Ranga Rao

संविधान बनाम राजनीति, क्या हमने अपने सिद्धांतों को भूल दिया?


संविधान बनाम राजनीति, क्या हमने अपने सिद्धांतों को भूल दिया?
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1083 दिनों की मेहनत से बना भारतीय संविधान आज राजनीति, संस्थाओं और समाज की चुनौतियों के बीच नए सवाल खड़ा करता है। क्या हम इसकी मूल भावना निभा पा रहे हैं?

भारत की संविधान सभा ने 9 दिसंबर 1946 को अपनी पहली बैठक की और 26 नवंबर 1949 को अपना ऐतिहासिक काम पूरा किया। कुल 1,083 दिनों की चर्चा, बहस और गहन विचार-विमर्श के बाद स्वतंत्र भारत के लिए संविधान तैयार किया गया। संविधान सभा कैबिनेट मिशन योजना का हिस्सा थी। स्वतंत्रता की तेज़ होती मांग को देखते हुए ब्रिटिश सरकार समझ चुकी थी कि अब भारत से विदा लेने का समय आ गया है। इसी दिशा में तीन ब्रिटिश कैबिनेट मंत्रियों—पैथिक लॉरेंस, स्टैफर्ड क्रिप्स और ए.वी. अलेक्ज़ेंडर—को भारत भेजा गया। मिशन के दो मुख्य उद्देश्य थे: स्वतंत्र भारत के लिए संविधान सभा का गठन और उसी संविधान सभा से एक अंतरिम सरकार की स्थापना।

यद्यपि मिशन के कई प्रस्तावों को स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने अस्वीकार कर दिया, लेकिन उसके दो मुख्य विचार साकार हुए—संविधान सभा की स्थापना और जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन, जिसने 2 सितंबर 1946 को शपथ ली।

संविधान का निर्माण और संविधान सभा का स्वरूप

संविधान सभा का औपचारिक कामकाज 9 दिसंबर 1946 से शुरू हुआ। बाद में स्वतंत्र भारत में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित पहले आम चुनावों के आयोजन तक यही सभा अस्थायी संसद के रूप में कार्य करती रही—भारतीय इतिहास में 5,000 वर्षों में पहली बार ऐसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया देखी गई।

संविधान सभा में चुने हुए और नामांकित, दोनों प्रकार के सदस्य थे, जो अलग-अलग विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते थे। अनेक स्वतंत्रता सेनानी और बुद्धिजीवी इसका हिस्सा थे, जिन्होंने बहसों और प्रस्तावों को अत्यंत समृद्ध बनाया। विभिन्न विषयों पर बनी उप-समितियाँ अपने सुझाव तैयार करती थीं, और इन्हें डॉ. भीमराव आंबेडकर की अध्यक्षता वाली प्रारूप समिति कानूनी रूप देने का काम करती थी। उप-समितियों के प्रस्तावों पर गहन चर्चा, संशोधन और बहस के बाद संविधान का वह मसौदा तैयार हुआ, जिसे 26 नवंबर 1949 को अंगीकृत किया गया।

1950 में जब संविधान 26 जनवरी को लागू हुआ, भारत एक गणराज्य बना—इतिहास में पहली बार एक निर्वाचित राष्ट्राध्यक्ष वाला देश।

संविधान दिवस का जन्म

भले ही 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस बड़े आयोजन के साथ मनाया जाता है, लेकिन 26 नवंबर—जिस दिन संविधान अंगीकृत हुआ—को लंबे समय तक राष्ट्रीय कैलेंडर में कोई स्थान नहीं मिला। 2015 में केंद्र सरकार ने पहली बार इसे “संविधान दिवस” या “संविधान दिवस/सम्विधान दिवस” के रूप में मनाने की घोषणा की।

यह पहल सराहनीय है, पर आश्चर्य यह है कि संविधान दिवस का आयोजन सामाजिक न्याय मंत्रालय करता है, जबकि संविधान विधि मंत्रालय के अधीन आता है। उद्देश्य कहीं न कहीं दलित समुदाय को साधने का प्रतीत होता है, न कि संविधान को उसके वास्तविक संरक्षक के पास रखना।

प्रतीकवाद बनाम सार्थकता

देशभर के स्कूल-कॉलेजों में इस दिन प्रस्तावना, मौलिक अधिकारों, राज्य के नीति-निदेशक तत्वों और मौलिक कर्तव्यों पर चर्चा होती है। पर क्या इतना पर्याप्त है? क्या केवल एक दिन बच्चों को पढ़ाने से संविधान के प्रति सम्मान या जागरूकता बढ़ती है?

हम कब प्रतीकों से आगे बढ़कर सार पर ध्यान देंगे?

