Nilanjan Mukhopadhyay

दिव्या गौतम: महज सुशांत सिंह राजपूत की कजिन नहीं, बदलाव की है आवाज


दिव्या गौतम: महज सुशांत सिंह राजपूत की कजिन नहीं, बदलाव की है आवाज
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हो सकता है दिव्या गौतम यह चुनाव न जीतें, लेकिन वह पहले ही नैतिक और वैचारिक रूप से जीत चुकी हैं। वह भारत की उस नई पीढ़ी की प्रतिनिधि हैं, जो राजनीति को सिर्फ सत्ता नहीं, सेवा और समानता का माध्यम मानती है।

बिहार विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद शायद दिव्या गौतम नाम ज़्यादा चर्चा में न रहे। लेकिन पिछले कुछ दिनों में आई खबरों ने साफ कर दिया है कि यह युवा महिला भारत में उम्मीद और बदलाव का प्रतीक बन चुकी हैं।

राजनीति में बिना पारिवारिक पृष्ठभूमि के प्रवेश

दिव्या गौतम का राजनीति से कोई पारिवारिक रिश्ता नहीं है। वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन की उम्मीदवार हैं, जिन्हें महागठबंधन ने पटना की शहरी सीट दीघा से बीजेपी के दो बार के विधायक संजीव चौरसिया के खिलाफ मैदान में उतारा है। यह दिलचस्प है कि बीजेपी, जो वंशवाद के खिलाफ अभियान चलाती रही है, ने यहां अपने वरिष्ठ नेता और सिक्किम के पूर्व राज्यपाल गंगा प्रसाद के बेटे को उम्मीदवार बनाया है। दूसरी ओर दिव्या के परिवार में राजनीति से जुड़ा कोई बड़ा नाम नहीं है — वह सिर्फ अपने विचार और मेहनत के दम पर मैदान में उतरी हैं।

पितृसत्तात्मक समाज में महिला उम्मीदवार की चुनौती

बिहार जैसे पितृसत्तात्मक राज्य में महिला के लिए राजनीति में उतरना अब भी बड़ी चुनौती है। जब दिव्या की उम्मीदवारी की घोषणा हुई तो मीडिया ने उनकी पहचान एक “महिला उम्मीदवार” या “युवा चेहरा” के रूप में नहीं, बल्कि “सुशांत सिंह राजपूत की कज़िन” के रूप में बताई। यह दिखाता है कि आज भी समाज किसी महिला की पहचान किसी पुरुष के रिश्ते से जोड़कर ही पूरी मानता है — चाहे वह मां, बहन, पत्नी या बेटी के रूप में ही क्यों न हो।

राजनीति से पहले का सफर और वैचारिक झुकाव

दिव्या गौतम की पहचान एक वैचारिक युवती के रूप में भी है। कॉलेज के दिनों में उन्होंने “सिनेमा ऑफ़ रेज़िस्टेंस” जैसे आयोजनों में हिस्सा लिया और सामाजिक-राजनीतिक फिल्मों से प्रेरित होकर बदलाव की राह चुनी। उन्होंने न सिर्फ़ सरकारी नौकरी या अध्यापन जैसे ‘स्थिर जीवन’ के विकल्पों को छोड़ा, बल्कि सक्रिय राजनीति को अपनाया — वह भी एक ऐसे समय में जब आलोचनात्मक सोच रखने वालों को ‘अर्बन नक्सल’ या ‘देशद्रोही’ कहकर निशाना बनाया जाता है।

छात्र राजनीति से जन राजनीति तक का सफर

दिव्या ने अपने कॉलेज जीवन में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (AISA) के साथ सक्रिय भूमिका निभाई और छात्र संघ अध्यक्ष पद के लिए भी चुनाव लड़ा। हालांकि वे उस वक्त नहीं जीत सकीं, लेकिन यह अनुभव उन्हें मुख्यधारा की राजनीति में लेकर आया। अब वह CPI (ML) लिबरेशन की प्रत्याशी हैं — उसी सीट से जहां 2020 में उनके पार्टी उम्मीदवार को बीजेपी के संजीव चौरसिया ने लगभग 50,000 वोटों से हराया था।

बदलाव की उम्मीद और एक नई सोच

दिव्या की राह आसान नहीं है। लेकिन उनका चुनाव लड़ना ही एक संदेश है कि आज भी युवा महिलाएं अपने दम पर राजनीति में नई दिशा दे सकती हैं। वह सिर्फ़ एक उम्मीदवार नहीं, बल्कि लोकतंत्र में संतुलन और साहस की प्रतीक हैं — जो सत्ता के दबाव से डरने के बजाय अपने विचारों पर डटी रहती हैं। उनकी उम्मीदवारी यह साबित करती है कि भारत में अब भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो ‘क्यों’ पूछने की हिम्मत रखते हैं और बदलाव के लिए खड़े होते हैं।

(फेडरल सभी पक्षों के विचारों और राय को प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। लेखों में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक की हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करें।)

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