Shikha Mukerjee

‘शुद्ध मतदाता सूची’ की जंग, असम की चुप्पी और बंगाल का उबाल


‘शुद्ध मतदाता सूची’ की जंग, असम की चुप्पी और बंगाल का उबाल
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असम में NRC और बंगाल में SIR 2.0 ने मतदाता वैधता और नागरिकता पर नया राजनीतिक तूफ़ान खड़ा किया है। ‘शुद्ध मतदाता सूची’ की जंग और गहराई तक पहुँची।

भारत में मतदाता सूची को पूरी तरह शुद्ध बनाने की कोशिशें जितनी जटिल हैं, उतनी ही विवादों से भी भरी हुई हैं। चुनाव आयोग (EC) ने जब ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन’ यानी SIR 2.0 की प्रक्रिया शुरू की, तो उसने दावा किया कि इससे “शुद्ध मतदाता सूची” बनेगी जो “लोकतंत्र को मज़बूत करेगी।” लेकिन असम और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों की ज़मीनी सच्चाई इस दावे को चुनौती देती दिख रही है।

मतदाता सूची की ‘शुद्धता’ का दावा और शक

बिहार में बीटा वर्ज़न के तौर पर शुरू हुए SIR की तकनीकी दिक्कतों के बाद अब यह प्रक्रिया 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में चल रही है। आयोग का कहना है कि तीन बार घर-घर जाकर मतदाताओं का सत्यापन किया जाएगा, ऑनलाइन खोज की सुविधा दी जाएगी, और उन लोगों को दस्तावेज़ दिखाने की आवश्यकता होगी जिनका नाम 2002-2004 की पिछली मतदाता सूची में था। आयोग यह आश्वासन देना चाहता है कि कोई पात्र मतदाता छूटे नहीं।

लेकिन राजनीतिक दलों — खासकर विपक्ष — को इस पर भरोसा नहीं है। वे इसे मतदाता पहचान की जाँच के बहाने जनसंख्या और नागरिकता से जुड़े विवादों को हवा देने वाला कदम मानते हैं।

असम को SIR सूची से बाहर क्यों रखा गया?

सबसे बड़ा सवाल यह है कि असम को इस सूची से बाहर क्यों रखा गया?मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह कहा कि असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी (NRC) की प्रक्रिया जारी होने के कारण SIR फिलहाल संभव नहीं।पर इससे यह संकेत भी गया कि चुनाव आयोग NRC और SIR को एक-दूसरे के समान मान रहा है — यानी अगर NRC है, तो वही मतदाता सत्यापन और वैधता की जाँच कर देगा।

यह सोच ख़तरनाक मानी जा रही है, क्योंकि इससे SIR, NRC का नया रूप बनकर नागरिकता और मताधिकार के बीच की रेखा को और धुंधला कर सकता है।

असम का राजनीतिक दलदल

असम में मतदाता सूची का पुनरीक्षण और मतदान केंद्रों का पुनर्गठन एक राजनीतिक बारूदी सुरंग की तरह है।विपक्षी दलों और नागरिक संगठनों, जैसे हर्ष मंदर की एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (ADR), ने चुनाव आयोग पर आरोप लगाया है कि वह मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की सरकार के “जेरिमैंडरिंग” (मतदान क्षेत्रों की मनमानी सीमा निर्धारण) के खेल में शामिल है।

आरोप यह है कि बंगाली भाषी इलाकों, जिन्हें सरमा सरकार “बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों” से जोड़ती है, की सीमाएं जानबूझकर बदली जा रही हैं ताकि चुनावी परिणामों को प्रभावित किया जा सके।

‘घुसपैठ’ का नैरेटिव और CAA की छाया

पूर्वोत्तर राज्यों में यह धारणा लंबे समय से प्रचारित की जाती रही है कि बांग्लादेश और म्यांमार से आए अवैध प्रवासी भारत की जनसांख्यिकी बदल रहे हैं।1985 में असम समझौते और उसके बाद नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के बदलावों ने इस मुद्दे को और उभारा।अब, जब चुनाव आयोग ‘शुद्ध मतदाता सूची’ की बात कर रहा है, तो यह उसी राजनीतिक भाषा का विस्तार लगता है।

पश्चिम बंगाल के मुख्य निर्वाचन अधिकारी मनोज कुमार अग्रवाल ने 28 अक्टूबर को घोषणा की कि हर ज़िले में “मदद डेस्क” और प्रवासी इलाकों में “विशेष डेस्क” स्थापित किए जाएंगे। उन्होंने कहा कि “कोई वैध मतदाता हटाया नहीं जाएगा।”मगर उनके बयान का दूसरा अर्थ यह निकला कि असली उद्देश्य अवैध मतदाताओं को हटाना है, न कि हर वैध मतदाता को शामिल करना।

