Devendra Poola

विशेष पुनरीक्षण से उठे सियासी सवाल, क्या दलों का जमीनी ढांचा ढह रहा है?


विशेष पुनरीक्षण से उठे सियासी सवाल, क्या दलों का जमीनी ढांचा ढह रहा है?
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बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण पर विपक्ष ने लगाया ‘वोट चोरी’ का आरोप लगाया है, वहीं सुप्रीम कोर्ट ने दलों की निष्क्रियता पर हैरानी जताई।

बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) के दौरान मतदाता सूची में गड़बड़ियों ने हाल के वर्षों का सबसे बड़ा राजनीतिक टकराव खड़ा कर दिया है। विपक्ष, खासकर राहुल गांधी, ने इस प्रक्रिया को “वोट चोरी” और वंचित समुदायों के व्यवस्थित अधिकार-हरण की साजिश बताया है। दूसरी ओर, चुनाव आयोग (EC) इसे “कानूनी और मतदाता हितैषी” प्रक्रिया करार दे रहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने इसे रोकने से तो इनकार कर दिया, लेकिन ड्राफ्ट-रोल चरण में राजनीतिक दलों की निष्क्रियता पर आश्चर्य जताया। यही टिप्पणी असली संकट को उजागर करती है यह केवल एक तकनीकी या प्रशासनिक मुद्दा नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति की गहराई में हो रहे संरचनात्मक बदलाव का प्रतीक है।

कमजोर होता संगठन और घटती निष्ठा

आज से कुछ दशक पहले तक पार्टी कार्यकर्ता केवल प्रचारक नहीं थे, बल्कि वे हर मोहल्ले और घर-घर को जानने वाले, मतदाता सूचियों के अनौपचारिक ऑडिटर भी होते थे। वे दोहराव पकड़ते, समर्थकों को नौकरशाही प्रक्रियाओं से निकालकर ले जाते और सुनिश्चित करते कि कोई भी छूटे नहीं। अब यह ढांचा लगभग खत्म हो चुका है। पार्टी के प्रति निष्ठा लगातार घट रही हैं। स्थानीय कार्यकर्ता अब पहले जैसी जमीनी भूमिका नहीं निभाते। पार्टियां प्रोफेशनल कंसल्टेंट्स और डिजिटल रणनीतियों पर अधिक निर्भर हो गई हैं। इन नई रणनीतियों से बड़ी राजनीतिक कहानी तो गढ़ी जाती है, लेकिन वोटर लिस्ट जैसी सूक्ष्म निगरानी का काम इनमें लगभग गायब है।

मुद्दे की बात

पहले स्थानीय कार्यकर्ता सटीक और समावेशी मतदाता सूची सुनिश्चित करते थे।अब यह जिम्मेदारी डेटा डैशबोर्ड और वॉर-रूम पर है, जो छोटे-छोटे नामों की गलतियों या प्रवासी परिवारों की स्थिति को पहचान नहीं पाते।नतीजा यह है कि जब गड़बड़ी सामने आती है, तो राजनीतिक दल केवल “वोट चोरी” के नारे लगाते हैं, पर बूथ-स्तर पर सक्रिय रोकथाम की क्षमता खो चुके हैं।

राज्य-आधारित राजनीति

पहले राजनीति पड़ोस और व्यक्तिगत रिश्तों पर टिकी थी। कार्यकर्ता लगातार घर-घर जाकर सेवा, मदद और छोटे-छोटे संसाधनों के आदान-प्रदान के जरिये पार्टी निष्ठा बनाए रखते थे। आज इसका स्थान ले लिया है राज्य-आधारित कल्याण योजनाओं, चुनाव से पहले मिलने वाले कैश इंसेंटिव, और कंसल्टेंट-चालित प्रचार अभियानों ने। इस बदलाव ने कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के बीच की पारस्परिक जिम्मेदारी को कमजोर कर दिया है।

असर और अविश्वास

बिहार में आज जो हो रहा है, वह इस बदलाव की सीधी झलक है। मतदाता सूची में त्रुटियां और नाम कटने की शिकायतें तो हैं, लेकिन दल इन्हें रोकने के बजाय केवल राजनीतिक शोर मचा रहे हैं। चुनाव आयोग कहता है कि प्रक्रिया “सुधार योग्य” है, लेकिन सुधार तभी संभव है जब स्थानीय स्तर पर लोग आपत्तियां दर्ज कराएं, सुनवाई में जाएं और नाम वापस जुड़वाएं। और यही भूमिका, जो कभी पार्टी कार्यकर्ता निभाते थे, अब लगभग गायब है।

आगे का रास्ता

यह विवाद केवल एक तकनीकी मसला नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र की सामाजिक-संरचनात्मक कमजोरी का संकेत है।यह दिखाता है कि दल अब स्थायी और रिश्ते-आधारित नेटवर्क से हटकर क्षणिक, डिजिटल और कंसल्टेंट-प्रबंधित अभियानों पर टिक गए हैं। वोट चोरी का शोर वास्तविक सतर्कता और संस्थागत निगरानी की जगह ले रहा है।

अगर लोकतांत्रिक विश्वसनीयता को फिर से मजबूत करना है, तो पार्टियों को नए प्रकार की जमीनी जवाबदेही के मॉडल खोजने होंगे जो डिजिटल राजनीति और केंद्रीकृत योजनाओं के साथ संतुलित भी रहें और जनता के बीच भरोसा भी बहाल करें।

यह पूरा विवाद केवल बिहार की मतदाता सूची का नहीं है, बल्कि उस खालीपन का आईना है जो भारतीय राजनीति में कार्यकर्ता-आधारित ढांचे के कमजोर पड़ने से पैदा हुआ है।

(लेख में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक की हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करें।)

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