
अयोध्या में मोदी द्वारा भगवा ध्वज फहराना राम मंदिर की पूर्णता का प्रतीक बताया गया, लेकिन यह समारोह इतिहास, राजनीति और हिंदू राष्ट्रवाद के संकेतों से भरा दिखा।
मंगलवार (25 नवंबर) को अयोध्या में आयोजित ध्वजारोहण उत्सव राम मंदिर के निर्माण और उद्घाटन से जुड़े घोषित अनुष्ठानों की अंतिम कड़ी था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत की मौजूदगी में राम मंदिर के शीर्ष पर विशाल भगवा ध्वज फहराया। यह समारोह महज़ धार्मिक अनुष्ठान से अधिक दिखाई दिया—यह संगठन परिवार की दृष्टि में भारत के ‘हिंदू राष्ट्र’ में रूपांतरण की प्रतीकात्मक घोषणा जैसा था।
मोदी ने इस भगवा ध्वज—धर्म ध्वजा—को भारत के “पुनरुत्थान” का प्रतीक बताया। उन्होंने कहा कि यह ध्वज “सत्यमेव जयते नानृतम्”—सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं—का संदेश देता है। लेकिन एक धार्मिक ध्वज को राष्ट्रीय प्रतीक के सूत्र वाक्य से जोड़ना न केवल विवादित है, बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के संवैधानिक सिद्धांतों के भी विपरीत है।
राम मंदिर का औपचारिक पूर्णत्व
राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के दो चरण—पहला 22 जनवरी 2024 को और दूसरा जून 2024 में—हो चुके हैं। तब भी मंदिर परिसर का निर्माण जारी था। लेकिन इस बार के आयोजन को मंदिर के स्थापत्य, आध्यात्मिक और अनुष्ठानिक पूर्णता की घोषणा के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह याद रखना आवश्यक है कि जनवरी 2024 की प्राण प्रतिष्ठा अधूरे मंदिर में इसलिए करवाई गई थी ताकि लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा को राजनीतिक बढ़त मिले।
मोदी का ‘अयोध्या कनेक्ट’ कैसे बना?
1984 से 1992 तक चले राम मंदिर आंदोलन में मोदी की कोई प्रमुख भूमिका नहीं थी। उनका अयोध्या से पहला सार्वजनिक जुड़ाव 1991 में एकता यात्रा के दौरान हुआ, जिसका राम मंदिर संघर्ष से कोई लेना–देना नहीं था। 2002 के गोधरा कांड और गुजरात दंगों के बाद ही मोदी राष्ट्रीय राजनीति में उभरे। कर सेवकों की अयोध्या से वापसी के दौरान साबरमती एक्सप्रेस पर हुए हमले के बाद वे अचानक राष्ट्रीय प्रकाशपुंज बनकर सामने आए।शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने हर ऐसे अवसर को महत्व दिया, जिससे उनका नाम राम मंदिर की कहानी में स्थायी रूप से दर्ज हो सके।
अयोध्या में मोदी की तीन बड़ी भूमिकाएँ
राम मंदिर परिसर में मोदी ने तीन बड़े धार्मिक आयोजनों का नेतृत्व किया—
भूमि पूजन – अगस्त 2020
प्राण प्रतिष्ठा – जनवरी 2024
ध्वजारोहण उत्सव – नवंबर 2025
इन तीनों आयोजनों में मोहन भागवत उनके साथ मौजूद रहे, किंतु स्पष्ट तौर पर द्वितीय भूमिका में। मीडिया ने इन आयोजनों को बड़े पैमाने पर प्रसारित किया और मोदी को उस नेता के रूप में चित्रित किया जिसने “सदियों पुराने संकल्प” को पूरा किया।
मोदी ने ध्वजारोहण के बाद कहा “सदियों पुराने घाव भर रहे हैं, सदियों का दर्द शांत हो रहा है और सदियों का संकल्प आज पूरा हुआ है।”
राम मंदिर आंदोलन का वास्तविक इतिहास
