
भागवत ने कहा कि विनाश में मिनट लगते हैं, निर्माण में सालों। लेकिन मणिपुर के लोग उस निर्माण योजना से थक चुके हैं, जिसे बनाने में उनकी कोई भागीदारी नहीं रही।
इंफाल की तनावपूर्ण हवा में दो अलग-अलग दृश्य उभरते हैं। एक ओर मंच पर शांति, सभ्यता और एकता की बातें, दूसरी तरफ सड़कों पर आंसू गैस, गुस्सा और विस्थापित लोगों के विरोध प्रदर्शन। यह विरोधाभास बताता है कि मणिपुर आज खुद से ही संघर्ष कर रहा है और उस पर एक नई कथा थोपे जाने का एहसास भी गहराता जा रहा है। 20 नवंबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक सभा में प्राचीन संस्कृत श्लोकों और सभ्यतागत एकता का उल्लेख करते हुए धैर्य और सदाचार के मार्ग से शांति की बात की। उनका भाषण दार्शनिक था, शांत स्वर वाला।
वहीं दूसरी ओर, मणिपुर की सड़कों पर गुस्सा उबल रहा था। जातीय हिंसा में विस्थापित लोग प्रदर्शन कर रहे थे। आंसू गैस की तेज गंध हवा में भर गई थी। भागवत के ‘स्वाभाविक एकत्व’ के संदेश को उनके विरोध ने एक कठोर चुनौती दी। राज्य सरकार द्वारा संगाई महोत्सव 2025 आयोजित करने के निर्णय ने हालात और विस्फोटक बना दिए—लोग इसे उत्सव नहीं, बल्कि ‘जलते घर में राजनीतिक तमाशा’ बता रहे हैं।
RSS की एंट्री
राष्ट्रपति शासन लगने के बाद भी बीजेपी नई सरकार बनाने में असफल रही है, जिसने पार्टी की राज्य में राजनीतिक पकड़ पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। मेइती और कुकी समुदायों के बीच हिंसा ने उनकी गठबंधन राजनीति को तोड़ दिया है। इसी शून्य के बीच RSS सक्रिय हुआ है। वह खुद को राजनीतिक दल नहीं, बल्कि “मनुष्य निर्माण की पद्धति” और “सभ्यतागत एकत्व” का वाहक बताकर सामने आया है। भागवत के भाषण को राजनीतिक विश्लेषक RSS की लंबे समय से चल रही ‘सभ्यतागत एकीकरण’ परियोजना का हिस्सा बताते हैं—उत्तर-पूर्व को एक विशिष्ट ‘हिंदू भारत’ की कल्पना में सांस्कृतिक रूप से शामिल करने की रणनीति।
भागवत ने कहा कि “हिंदू कोई संज्ञा नहीं, बल्कि एक विशेषण है”—एक सभ्यतागत पहचान, जो उत्तर-पूर्व की विविध जातीय और धार्मिक पहचान को अपने भीतर समाहित कर सकती है। लेकिन प्रदर्शनकारियों का मानना है कि यही वह परियोजना है जो उनकी पहचान मिटा रही है और राजनीतिक निष्ठाओं को बदलने की कोशिश कर रही है।
स्थानीय असहमति
भागवत ने RSS को “समुद्र और आकाश जैसा” बताते हुए उसे सामान्य राजनीति से परे एक प्राकृतिक, सामाजिक शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि RSS पूरे हिंदू समाज को संगठित करना चाहता है—उन लोगों समेत जो इसका विरोध करते हैं। यह कथन सुनने में उदार लगता है, लेकिन मणिपुर जैसे संवेदनशील राज्य में इसे बहुसंख्यकवादी सामाजिक ढांचे के निर्माण की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। कुकी-ज़ो जनजातियां, जो मुख्यतः ईसाई हैं, इसे अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता के लिए सीधा खतरा मानती हैं। भागवत ने विविधता को अंतर्निहित एकता का प्रकट रूप” बताया। लेकिन स्थानीय जनजातियाँ कहती हैं कि उनकी पहचान किसी ‘बड़ी हिंदू सभ्यता का विशेषण’ नहीं, बल्कि अपनी विशिष्ट इतिहास, परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं में निहित एक स्वतंत्र ‘संज्ञा’ है।
संगाई महोत्सव
इन्हीं संदर्भों में संगाई महोत्सव के खिलाफ हिंसक विरोध पैदा हुआ है। राज्य का दावा है कि यह संस्कृति और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए है, परंतु हजारों लोग अभी राहत शिविरों में रह रहे हैं, गांव जल चुके हैं और समुदायों के बीच भरोसा टूट चुका है। ऐसे में महोत्सव को लोग एक नकली सामान्य स्थिति का प्रदर्शन बता रहे हैं। प्रदर्शनकारियों को आंसू गैस से खदेड़ा गया—जो राज्य की संवेदनहीनता का प्रतीक बन गया। भागवत की ही कही बात अनायास सच लगने लगी—“कमज़ोरों की कोई नहीं सुनता।
पुल बनाना या नई खाई?
RSS समर्थकों का दावा है कि संगठन उत्तर-पूर्व में शिक्षा, राहत कार्य और स्थानीय भाषाओं के प्रचार के जरिए सामाजिक सद्भाव बढ़ा रहा है। लेकिन आलोचकों का आरोप है कि यह सद्भाव एक दिशा में है—लोगों को उनके मौजूदा सांस्कृतिक और धार्मिक ढांचे से हटाकर RSS की विचारधारा की ओर खींच लेने वाली दिशा। वे कहते हैं कि RSS की मदद उन्हीं को मिलती है, जो ईसाई या मुस्लिम प्रभुत्व की “लाइन” नहीं मानते, जिससे समाज में नई दरारें बन रही हैं। भागवत द्वारा प्रस्तुत “पंच परिवर्तन” और “सामाजिक समरसता” का संदेश उन समुदायों को गहराई से संदिग्ध लगता है, जो इसे अपनी पहचान बदलने की कोशिश मानते हैं।
शांति का रास्ता अभी दूर
RSS का आदर्श—“संपूर्ण समाज का संगठन सज्जन शक्ति से”—कागज़ पर आकर्षक लगता है, पर मणिपुर की पहाड़ियों और घाटियों में “सज्जन” की परिभाषा ही विवादित है। RSS के लिए सज्जनता का मतलब एकीकृत हिंदू सभ्यतागत पहचान है। प्रदर्शनकारियों के लिए सज्जनता का अर्थ है—न्याय, पहचान की स्वतंत्रता और उनके दर्द को स्वीकार करना। संगाई महोत्सव पर छिड़ा विवाद और बीजेपी की सरकार बनाने में असफलता, दोनों को भागवत के भाषण से अलग-अलग नहीं देखा जा सकता। ये उसी संघर्ष की दो तस्वीरें हैं—एक तरफ शीर्ष से थोपी जा रही सभ्यतागत एकता; दूसरी तरफ जमीनी स्तर पर उसकी तीखी अस्वीकृति।
भागवत ने कहा कि विनाश में मिनट लगते हैं, निर्माण में सालों। लेकिन मणिपुर के लोग उस निर्माण योजना से थक चुके हैं, जिसे बनाने में उनकी कोई भागीदारी नहीं रही। जब तक शांति और एकता की परिभाषा राहत शिविरों और विरोध स्थलों से नहीं सुनी जाएगी और केवल शाखाओं से नहीं—तब तक मणिपुर में शांति की राह लंबी, कठिन और आंसू गैस के धुएँ से भरी रहेगी।
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