
इस पूरे विवाद ने एक बार फिर दिखाया है कि कैसे राजनीतिक दल वामपंथी हों या तृणमूल कट्टरपंथी समूहों को वैधता देकर उन्हें संस्कृति और विचारों के संरक्षक बना देते हैं। परिणामस्वरूप धर्मनिरपेक्षता कमजोर होती है।
पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार पर एक बार फिर कट्टरपंथियों के सामने झुकने का आरोप लगा है। राज्य की उर्दू अकादमी द्वारा मशहूर गीतकार जावेद अख्तर के कार्यक्रम को स्थगित करने के बाद यह विवाद गहराता जा रहा है। बताया जा रहा है कि कुछ इस्लामी संगठनों की आपत्ति के बाद यह निर्णय लिया गया।
यह सिर्फ एक सांस्कृतिक कार्यक्रम की रद्दी नहीं, बल्कि पश्चिम बंगाल में लगातार बढ़ते बौद्धिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संकट की निशानी बन गई है। आलोचकों का कहना है कि यह कदम सरकार की राजनीतिक मजबूरियों और वोट बैंक की राजनीति का परिणाम है, जिससे राज्य की धर्मनिरपेक्ष पहचान खतरे में पड़ती जा रही है।
भाजपा को मिला हथियार
विश्लेषकों का मानना है कि इस तरह के निर्णयों से राज्य न सिर्फ इस्लामी कट्टरता के सामने झुकता है, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से हिंदू राष्ट्रवाद को भी बल देता है। भाजपा जैसी पार्टियां इसे अपने सांप्रदायिक विमर्श के समर्थन में उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल करती हैं। पश्चिम बंगाल, जो कभी बौद्धिकता, बहुलतावाद और प्रगतिशील सोच का केंद्र था, अब धीरे-धीरे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ कदम उठाने लगा है। जावेद अख्तर का कार्यक्रम स्थगित होना कोई संयोग नहीं, बल्कि एक राजनीतिक सौदे का हिस्सा माना जा रहा है — जिसमें सत्ता के बदले स्वतंत्रता की कुर्बानी दी जा रही है।
"शांति" नहीं, "सेंसरशिप" है नया साधन
राज्य सरकार और उर्दू अकादमी द्वारा जो तर्क दिया गया — "सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने" का — वह प्रश्नों के घेरे में है। आलोचक कहते हैं कि सच्चा सौहार्द मतभेदों की स्वतंत्रता से आता है, न कि डर और चुप्पी से। जावेद अख्तर जैसे धार्मिक आलोचना के समर्थक और संतुलित विचारकों की आवाज को दबाना, प्रगतिशील मुस्लिम युवाओं के लिए एक नकारात्मक संदेश है कि यदि आप सुधार की बात करेंगे तो आपको चुप करा दिया जाएगा।
जावेद अख्तर की वैचारिक आलोचना बनी 'खतरा'
कार्यक्रम के स्थगन के बाद जावेद अख्तर ने एक निजी बैठक में कट्टरपंथ और मुस्लिम नेतृत्व की विफलता पर साहसिक टिप्पणी की। उन्होंने तथाकथित "जनसंख्या विस्फोट" के मिथक को तोड़ा और बताया कि धार्मिक नहीं, आर्थिक कारण जन्म दर को प्रभावित करते हैं। उन्होंने यह भी पूछा कि मुस्लिम समाज से राजा राममोहन राय जैसे सुधारक क्यों नहीं निकले? साथ ही उन्होंने AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी को याद दिलाया कि भारत का धर्मनिरपेक्ष संविधान धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं की देन है — यह कथन बिना किसी समुदाय को नीचा दिखाए, इतिहास का संतुलित विश्लेषण था।
कट्टरपंथ बनाम कट्टरपंथ
राज्य सरकार द्वारा बार-बार इस तरह के फैसले लेना, एक दोहरे चरित्र की ओर इशारा करता है। पहले वामपंथी सरकार ने 2007 में तसलीमा नसरीन को राज्य से बाहर निकाल दिया था, अब वही पैटर्न तृणमूल कांग्रेस भी दोहरा रही है। यह सत्ता का एक ऐसा समझौता है, जिसमें कट्टरपंथियों को तुष्ट करके अल्पकालिक शांति खरीदी जाती है, लेकिन इसकी कीमत होती है — राज्य का बौद्धिक जीवन और स्वतंत्रता।
बंगाल की पहचान दांव पर
आज बंगाल एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां या तो वह कट्टरपंथी वीटो के अधीन रहकर हर विचार को "धार्मिक टेस्ट" से पास करेगा या फिर वह अपने सांस्कृतिक और बौद्धिक इतिहास को याद करके नवजागरण की परंपरा को पुनर्जीवित करेगा। यह सिर्फ एक कार्यक्रम की बात नहीं है — यह उस डरावनी चुप्पी की शुरुआत है, जिसमें हर आवाज खामोश की जा रही है, हर सोच को संदेह की नजर से देखा जा रहा है।
बंगाल के पास है नेतृत्व का साहस?
सबसे बड़ा सवाल अब यह नहीं है कि किसे कैसे खुश किया जाए, बल्कि यह है कि क्या बंगाल में अब भी इतना साहस बचा है कि वह नेतृत्व करे? जब तक यह साहस नहीं आएगा, यह चुप्पी और गहराती जाएगी और बंगाल की आत्मा धीरे-धीरे मिटती जाएगी।
(फेडरल सभी पक्षों के विचारों और राय को प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। लेखों में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक की हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करें।)