल मिलने वाले बोनस की भी।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

एलआईसी की ताकत और स्थिरता इस तथ्य से झलकती है कि 1956 में स्थापना के बाद से अब तक इस गारंटी को कभी लागू करने की ज़रूरत नहीं पड़ी।

अमनुल्ला खान बताते हैं कि इस गारंटी को उस ऐतिहासिक संदर्भ में समझना चाहिए, जब एलआईसी का गठन हुआ था।

1956 में एलआईसी का गठन 245 निजी बीमा कंपनियों के विलय से हुआ, जिनमें से कई अस्थायी और अविश्वसनीय कंपनियां थीं।

सरकार ने जीवन बीमा क्षेत्र को स्थिर और विश्वसनीय बनाने तथा सामाजिक सुरक्षा की भावना को फैलाने के लिए संप्रभु गारंटी की व्यवस्था की।

एलआईसी की विपरीतधारा नीति

वित्त वर्ष 2024-25 में एलआईसी का कुल निवेश लगभग ₹52.89 लाख करोड़ रहा, जिसमें से 97 प्रतिशत धनराशि पॉलिसीधारकों से जुटाए गए फंड्स से आई।

भारत में हर तीन जीवन बीमा पॉलिसियों में से लगभग दो एलआईसी द्वारा जारी की जाती हैं — यानी इसका मार्केट शेयर करीब 57 प्रतिशत है।

एलआईसी के 60 प्रतिशत से अधिक निवेश सरकारी प्रतिभूतियों में हैं, जिन्हें उच्चतम क्रेडिट रेटिंग प्राप्त है।

खान के अनुसार, कॉर्पोरेट बॉन्ड्स में एलआईसी का निवेश कुल निवेश का मात्र 2.5 प्रतिशत है।

वह यह भी बताते हैं कि एलआईसी के निवेश पैटर्न के ऐतिहासिक व्यवहार को अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है।

खान कहते हैं —एलआईसी की निवेश नीति कंट्रेरियन यानी विपरीतधारा की रही है। जब बाजार में कीमतें गिरती हैं, तब वह खरीदारी करती है और जब कीमतें बढ़ती हैं, तब धीरे-धीरे बेचकर मुनाफा अर्जित करती है।

यह रणनीति एलआईसी के लिए फायदेमंद है क्योंकि इसके दीर्घकालिक दायित्व भी लंबे समय के होते हैं।

इससे पॉलिसीधारकों के लिए अधिशेष उत्पन्न होता है।

वॉशिंगटन पोस्ट जिस नुकसान की बात कर रहा है, वह सिर्फ कागजी नुकसान है — एलआईसी ने वास्तव में कोई नुकसान नहीं उठाया है, खान कहते हैं।

निवेश कहां हो रहा है?

एलआईसी की ताज़ा वार्षिक रिपोर्ट 2024-25 के अनुसार, 2023-24 से 2024-25 के बीच एलआईसी के निवेश में लगभग ₹3 लाख करोड़ की बढ़ोतरी हुई। इसमें से 86.5 प्रतिशत निवेश पॉलिसीधारकों से जुटाए गए फंड के आधार पर किया गया।

तो, इतना विशाल संस्थान जैसे एलआईसी — जिसे हर साल इतनी बड़ी मात्रा में धनराशि का निवेश करना पड़ता है — वह अपनी दीर्घकालिक देनदारियों (खासकर पॉलिसीधारकों के प्रति) को संतुलित करने और उनसे मेल खाती आय उत्पन्न करने के लिए आखिर निवेश कहां करे?

दुर्भाग्य से, पिछले दो दशकों से लंबे समय की परिपक्वता (maturity) वाले बॉन्ड्स जैसे निवेश साधनों की कमी पर बहुत चर्चा के बावजूद, अब तक इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।

नतीजतन, एलआईसी जैसी संस्था — जिसे अपने परिसंपत्तियों (assets) और देनदारियों (liabilities) के दीर्घकालिक संतुलन के लिए 30 साल की अवधि वाले ऋण साधन (debt instruments) की अत्यंत आवश्यकता होती है — उसे मजबूरन कॉर्पोरेट बॉन्ड्स जैसे विकल्पों की ओर रुख करना पड़ता है।

हालांकि, यह जोखिम काफी हद तक कम हो जाता है क्योंकि उसके अधिकांश निवेश अब भी सरकार समर्थित प्रतिभूतियों (government-backed securities) में हैं।

अमनुल्ला खान के अनुसार, “इसमें कोई शक नहीं कि अडानी समूह भारत में कृपापरक पूंजीवाद (crony capitalism) का एक क्लासिक उदाहरण है, लेकिन इस मुद्दे को इस सवाल से अलग रखना चाहिए कि क्या यह कदम पॉलिसीधारकों के लिए किसी वास्तविक खतरे का संकेत है।”

वह कहते हैं कि चाहे यूनियन को पसंद आए या न आए, एलआईसी “मौजूदा सिस्टम” के भीतर ही काम करने के लिए बाध्य है।

कृपापरक पूंजीवाद से लड़ाई एक व्यापक राजनीतिक संघर्ष का हिस्सा है, जिससे उनकी यूनियन कभी पीछे नहीं हटी, परंतु पॉलिसीधारकों के बीच भय और भ्रम फैलाना संस्था के साथ अन्याय होगा।

जवाबदेही की तत्काल आवश्यकता

यह तथ्य नकारा नहीं जा सकता कि एलआईसी के “मालिक” के रूप में वित्त मंत्रालय का उसकी नीतियों और कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप रहेगा।

आखिरकार, मंत्रालय का एलआईसी के बोर्ड में प्रतिनिधित्व उसकी “मालिकाना हैसियत” के कारण ही सुनिश्चित है।

जब तक एलआईसी संसद की निगरानी में थी, तब तक यह उम्मीद बनी रहती थी कि सार्वजनिक जांच उसके कार्यों पर नियंत्रण रखेगी।

लेकिन 2022 के आईपीओ से ठीक पहले जब एलआईसी को कंपनी में रूपांतरित किया गया, तब से ये सुरक्षा दीवारें (guardrails) हटा दी गई हैं।

अब तत्काल आवश्यकता है कि एक अधिक जवाबदेह प्रणाली बहाल की जाए — ऐसी प्रक्रिया जो करोड़ों भारतीयों के हितों की फिड्यूशियरी (विश्वासपरक) ज़िम्मेदारी को सही मायने में प्रतिबिंबित कर सके।

(नोट: इस लेख में व्यक्त विचार और मत लेखक के निजी हैं। “द फेडरल” का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।)

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