वास्तविकता यह है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद के स्थान पर मंदिर निर्माण की मांग VHP ने 1984 में औपचारिक रूप से उठाई। इससे पहले बाबरी मस्जिद के इर्द–गिर्द पहली बार संघर्ष 1850 के दशक में दर्ज हुआ था। 1528 में मस्जिद के निर्माण से 1930 के दशक तक कोई प्रमाणित संघर्ष दर्ज नहीं है, फिर भी प्रधानमंत्री के भाषणों में “500 वर्षों के संघर्ष” की पुनरावृत्ति होती रही।
इसी तरह 1959 में RSS ने एक प्रस्ताव पारित किया कि अतीत में मंदिरों को “विदेशी आक्रांताओं” द्वारा मस्जिदों में बदला गया। लेकिन आने वाले वर्षों में इस मुद्दे का उल्लेख तक नहीं हुआ। अयोध्या आंदोलन को BJP ने आधिकारिक समर्थन 1989 में दिया—अर्थात कथित “500 वर्ष लंबे संघर्ष” का राजनीतिक उपयोग बहुत बाद में शुरू हुआ।
सामाजिक पहुंच और प्रतीक राजनीति
राम मंदिर आंदोलन की खासियत रही—सामाजिक गठजोड़ का विस्तार।1989 में शिलान्यास दलित नेता कameshwar Chaupal से कराया गया था। आगे चलकर वे राम जन्मभूमि त्रस्ट के सदस्य बने।
मोदी ने अपने भाषण में भी दानदाताओं, मजदूरों,कारीगरों, मूर्तिकारों, पर्यवेक्षकों सभी को धन्यवाद दिया। उन्होंने ऋषियों और निचले सामाजिक वर्गों से जुड़े पात्रों निषादराज, शबरी आदि का भी उल्लेख किया। लेकिन उल्लेखनीय तथ्य यह है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों का जिक्र भाषण में नहीं था।
पुराण, मिथक और इतिहास का मिश्रण
मोदी के भाषण का एक बड़ा पहलू था राम और रामायण के पात्रों को ऐतिहासिक चरित्र बताना। यह दृष्टिकोण RSS–प्रेरित विचारधारा से आता है, जैसा कि विनायक चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक Hindutva and Violence में विस्तार से लिखा है। VD Savarkar की “इतिहास इन फुल” अवधारणाजहाँ मिथक और महाकाव्य को भी इतिहास माना जाता है का प्रभाव आज के शासन–वृतांत में स्पष्ट दिखता है।
मोदी का यह कहना “यदि देश को आगे बढ़ना है तो अपनी विरासत पर गर्व करना होगा इसी ढांचे से आता है, जहाँ विरासत और इतिहास में कोई स्पष्ट विभाजन नहीं किया जाता।
हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना की ओर संकेत?
धर्म ध्वजा पर मौजूद तीन प्रतीकों—
सूर्य (राम की सूर्यवंशी वंश परंपरा)
ओम् (आध्यात्मिक ध्वनि)
कोविदार वृक्ष (पवित्रता और राम राज्य का प्रतिक) को मोदी ने “स्मृति की वापसी”, “पहचान का पुनर्जागरण” और “सभ्यता के पुनर्प्रमाणन” की तरह संदर्भित किया। यह भाषा, प्रतीक और संदेश—सब मिलकर एक बहु–धार्मिक, बहुभाषी, लोकतांत्रिक भारत में बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद की ओर झुकाव प्रकट करते हैं।
ध्वजारोहण उत्सव महज़ धार्मिक अनुष्ठान नहीं था; यह भारतीय राजनीति के नए सांकेतिक चरण का प्रदर्शन था। जहाँ धर्म और राष्ट्र के बीच की संवैधानिक रेखाएँ धुंधली होती दिख रही हैं। अयोध्या को एक राजनीतिक–सांस्कृतिक परियोजना के रूप में पेश करने की प्रक्रिया अब अपने सबसे स्पष्ट रूप में सामने आ चुकी है।
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