भारत के दक्षिणी और उत्तरी राज्य जनसंख्या को लेकर हैं चिंतित, लेकिन कारण हैं अलग-अलग
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भारत के दक्षिणी और उत्तरी राज्य जनसंख्या को लेकर हैं चिंतित, लेकिन कारण हैं अलग-अलग

आंध्र प्रदेश ने स्थानीय निकाय चुनाव लड़ने के लिए दो बच्चों के मानदंड को समाप्त करने का निर्णय लिया है. यह कदम उत्तरी राज्यों की प्रवृत्ति के विपरीत है


India Population: दक्षिणी राज्य आंध्र प्रदेश ने स्थानीय निकाय चुनाव लड़ने के लिए दो बच्चों के मानदंड को समाप्त करने का साहसिक निर्णय लिया है. यह कदम उत्तरी राज्यों की प्रवृत्ति के विपरीत है, जहां जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश लगाने के लिए दो बच्चों का मानदंड लागू करने की मांग की जा रही है.

दक्षिणी राज्यों को एक अनोखी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. परिसीमन स्थगन 2026 में समाप्त होने वाला है. इसलिए उन्हें डर है कि संसद में उनका प्रतिनिधित्व कम हो सकता है. इसके अलावा, उन्हें चिंता है कि केंद्रीय निधि में उनका हिस्सा घट सकता है. क्योंकि ये आवंटन जनसंख्या संख्या से जुड़े हैं.

दक्षिणी राज्यों का मानना है कि उन्हें प्रभावी जनसंख्या प्रबंधन के लिए "दंडित" किया जा रहा है. क्योंकि दो कदमों परिसीमन प्रक्रिया और वित्त आयोगों के विचारार्थ विषय के कारण केंद्रीय निधियों में उनकी हिस्सेदारी और संसद में उनकी सीटों में कमी हो सकती है. आंध्र प्रदेश ही अकेला ऐसा राज्य नहीं है, जो इस समस्या से जूझ रहा है. तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल जैसे अन्य दक्षिणी राज्य भी जनसांख्यिकीय बदलावों से जूझ रहे हैं.

तीव्र परिवर्तन

दक्षिणी राज्यों में प्रजनन दर उत्तरी राज्यों की तुलना में कम है. आंध्र प्रदेश में औसत टीएफआर (कुल प्रजनन दर, या प्रति महिला जन्म) 1.5 है, जो राष्ट्रीय औसत 2 से कम है. 'उत्पादक जनसंख्या' में गिरावट राज्य की आर्थिक वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है. इन राज्यों की जनसांख्यिकी भी तेजी से बदल रही है. 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों का प्रतिशत बढ़ रहा है. आंध्र प्रदेश में पहले से ही 11 प्रतिशत बुजुर्ग आबादी है, जिसके 2047 तक बढ़कर 19 प्रतिशत होने की उम्मीद है. वर्तमान में कुल जनसंख्या में बुजुर्गों का राष्ट्रीय औसत 10 प्रतिशत है और यह 2047 तक बढ़कर 15 प्रतिशत हो सकता है.

उत्पादक कार्यबल

वर्तमान में भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश है, जिसकी अनुमानित जनसंख्या 1.44 बिलियन है. यह भारत के लिए फ़ायदेमंद है. क्योंकि इसकी आबादी बढ़ती उम्र वाली दुनिया में सबसे युवा है. अर्थशास्त्री किसी राष्ट्र के लिए 'उत्पादक कार्यबल' की उपलब्धता को उसके 'जनसांख्यिकीय लाभांश' के रूप में परिभाषित करते हैं, जहां कार्यशील आयु वर्ग (15-64 वर्ष) की आबादी का हिस्सा गैर-कार्यशील आयु वर्ग की तुलना में अधिक है. साल 2022 में भारत की औसत आयु 28 वर्ष होगी. जबकि चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका में यह 37, पश्चिमी यूरोप में 45 और जापान में 49 वर्ष होगी.

हालांकि, यह जनसांख्यिकीय लाभांश हमेशा के लिए नहीं रहेगा. क्योंकि 2040 तक कार्यशील आयु वर्ग की आबादी कम हो जाने की उम्मीद है. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे उत्तरी राज्यों की औसत आयु दक्षिण के राज्यों से कम है. 2036 तक, जब बिहार की औसत आयु 28 वर्ष होने का अनुमान है, दक्षिण में यह 40 के आसपास होने की संभावना है.

