अर्थशास्त्रियों को बदलनी होगी अपनी सोच, उपभोग को मापने का सीखना होगा तरीका
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अर्थशास्त्रियों को बदलनी होगी अपनी सोच, उपभोग को मापने का सीखना होगा तरीका

मुख्यधारा का अर्थशास्त्र उन परिवारों को समझने में असमर्थ नजर आता है जो बिना बजट, बिना नियमित आमदनी और बिना किसी निश्चित खर्च योजना के जीवनयापन कर रहे हैं।


‘खरीदारी की आवृत्ति’ (frequency of purchase) को एक आर्थिक संकेतक के रूप में देखने का अर्थ है एक नियमित दिनचर्या, कुछ स्थिरता – जो ग्रामीण गरीबों की वास्तविकता के अनुरूप नहीं बैठती।

मैं एक शहरी लड़की हूं। ग्रामीण जीवन से मेरा पहला करीबी सामना तब हुआ जब मैंने कुछ साल पहले मध्य प्रदेश के गांवों में नीति अनुसंधान परियोजना के लिए प्राथमिक आंकड़े इकट्ठा किए।

यह अध्ययन मध्य प्रदेश सरकार के अनुरोध पर किया गया था, जिसमें आदिवासी महिलाओं की पोषण स्थिति पर “आहार अनुदान योजना” के प्रभाव को जांचना था। यह परियोजना डॉ. बीआर अंबेडकर स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु द्वारा संचालित थी। योजना को तब पांच साल हो चुके थे।

इस अनुभव ने मुझे पहली बार उस चुनौती की ओर ध्यान दिलाया, जो ऐसे लोगों के उपभोग को मापने में आती है जिनकी आमदनी न सिर्फ अनियमित है, बल्कि बहुत कम भी है।

खाद्य खरीद की आवृत्ति का सवाल

सर्वेक्षण प्रश्नावली में एक हिस्सा यह पूछने के लिए था कि वे कितनी बार आलू, गेहूं या दूध खरीदते हैं। ग्रामीण गरीबों का 'बजट' बहुत छोटा और अनियमित होता है, और खर्च का निर्णय केवल एक ही मानदंड पर आधारित होता है – बचाव (survival)।

जवाबों के अनुसार हमें एक तालिका में टिक करना था – कभी नहीं, रोज़, सप्ताह में दो बार, महीने में एक बार आदि। साथ ही, खरीदी गई मात्रा भी लिखनी होती थी। हमने कभी यह नहीं सोचा कि इस तरह सवाल पूछने का तरीका ही गलत हो सकता है। यह सबको स्वाभाविक और वैज्ञानिक लगा।

लेकिन जब हम गांव में गए, हर जवाब था: "और क्या?" (होर क्या?)

हर परिवार ने यही कहा। हमारे फॉर्म में “और क्या” का कोई कॉलम नहीं था। फिर भी हम जबरन कोशिश करते रहे कि कोई "सटीक" उत्तर मिल जाए।

हमने NSSO के सुझावों के अनुसार सवालों को हाल की खरीद पर केंद्रित किया। लेकिन जवाब अब भी यही थे।

“पैसे हों तो खरीद लेते हैं”, “अगर बाजार में जाऊं और कुछ ज़रूरत का मिल जाए तो ले लेती हूं”, “अगर दाम ठीक हो तो ले लेती हूं”।

कोई ठोस आंकड़ा नहीं मिला। हमारा ऐप खाली रह गया। अर्थशास्त्र की 25 साल की पढ़ाई इन उत्तरों को समझाने में असफल रही।

दो मूलभूत समस्याएं

ज्ञानात्मक चुनौती (Cognitive Demand)

आवृत्ति को याद करना एक खास प्रकार का बौद्धिक अभ्यास है, जो औपचारिक शिक्षा से आता है। ग्रामीण गरीबों के पास न इसके लिए प्रशिक्षण है, न ज़रूरत। यह हमारे जैसे औपचारिक रूप से शिक्षित लोगों की सोच है।

आय का अस्थायित्व (Intermittent Income)

आदिवासी परिवारों की आय मौसमी होती है, और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों पर निर्भर करती है। वे शायद ही कभी इस बात पर ध्यान देते हैं कि कितनी बार कुछ खरीदा गया।

जवाबों में छिपे ‘होर क्या’ की गूंज इस बात की ओर इशारा करती है कि ये लोग मानसिक ऊर्जा बचा रहे हैं ताकि अनिश्चित आमदनी से स्थायी भोजन व्यवस्था हो सके।

आदर्श बनाम यथार्थ

आर्थिक सिद्धांत कहता है कि लोग ‘तार्किक’ (rational) फैसले लेते हैं – यानी वो जो उनकी प्राथमिकता और आमदनी के मेल से बनता हो। लेकिन ग्रामीण गरीबों के लिए यह आदर्श पूरी तरह से उलट है।

इनका बजट इतना अस्थिर और छोटा होता है कि कोई औपचारिक बजट लाइन ही नहीं बनती। ये तय करते हैं:

क्या ज़रूरत है? क्या उपलब्ध है? क्या खरीदना संभव है? और इन तीन बातों का लक्ष्य सिर्फ एक होता है- ज़िंदा रहना।

टूटे हुए आर्थिक सिद्धांत

ग्रामीण दुकानों में अक्सर छोटे पैकेट मिलते हैं, जैसे शैम्पू की सैशे – यही कारण है कि गरीब व्यक्ति जरूरत पड़ने पर छोटा पैक खरीदता है, न कि बड़ी बोतल।

लेकिन अर्थशास्त्र अब भी यह मान कर चलता है कि हर कोई एक व्यवस्थित बजट और तय प्राथमिकताओं के आधार पर खर्च करता है। हकीकत यह है कि ये परिवार बिना किसी निश्चित आमदनी, बिना खर्च योजना के, फिर भी जिंदा हैं, फल-फूल रहे हैं। मुख्यधारा का अर्थशास्त्र इस तरह के व्यवहार को ‘तार्किक’ मानने को तैयार नहीं।

होर क्या? सीखिए कुछ!

दशकों से, प्रोफेसर अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों ने नए मॉडलिंग तरीकों की बात की है, जो वास्तविक जीवन के व्यवहारों को समायोजित कर सकें।

क्यों नये अर्थशास्त्र में यह मान लिया जाए कि जीवन की जटिलताओं में ढली हुई स्थानीय समझ भी ‘तार्किक’ है? शायद अर्थशास्त्रियों को इन लचीले, समझदार, जुझारू आदिवासियों से कुछ सीखने की ज़रूरत है – होर क्या?


(यह लेख The Federal द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसमें व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)

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