इजराइल-ईरान में शांति फिलहाल कायम, पर ईरान के परमाणु इरादों पर बना हुआ सस्पेंस
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इजराइल-ईरान में शांति फिलहाल कायम, पर ईरान के परमाणु इरादों पर बना हुआ सस्पेंस

ईरान को पता है कि अमेरिका उत्तर कोरिया के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सका है क्योंकि उसके पास परमाणु हथियार हैं, और उसी रास्ते पर ईरान चलने की कोशिश कर रहा है.


इजराइल और ईरान के बीच संघर्ष विराम कायम है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने खुद को इसका श्रेय दिया है। उन्होंने संघर्ष इजराइल-ईरान में शांति फिलहाल कायम, पर ईरान के परमाणु इरादों पर बना हुआ सस्पेंसविराम की घोषणा के बाद ईरान पर बमबारी करने के लिए इजराइल की कड़ी आलोचना की। उन्होंने इस दौरान ईरान द्वारा इज़राइल पर मिसाइलें दागने की भी निंदा की।

इस लड़ाई की शुरुआत की ज़िम्मेदारी इज़राइल पर थी। उसने 13 जून को ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर बमबारी करके यह दुश्मनी शुरू की। इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा कि जब तक उनके सशस्त्र बल ईरान के परमाणु खतरे को पूरी तरह समाप्त नहीं कर देते, हवाई हमले जारी रहेंगे। हवाई हमलों के साथ-साथ इज़राइल ने अपनी खुफिया एजेंसी के जरिए ईरान के सैन्य नेताओं और परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या भी की।

इसके जवाब में ईरान ने इज़राइल पर मिसाइलों से हमला किया। इज़राइल को भरोसा था कि उसका "आयरन डोम" उसे ईरानी मिसाइलों से बचाएगा, लेकिन कुछ ईरानी मिसाइलें इस सुरक्षा कवच को भेदते हुए देश की बुनियादी संरचनाओं को नुकसान पहुंचाने में सफल रहीं।

अमेरिका-इजराइल के गहरे संबंध

संघर्ष की शुरुआत से ही अमेरिका की सहानुभूति इज़राइल के साथ थी, क्योंकि दोनों देशों के हित आपस में गहरे जुड़े हैं। इन हितों में सबसे अहम है—ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकना। यही वजह थी कि ट्रंप ने 22 जून को ईरान के फोर्दो, नतांज़ और इस्फहान स्थित परमाणु केंद्रों पर बमबारी का आदेश दिया। अकेले इज़राइल गहरे पहाड़ों के नीचे बने फोर्दो संयंत्र को नुकसान नहीं पहुंचा सकता था। अमेरिका के B-2 बमवर्षक विमानों ने वहां भूमिगत संरचनाओं को भेदने वाले सबसे घातक गैर-परमाणु बम गिराए।

हमले के तुरंत बाद यह अंदेशा था कि ईरान कैसे प्रतिक्रिया देगा। साथ ही यह भी अनुमान था कि मुस्लिम देशों में अमेरिका के खिलाफ विरोध प्रदर्शन होंगे। कई विश्लेषकों ने आशंका जताई थी कि ईरान खाड़ी क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य ठिकानों पर हमला कर सकता है और होरमुज़ की खाड़ी को बंद कर सकता है, जो ऊर्जा आपूर्ति और वैश्विक व्यापार के लिए बेहद अहम है।

इन घटनाओं का असर दुनिया के शेयर बाजारों पर पड़ा और तेल की कीमतें भी बढ़ीं। इसी बीच, ट्रंप ने ईरान को चेतावनी दी कि यदि उसने अमेरिका के खिलाफ कोई कार्रवाई की, तो जवाबी अमेरिकी हवाई हमले और भी भयानक होंगे।

कूटनीति के पहिए

हालांकि सार्वजनिक रूप से बयानबाज़ी चल रही थी, अमेरिका, ईरान और खाड़ी में स्थित सबसे बड़े अमेरिकी ठिकाने की मेज़बानी करने वाला कतर, तीनों देशों के बीच कूटनीतिक प्रयास भी जारी थे। यह जानकर कुछ लोगों को आश्चर्य हो सकता है, लेकिन दुनिया ऐसे ही चलती है—जब युद्ध चल रहा हो तब भी कूटनीति ज़िंदा रहती है, और जब कूटनीति की कोशिशें चल रही हों, तब भी हिंसा हो सकती है।

केवल तभी जब पूरी तरह से विश्व युद्ध जैसी स्थिति बनती है, तब देशों के बीच कूटनीतिक रास्ते बंद होते हैं। अन्य मामलों में प्रमुख शक्तियां संघर्ष खत्म करने की कोशिश करती हैं, लेकिन अंतिम निर्णय युद्धरत देशों के हाथ में होता है।

ट्रंप जैसे नेता अक्सर खुद को महत्वपूर्ण दिखाने के लिए संघर्षविराम का श्रेय लेना चाहते हैं, भले ही वास्तव में ऐसा हुआ न हो।

ईरान की "सम्मान बचाने" वाली कार्रवाई

इस मामले में अमेरिका ने समझ लिया कि गर्वीला देश होने के नाते ईरान को अमेरिका के खिलाफ कोई न कोई कार्रवाई करनी ही होगी। संभवतः कतर की मध्यस्थता से एक व्यवस्था बनाई गई, जिसमें ईरान ने कतर में स्थित अमेरिकी अल-उदीद एयरबेस पर मिसाइलें दागने का नाटक किया। उसने हमले के समय की जानकारी पहले से कतर को दे दी, जिसने इसे अमेरिका तक पहुंचा दिया। इससे अमेरिका ने सभी मिसाइलों को निष्क्रिय कर दिया। यह 23 जून को हुआ।

