Kanimozhi Rabri Devi K Kavitha
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कनिमोझी, कल्पना सोरेन और राबड़ी देवी

झांसी की रानी से कनिमोझी या कल्पना सोरेन तक, राजनीति में महिला नेता शायद ही होती हैं प्लान 'ए' का हिस्सा

नेताओं को समझना होगा कि अगर महिलाएं, चाहे घर की हों या आम जनता की, बराबरी से राजनीति में आगे बढ़ें, तो देश और पार्टियों दोनों का ही भला होता है।


इंदिरा गांधी या जयललिता जैसी कुछ नेता भले ही सत्ता में टिक पाईं, पर उनके मुकाबले सैकड़ों महिला रिश्तेदार केवल उस वक्त सामने आईं जब किसी पुरुष राजनेता पर संकट आया। बेटा वारिस होता है, बेटी बस ‘रिजर्व’।

हम सभी ने बहादुर भारतीय रानियों की कहानियाँ सुनते हुए बड़े हुए हैं, जिन्होंने बुद्धिमानी से शासन किया और दुश्मनों से वीरता से लड़ीं। फिर भी, चाहे वह झांसी की रानी हों, रानी चेनम्मा हों या वेलु नचियार — इन सभी की सत्ता में चढ़ाई आपातकालीन परिस्थितियों में हुई। आमतौर पर पति या पिता की मृत्यु हो गई होती थी और कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं होता था। 21वीं सदी में आकर भी तस्वीर बहुत नहीं बदली।

ताजा उदाहरण कल्पना सोरेन का है। एक योग्य इंजीनियर और उद्यमी, जो निजी जीवन जी रही थीं। जब उनके पति और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ईडी मामले में गिरफ्तार किया गया, तो वह अचानक झामुमो (JMM) का चेहरा बन गईं और 2024 के लोकसभा चुनावों में इंडिया गठबंधन की ओर से प्रचार करती दिखीं। बाद में उन्होंने विधानसभा चुनाव भी जीता। लेकिन जैसे ही हेमंत जेल से बाहर आए और मुख्यमंत्री बने, कल्पना फिर से पृष्ठभूमि में चली गईं।

आवश्यकता पड़ने पर इस्तेमाल, फिर किनारे

ऐसे ही पहले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की पत्नी नारा भुवनेश्वरी का उदाहरण है। 2023 में नायडू जब स्किल डेवलपमेंट घोटाले में जेल गए, तो टीडीपी को भुवनेश्वरी की ज़रूरत पड़ी। उन्होंने सड़कों पर उतरकर लोगों से मुलाकात की और पार्टी को संभाले रखा। 2024 में जब नायडू फिर से मुख्यमंत्री बने, भुवनेश्वरी रिबन काटने जैसी गैर-राजनीतिक भूमिकाओं में लौट गईं।

वह एनटी रामाराव (NTR) की बेटी हैं, जिन्हें नायडू ने 1995 में सत्ता से हटा दिया था — कथित तौर पर इस डर से कि एनटीआर की युवा पत्नी लक्ष्मी पार्वती का उदय पुरुष अहं को पच नहीं रहा था।

गृहिणी से मुख्यमंत्री बनी राबड़ी देवी — जब 1997 में लालू यादव चारा घोटाले में जेल गए, तो राबड़ी देवी अचानक बिहार की मुख्यमंत्री बन गईं। हालांकि वह तीन कार्यकालों में कुल आठ साल तक मुख्यमंत्री रहीं, लेकिन उन्हें हमेशा “स्थानापन्न” मुख्यमंत्री के रूप में ही देखा गया।

शायद ही कभी कोई महिला राजनीतिक उत्तराधिकारी शुरू से ही तराशकर तैयार की जाती है। आम तौर पर तभी उन्हें सामने लाया जाता है जब कोई पुरुष नेता बीमार पड़े, मरे या जेल चला जाए। वह महत्वाकांक्षी नहीं होनी चाहिए, फैसले अकेले नहीं लेने चाहिए और सबको याद दिलाते रहना चाहिए कि वह बस एक ‘रिज़र्व’ हैं। और जैसे ही पुरुष नेता लौटे, वह विनम्रता से हट जाए। इसीलिए पुरुष नेताओं को महिला रिश्तेदारों को कुर्सी गर्म करने देना आसान लगता है। क्योंकि अगर कोई पुरुष ‘स्थानापन्न’ बने, तो वह शायद महत्वाकांक्षी हो जाए।

महत्वाकांक्षा की उड़ान

हेमंत सोरेन की गैरहाजिरी में झारखंड के मुख्यमंत्री बने चंपई सोरेन को ही देखिए। जब हेमंत जमानत पर बाहर आए, तो चंपई पीछे हटने को तैयार नहीं थे। या फिर जीतन राम मांझी, जो 2014 में मुख्यमंत्री बने — जिसे नीतीश कुमार द्वारा रचा गया एक नाटकीय ‘स्थानापन्न खेल’ कहा गया। जब 10 महीने बाद उन्हें इस्तीफा देने को कहा गया, मांझी ने विद्रोह कर दिया, नई पार्टी (HAM-S) बनाई और एनडीए में शामिल हो गए। आज वह केंद्रीय मंत्री हैं, पर मुख्यमंत्री वाली रौशनी उनसे दूर है। दक्षिण भारत में पट्टाली मक्कल काची (PMK) में भी रामदास और उनके बेटे अन्बुमणि के बीच सत्ता संघर्ष जारी है।

