
क्या आज के डिजिटल युग में भाषा की गरिमा को बचाया जा सकता है? यह प्रश्न आसान नहीं है लेकिन असंभव भी नहीं है।
डिजिटल युग में भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं रही, बल्कि यह एक हथियार बन चुकी है—कभी ध्यान आकर्षित करने का, कभी उत्तेजना फैलाने का और कभी ध्रुवीकरण करने का। सोशल मीडिया और डिजिटल कंटेंट प्लेटफॉर्म्स पर भाषा का पतन जिस स्तर तक हो चुका है, उसे देखकर यही लगता है कि हम ‘भाषा के पाताललोक’ में प्रवेश कर चुके हैं। यह गिरावट केवल व्यक्तिगत अभिव्यक्ति की समस्या नहीं है, बल्कि समाज के बौद्धिक और नैतिक पतन का प्रतीक भी है।
यूट्यूब, इंस्टाग्राम, ट्विटर और अब शॉर्ट-फॉर्म वीडियो प्लेटफॉर्म्स पर जिस तरह से कंटेंट क्रिएटर्स और इन्फ्लुएंसर्स दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने के लिए भाषा का उपयोग कर रहे हैं, वह सोचने पर मजबूर करता है। शब्दों का चयन और भाषा की शुद्धता अब प्राथमिकता नहीं रही। ट्रेंडिंग और ‘वायरल’ होने की होड़ में गाली-गलौच, अश्लील संदर्भ, और उग्र अभिव्यक्तियां आम हो चुकी हैं। आज का डिजिटल युग इस प्रवृत्ति को न केवल बढ़ावा दे रहा है, बल्कि इसे ‘एंगेजमेंट’ का नया मानक भी बना रहा है। ज्यादा से ज्यादा लाइक्स, कमेंट्स और शेयर हासिल करने के लिए कंटेंट क्रिएटर्स ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं जो पहले सार्वजनिक संवाद में अस्वीकार्य मानी जाती थी।
आज डिजिटल स्पेस में दो प्रकार के प्रभावशाली वर्ग उभर चुके हैं—पहला, वे जो भाषा के स्तर को ऊपर उठाने का प्रयास कर रहे हैं और दूसरा, वे जो भाषा को और नीचे गिरा रहे हैं। दुर्भाग्यवश, दूसरा वर्ग ज्यादा लोकप्रिय होता जा रहा है, क्योंकि उत्तेजक भाषा और अपमानजनक शब्दावली की अपनी एक अलग व्यावसायिक ‘वैल्यू’ बन गई है। इसके कुछ उदाहरण हाल की चर्चित घटनाओं में देखे जा सकते हैं: कैरी मिनाटी के अनगिनत गाली-गलौंच के विवाद, जिसमें अभद्र भाषा का स्तर इतना गिरा कि लोगों ने इसे मनोरंजन मान लिया। इसी तरह, पंजाबी म्यूजिक इंडस्ट्री में भी अश्लील और हिंसक शब्दावली वाले गाने आम हो गए हैं, जिससे समाज में उग्र प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं। राजनीति में भी डिजिटल माध्यमों पर भाषा का स्तर गिरता जा रहा है, जहां सार्वजनिक बहसें तर्क की बजाय व्यक्तिगत हमलों और अपशब्दों पर केंद्रित हो गई हैं।
भाषा का यह अवमूल्यन सिर्फ व्यक्तिगत संवाद तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज की संपूर्ण मानसिकता को प्रभावित कर रहा है। जब अश्लील, आक्रामक और उग्र भाषा को सामान्य बना दिया जाता है तो यह समाज में कुछ गहरे बदलाव लाती है। लगातार अपमानजनक भाषा सुनने से लोगों की संवेदनशीलता घटती जाती है, जिससे वे तिरस्कार और असभ्यता को सामान्य मानने लगते हैं। युवा पीढ़ी इसे ‘कूल’ समझने लगी है, जिससे नैतिक पतन की एक नई लहर पैदा हो रही है। सार्वजनिक संवाद में ध्रुवीकरण बढ़ गया है, लोग संवाद करने के बजाय एक-दूसरे पर चिल्ला रहे हैं और तर्कशील बहस की जगह कटाक्ष और आक्रोश ने ले ली है। सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि भाषा के इस ह्रास के कारण हमारी बौद्धिक क्षमता भी कमजोर हो रही है—जब अभिव्यक्ति केवल उत्तेजक शब्दों पर निर्भर हो जाए तो गहराई से सोचने और समझने की प्रवृत्ति कम हो जाती है।
क्या आज के डिजिटल युग में भाषा की गरिमा को बचाया जा सकता है? यह प्रश्न आसान नहीं है लेकिन असंभव भी नहीं। इसके लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को अपनी नीतियां सख्त करनी होंगी, ताकि अभद्र और भड़काऊ भाषा को बढ़ावा न मिले। कंटेंट क्रिएटर्स को यह समझना होगा कि उनकी भाषा केवल व्यूअरशिप नहीं, बल्कि समाज को भी प्रभावित करती है. इसलिए उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वे अपनी अभिव्यक्ति के प्रति सजग रहें। शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है, ताकि नई पीढ़ी भाषा की महत्ता को समझे और उसे एक सांस्कृतिक धरोहर की तरह संजोए। साथ ही, साहित्य, सिनेमा और कला को ऐसी भाषा को पुनर्जीवित करने की जरूरत है जो मनोरंजक होने के साथ-साथ मर्यादित भी हो। भाषा किसी भी समाज की आत्मा होती है। यदि भाषा गिरती है, तो समाज भी पतन की ओर बढ़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि ‘भाषा के पाताललोक’ से बाहर निकलकर हम भाषा की शुद्धता, गरिमा और प्रभावशीलता को पुनर्स्थापित करें। हमें यह समझना होगा कि भाषा केवल शब्दों का मेल नहीं, बल्कि संस्कृति और विचारधारा का प्रतिबिंब है।