कतर ने औपचारिक रूप से ईरान के खिलाफ अपनी संप्रभुता के उल्लंघन पर आपत्ति जताई, लेकिन यह सिर्फ एक औपचारिकता थी। आखिरकार, अमेरिका समयानुसार 24 जून की सुबह (अमेरिकी समयानुसार) इजराइल और ईरान के बीच संघर्ष विराम की घोषणा कर दी। ईरान पहले से कहता आया था कि अगर इजराइल बमबारी बंद कर दे, तो वह मिसाइलें दागना बंद कर देगा।

दो प्रमुख मुद्दों पर ध्यान

इस युद्ध के दौरान और बाद में कई सवाल उठे हैं, जिनका विश्लेषण लंबे समय तक होता रहेगा। इनमें दो प्रमुख मुद्दे हैं—ईरान का परमाणु हथियार बनाने का इरादा (जिससे वह हमेशा इनकार करता आया है), और दूसरा, ईरान में "शासन परिवर्तन" की संभावना।

दुनिया का कोई भी देश नहीं चाहता कि ईरान परमाणु हथियार बनाए। इस युद्ध के बाद यह उम्मीद की जा सकती है कि इज़राइल उसे रोकने के लिए हर संभव प्रयास करेगा। ईरानी मिसाइलों का "आयरन डोम" को भेद पाना इस बात का संकेत है कि अगर ईरान के पास परमाणु हथियार हुआ, तो पश्चिम एशिया की सुरक्षा स्थिति पूरी तरह बदल जाएगी। यह ईरान को हमास और हिज़्बुल्लाह जैसे बड़े प्रॉक्सी समूह बनाने के लिए प्रोत्साहित करेगा और इजराइल के लिए गाज़ा पर बमबारी करना मुश्किल हो जाएगा, भले ही उसके पास स्वयं परमाणु हथियार हों।

ईरानी परमाणु संयंत्रों को कितना नुकसान पहुंचा है, यह अब तक स्पष्ट नहीं है। ट्रंप का दावा है कि उन्हें पूरी तरह नष्ट कर दिया गया है, लेकिन अमेरिकी मीडिया में लीक हुई खबरों के अनुसार रक्षा विभाग की खुफिया रिपोर्ट कहती है कि ईरानी कार्यक्रम बस कुछ महीनों के लिए पीछे खिसका है। अगर ऐसा है, तो ईरान यूरेनियम संवर्धन का अधिकार छोड़ने को तैयार नहीं होगा। इसके अलावा, समृद्ध यूरेनियम के भंडार को लेकर भी कोई स्पष्टता नहीं है, लेकिन माना जाता है कि उसे जल्दी ही बम-स्तर तक संवर्धित किया जा सकता है।

उत्तर कोरिया की राह पर चलने का लालच

ट्रंप और ईरान दोनों समझौता चाहते हैं। लेकिन इस युद्ध और अमेरिकी बमबारी के बाद, यह भी तार्किक है कि ईरान परमाणु हथियार बनाने की दिशा में और तेजी से आगे बढ़े। उसे पता है कि अमेरिका उत्तर कोरिया के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सका, क्योंकि उसके पास परमाणु हथियार और उन्हें ले जाने वाले सिस्टम मौजूद हैं। इसी कारण ईरान को उत्तर कोरिया की राह पर चलने का प्रबल प्रलोभन है।

अगले कुछ सालों में क्या होगा?

अगले कुछ सालों तक अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नजरें ईरान की परमाणु गतिविधियों और अमेरिका-इज़राइल की प्रतिक्रिया पर रहेंगी। साथ ही बातचीत की कोशिशें भी चलती रहेंगी, लेकिन ऐसा कोई भरोसा नहीं है कि वे बातचीत ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोक पाएंगी।

क्या खामेनेई के जाने से व्यवस्था बदलेगी?

"शासन परिवर्तन" शब्द का उपयोग अकसर ढीले-ढाले ढंग से किया जाता है। क्या इसका मतलब है उस प्रणाली में बदलाव, जिसमें सर्वोच्च शक्ति एक धार्मिक नेता के पास होती है जिसे कुछ वरिष्ठ मौलवी चुनते हैं? ईरान में एक निर्वाचित राष्ट्रपति और संसद तो है, लेकिन केवल उन्हीं लोगों को चुनाव लड़ने की अनुमति है जिन्हें धार्मिक नेता स्वीकृति देते हैं। इस प्रणाली को विलायत-ए-फकीह कहते हैं, जो अयातुल्ला खोमैनी ने 1979 में शाह के पतन के बाद शुरू की थी।

यह प्रणाली व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं देती, और खासतौर पर महिलाओं के लिए बहुत कठोर है। इसके खिलाफ प्रदर्शन भी हुए हैं, लेकिन "रिवोल्यूशनरी गार्ड्स" ने हमेशा बल प्रयोग कर इसे कुचला है। वर्तमान में कोई ऐसी राजनीतिक ताकत नहीं है जो इस प्रणाली को चुनौती दे सके।

ईरान के वर्तमान सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खामेनेई 86 वर्ष के हैं और अगले कुछ वर्षों में उनका जाना तय है। उनके उत्तराधिकारी का चयन भी आसानी से हो जाएगा। यह तो "regime change" होगा, लेकिन इससे व्यवस्था नहीं बदलेगी। निकट भविष्य में इस व्यवस्था में बदलाव की संभावना बहुत कम है।


The Federal विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों को सामने लाने का प्रयास करता है। लेख में प्रस्तुत जानकारी, विचार या राय लेखक के निजी हैं और जरूरी नहीं कि वे The Federal के विचारों से मेल खाते हों।

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