संविधान को उच्च शिक्षा—इंजीनियरिंग, चिकित्सा, प्रबंधन—के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। समस्या यह है कि न तो शिक्षक इतने सक्षम हैं कि संविधान की गहराई समझा सकें और न ही कम उम्र के छात्र उसे आत्मसात करने की परिपक्वता रखते हैं।

संविधान: केवल कानूनी दस्तावेज नहीं, एक आस्था-पत्र

संविधान गांधी, नेहरू, आंबेडकर जैसे दूरदर्शी चिंतकों की बुद्धि और अनुभव का निचोड़ है। इसने जाति, धर्म, लिंग और वर्ग पर आधारित हजारों वर्षों पुरानी असमानताओं को मिटाने की दिशा में निर्णायक कदम उठाया। इसी संविधान ने सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और न्याय का वादा किया—'हम भारत के लोग' को पहली बार एक समान आधार पर खड़ा किया।

प्रस्तावना का पाठ स्कूल की प्रार्थना में क्यों नहीं शामिल किया जाता?

उच्च शिक्षा में प्रवेश लेने वाले छात्रों से संविधान की प्रस्तावना क्यों नहीं पढ़वाई जाती?

कितने अभिभावक अपने बच्चों को संविधान की प्रति उपहार में देते हैं—जबकि इसकी कीमत मल्टीप्लेक्स की एक टिकट से भी कम है?

दुर्भाग्य है कि हम संविधान को तब ही याद करते हैं जब हमारे अधिकारों का हनन होता है।

राजनीति का मोहरा बनता संविधान

आज राजनीति का दबदबा इतना बढ़ चुका है कि संविधान और इसके संस्थानों पर दबाव लगातार बढ़ रहा है। संसद और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं की स्वतंत्रता कमज़ोर पड़ती दिख रही है। चुनाव आयोग सबसे बड़ा पीड़ित बनकर उभरा है।

सत्ता पक्ष को विपक्ष की बातों की परवाह नहीं, और विपक्ष को लगता है कि विरोध ही उसका धर्म है। ऐसे माहौल में सहमति और संविधान की भावना कहाँ टिकेगी?

मीडिया, जो लोकतंत्र की निगरानी करने वाली ताकत माना जाता था, आज बड़े उद्योग घरानों का उपकरण बन चुका है। लोग "प्रेस की स्वतंत्रता" से ज्यादा "प्रेस से स्वतंत्रता" चाहते हैं।

अंततः अदालतें भी मौजूदा राजनीतिक रंगमंच की मूक दर्शक बनती दिखाई दे रही हैं।

क्या संविधान विफल हुआ? या हम?

अक्सर हम संविधान को दोष देते हैं, पर संविधान तो एक जीवंत दस्तावेज है—उसकी प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करती है कि हम उसे कैसे लागू करते हैं।

मौलिक अधिकार सभी नागरिकों को मिले हैं, लेकिन असल लाभ सिर्फ शिक्षित, समृद्ध और प्रभावशाली वर्ग तक सीमित है।

रिक्शा चालक, खेत मजदूर, घरेलू कामगार—इनके लिए मौलिक अधिकारों का क्या अर्थ रह जाता है जब रोज़गार की चिंता ही सबकुछ हो?

जब लोग जिला मुख्यालय तक नहीं जा पाते, तो वे हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा कैसे खटखटाएँगे? संविधान की जानकारी भी उन्हें नहीं होती।

संविधान और राजनीति की दुश्मनी

केंद्र की सत्ता में बैठे दल की विचारधारा के कारण कई लोग मानते हैं कि संविधान और उससे बनी संस्थाएँ दबाव में हैं।

जब हर मुद्दा राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है, तब राष्ट्रीय सहमति संभव ही नहीं रहती।

जनता वोट बेचती है—क्या यह लोकतंत्र के साथ धोखा नहीं?

चुनावों में धन और बाहुबल का बढ़ता प्रभाव लोकतंत्र का मखौल उड़ा रहा है।

मीडिया पंगु हो चुका है।

सत्ता और विपक्ष दोनों अपनी भूमिका भूल चुके हैं।

ऐसी परिस्थितियों में संविधान दिवस मनाना—उत्सव है या आत्ममंथन का अवसर?

अंत में

संविधान दिवस सार्वजनिक अवकाश नहीं है—यह अच्छी बात है। छुट्टी होती तो लोग इसे पिकनिक या फिल्म देखने में बिताते।

कम से कम यह एक ऐसा दिन है जब हम आराम करने के बजाय विचार कर सकते हैं—हम कहाँ चूके? संविधान हमारा कितना साथ दे रहा है? और हम संविधान का कितना सम्मान कर पा रहे हैं?

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