स्वयंसेवक और BLR: नया विवाद

7.6 करोड़ मतदाताओं वाले पश्चिम बंगाल और 51 करोड़ मतदाताओं वाले 12 राज्यों में आयोग के पास पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं। इसलिए अब स्वयंसेवकों की मदद ली जा रही है।बिहार में हुई आलोचना के बाद आयोग ने नियम बदले हैं — अब केवल सरकारी कर्मचारी ही बूथ लेवल ऑफिसर (BLO) बन सकते हैं।उन्हें सहायता देंगे बूथ लेवल रिप्रेजेंटेटिव (BLR) — जिन्हें राजनीतिक दल चुनेंगे। इसका मतलब यह है कि जिस दल के पास अधिक प्रशिक्षित कार्यकर्ता हैं, उसे लाभ मिलेगा।

बंगाल में TMC का बढ़त, BJP की मुश्किल

पश्चिम बंगाल में यह स्थिति तृणमूल कांग्रेस (TMC) के पक्ष में है, क्योंकि उसके पास स्थानीय स्तर पर काम करने वाली बड़ी टीम है। TMC छह महीने से मतदाता सूची की खुद जाँच कर रही है और आयोग से EPIC नंबरों व फर्जी पते को लेकर भिड़ी हुई है।वहीं बीजेपी ने SIR प्रक्रिया को दरकिनार करते हुए CAA कैम्प्स लगाने का रास्ता चुना है।

बीजेपी का दावा है कि वह बांग्लादेश से लगे जिलों — उत्तर 24 परगना, नादिया, कूचबिहार और दोनों दिनाजपुर — में हिंदू मतदाताओं के नागरिकता दस्तावेज़ दुरुस्त कराने में मदद करेगी।यही जिले बीजेपी के 2021 विधानसभा चुनाव में जीते गए 77 में से लगभग आधे सीटों का आधार रहे हैं।इन इलाकों में मतुआ समुदाय की बड़ी आबादी है, जिसे बीजेपी पिछले दशक से नागरिकता के वादे के जरिए अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रही है।

CAA बनाम SIR: दोहरा नैरेटिव

बीजेपी का नैरेटिव हिंदू नागरिकों को नागरिकता दिलाने और मुस्लिम प्रवासियों को हटाने दोनों पर टिका है।मगर इसमें विरोधाभास है।एक ओर पार्टी हिंदुओं के लिए CAA के ज़रिए राहत चाहती है, दूसरी ओर SIR के ज़रिए मुस्लिम मतदाताओं की वैधता पर सवाल उठाती है।पर इस बीच जो हिंदू नागरिक अपने दस्तावेज़ों को अपडेट कराने में जुटेंगे, वे भी लाभ योजनाओं से वंचित होने और मतदाता सूची से अस्थायी रूप से बाहर होने का खतरा झेल सकते हैं।

‘दिल्ली ज़मींदारों’ से बंगाल की जंग

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे “दिल्ली के ज़मींदारों की साज़िश” बताया है जो “झूठ फैलाने, डर पैदा करने और असुरक्षा को वोटों के हथियार में बदलने” की कोशिश कर रहे हैं।उनका कहना है — “बंगाल लड़ेगा, बंगाल बचाएगा और बंगाल जीतेगा।”दरअसल, बंगाल में यह जंग अब हिंदू वोटों की गोलबंदी की होड़ बन चुकी है।बीजेपी और तृणमूल, दोनों का लक्ष्य सीमावर्ती इलाकों में मतदाताओं के मानस को प्रभावित करना है — बस तरीका अलग है।

SIR 2.0 केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि भारत के सबसे संवेदनशील मुद्दे — पहचान और नागरिकता — पर टिकी एक राजनीतिक परीक्षा है।असम में इसे रोकना और बंगाल में लागू करना दर्शाता है कि आयोग के लिए “शुद्ध मतदाता सूची” बनाना केवल तकनीकी काम नहीं, बल्कि राजनीतिक जोखिमों से भरा कदम है।अगर यह प्रक्रिया सावधानी से नहीं संभाली गई, तो यह लोकतंत्र को “शुद्ध” करने के बजाय, और गहराई से विभाजित कर सकती है।

(फेडरल सभी पक्षों से विचार और राय प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। लेख में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक की हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करें।)

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