पिता की ‘प्यारी बेटियां’

भारतीय राजनीति में कितनी बेटियों ने अपने पिता के खिलाफ बगावत की है? अधिकतर संघर्ष तो भाई-बहनों के बीच होते हैं जैसे वाईएस शर्मिला बनाम वाईएस जगनमोहन रेड्डी।

दूसरी ओर हैं कनिमोझी, जो 2G घोटाले में छह महीने तिहाड़ जेल में रहीं। उनके पिता करुणानिधि के किसी बेटे को ऐसी सज़ा नहीं मिली। आज कनिमोझी पढ़ी-लिखी, तेज और अनुभवशील नेता हैं, लेकिन अगर उन्होंने ज़्यादा महत्वाकांक्षा दिखाई, तो पार्टी उन्हें बर्दाश्त नहीं करेगी। उत्तराधिकारी तो सिर्फ उधयनिधि स्टालिन ही हैं जो अभी खुद भी शुरुआत में अनिच्छुक थे।

तेलंगाना के के चंद्रशेखर राव की बेटी के कविता भी दिल्ली शराब घोटाले में जेल जा चुकी हैं। वह आज अपनी पार्टी से नाराजगी जाहिर कर रही हैं, लेकिन पिता पर चुप हैं।

‘पहला विकल्प’ फिर भी बेटे ही

लालू प्रसाद के कई बच्चों में भी सिर्फ तेज प्रताप और तेजस्वी यादव को सत्ता मिली। तेज प्रताप को काफी बार मौका मिला, लेकिन जब बात हद से बाहर चली गई, तब जाकर लालू ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया। वहीं बेटी रोहिणी आचार्य ने उन्हें किडनी तक दी, और कहा, “पापा भगवान हैं, परिवार मंदिर है।” लेकिन फिर भी रोहिणी या मीसा भारती की चुनावी हार-जीत से उनकी पार्टी में कोई असल फर्क नहीं पड़ता।

राजनीतिक वंशवाद की आलोचना और समर्थन भले हो, पर इस पर कम चर्चा होती है कि इन्हीं परिवारों में महिलाएं भी किस तरह उपेक्षित रहती हैं। वह हमेशा “घर की लक्ष्मी” होती हैं जो जरूरत पर दुर्गा बनती है।

महिलाएं जो टिक पाईं

बहुत कम महिलाएं ऐसी हैं जो आपातकाल में सत्ता में आईं और बनी रहीं। सोनिया गांधी ने राजीव गांधी की मौत के बाद पार्टी की कमान संभाली और मजबूत होकर टिकी रहीं। एमजीआर की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी जानकी रामचंद्रन को मुख्यमंत्री बनाया गया पर उनकी सरकार तीन हफ्तों में गिर गई और राष्ट्रपति शासन लग गया।

लेकिन एमजीआर की शिष्या जयललिता ने संघर्ष किया, शारीरिक और मानसिक अपमान झेलकर राजनीति में जगह बनाई।

कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि क्या सुप्रिया सुले या इंदिरा गांधी आगे बढ़ पातीं अगर उनके भाई होते? प्रियंका गांधी की राजनीतिक यात्रा अभी शुरू हुई है लेकिन अगर 2029 में कांग्रेस जीतती है, तो सत्ता संतुलन में बदलाव दिलचस्प होगा।

राजनीतिक वंशज महिलाओं के लिए रास्ता तंग और खतरों से भरा है और आम महिलाओं के लिए तो वो रास्ता एक गड्ढा ही है। ममता बनर्जी, मायावती और स्मृति ईरानी को सालों से जिन तानों और यौन टिप्पणी का सामना करना पड़ा है, वो हम सबके लिए शर्म की बात होनी चाहिए चाहे हम किसी भी विचारधारा से हों।

जहाँ समानता जरूरी है

2023 में भारी उत्साह और प्रचार के साथ महिला आरक्षण बिल पास हुआ। लेकिन दो साल बाद भी इसकी अमल योजना स्पष्ट नहीं है। जनगणना और आरक्षण सीमांकन की बातें होती हैं, लेकिन 33% आरक्षण पर बहस गायब है।

नेताओं को समझना होगा कि अगर महिलाएं, चाहे घर की हों या आम जनता की, बराबरी से राजनीति में आगे बढ़ें, तो देश और पार्टियों दोनों का ही भला होता है। महिलाएं आमतौर पर सहानुभूति और अंतर्दृष्टि जैसी विशेषताएं लाती हैं, जो लंबे समय में फायदेमंद साबित होती हैं।

जैसे कंपनियों में DEI (डाइवर्सिटी, इक्विटी, इन्क्लूज़न) के तहत विविधता से प्रतिभा का लाभ उठाया जाता है, वैसे ही राजनीति में भी महिलाओं को जगह देना सिर्फ ‘कोटा’ भरना नहीं, बल्कि व्यापक लाभ कमाना है।

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