असमान परिवर्तन

भारत में जनसांख्यिकीय परिवर्तन एक समान नहीं हैं. केरल अन्य राज्यों की तुलना में तेजी से वृद्ध हो रहा है. जबकि बिहार 2051 में ही अपने चरम पर पहुंचेगा. 2031 तक केरल सहित 22 बड़े राज्यों में से कम से कम 11 राज्यों की वृद्धावस्था अन्य राज्यों की तुलना में तेजी से बढ़ने की आशंका है. जन्म दर में गिरावट जनसांख्यिकीय परिवर्तनों में योगदान देने वाला एक और कारक है. 1980 के दशक के बाद से भारत की प्रजनन दर लगभग आधी हो गई है और वर्तमान TFR 2 पर है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 5 (NFHS-5, 2019-21) के अनुसार, भारत की प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर 2.1 से कम है. इस समय एक सकारात्मक बात यह है कि कामकाजी आयु वर्ग की आबादी बढ़ रही है. हालांकि, औसत भ्रामक हो सकते हैं. यह घटना पूरे भारत में एक समान नहीं है. सात राज्यों में उच्च टीएफआर है: बिहार (3.6), एमपी (3.1), राजस्थान (3.0), झारखंड (2.9), छत्तीसगढ़ (2.7), और असम (2.4)। व्यापक अंतर-राज्यीय भिन्नताओं का मतलब है कि जनसांख्यिकीय लाभांश अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग समय पर उपलब्ध है.

सांप्रदायिक मुद्दा

शिक्षित और बेहतर स्थिति वाले लोगों की तुलना में गरीबों की वृद्धि दर अधिक है. बिहार "बहुआयामी" रूप से गरीब है और कुछ उप-सहारा देशों के बराबर है. राजनेता स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान देने के बजाय इस मुद्दे को सांप्रदायिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं. भाजपा और दक्षिणपंथी राजनेता मुसलमानों को निशाना बनाकर गैर-जिम्मेदाराना बयान देते रहे हैं. लेकिन हकीकत में मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या वृद्धि दर बहुत तेजी से गिर रही है. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी के अनुसार, 2001-11 के दशक में हिंदुओं की वृद्धि दर 19.2 प्रतिशत से घटकर 16.76 प्रतिशत हो गई. जबकि इसी अवधि में मुसलमानों की वृद्धि दर 29.42 प्रतिशत से घटकर 14.6 प्रतिशत हो गई है.

राजनेताओं को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए. अफ़सोस की बात है कि असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने मुसलमानों से अपनी जनसंख्या नियंत्रित करने को कहा है और कहा है कि जब तक ऐसा नहीं किया जाता, “गरीबी कभी कम नहीं हो सकती”.

भोपाल से पूर्व सांसद साध्वी प्रज्ञा ने पहले पूरे भारत में दो बच्चों के मानदंड की सिफारिश की थी और कहा था कि “बांग्लादेशी और रोहिंग्या” “घुसपैठिए” हैं और भारत के सीमित संसाधनों पर बोझ हैं. वास्तव में बांग्लादेश की स्थिति भारत से बेहतर है. क्योंकि उनकी कुल प्रजनन दर 1.98 है.

सामाजिक जागरूकता

दक्षिणी राज्य दबावपूर्ण उपायों के स्थान पर सामाजिक जागरूकता पैदा करके परिवार के आकार को नियंत्रित करने में सफल रहे हैं. उन्होंने प्रजनन स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित किया. लोगों को गर्भनिरोधक उपायों और व्यक्तिगत स्वच्छता के बारे में शिक्षित किया. स्टडी से पता चलता है कि दो बच्चों के मानदंड लागू करना और उल्लंघन करने वालों को राज्य प्रायोजित सामाजिक लाभों से वंचित करना अक्सर सफल नहीं रहा है. इसके विपरीत, इससे महिलाओं को नुकसान हुआ. उत्तरी राज्यों के राजनीतिक वर्ग को "हिंदू खतरे में हैं" का झूठा प्रचार करने के बजाय स्वास्थ्य और शिक्षा में सुधार लाने वाली नीतियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. जब तक ऐसा नहीं किया जाता, भारत को विकासशील राष्ट्र से विकसित राष्ट्र बनाने की इच्छा एक दूर का सपना ही बनी रहेगी.

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