
बांग्लादेश के ढाका व जहांगीरनगर विश्वविद्यालय चुनावों में जमात की छात्र इकाई शिबिर की ऐतिहासिक जीत, बीएनपी ने अवामी लीग पर वोट ट्रांसफर का आरोप लगाया।
बांग्लादेश की सियासत में विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनावों ने नया तूफान खड़ा कर दिया है। इस बार ढाका विश्वविद्यालय और जहांगीरनगर विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनावों में जमात-ए-इस्लामी की छात्र इकाई इस्लामी छात्र शिबिर ने अप्रत्याशित जीत हासिल की है। स्वतंत्रता के बाद यह पहला मौका है जब इस संगठन ने दोनों प्रमुख विश्वविद्यालयों पर लगभग एकछत्र कब्जा कर लिया।
बीएनपी का आरोप – अवामी वोट शिबिर को ट्रांसफर
चुनाव परिणामों के तुरंत बाद बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने आरोप लगाया कि अवामी लीग ने जानबूझकर अपने वोट इस्लामी छात्र शिबिर को दिलवाए, ताकि बीएनपी के चुनावी गणित को बिगाड़ा जा सके। बीएनपी नेताओं का कहना है कि भले ही अवामी लीग को सत्ता से बाहर कर दिया गया हो और उसकी छात्र इकाई छात्र लीग पर प्रतिबंध लगा हो, लेकिन विश्वविद्यालय परिसरों में उसके समर्थक अभी भी बड़ी संख्या में हैं। इन्हीं वोटों के सहारे शिबिर ने भारी अंतर से जीत दर्ज की।
ढाका विश्वविद्यालय छात्र संघ के उपाध्यक्ष पद पर शिबिर उम्मीदवार ने लगभग 9,000 वोटों के अंतर से जीत दर्ज की—यह संख्या बीएनपी की छात्र इकाई जतियोबादी छात्र दल से तीन गुना थी। हैरानी की बात यह रही कि छात्र दल को दोनों विश्वविद्यालयों में एक भी पद नहीं मिला।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और गठबंधन राजनीति
सियासी पर्यवेक्षकों को यह अजीब लग सकता है क्योंकि वास्तव में जमात-ए-इस्लामी से सीधा राजनीतिक गठबंधन बीएनपी का रहा है। 2001 से 2006 के बीच दोनों ने मिलकर बांग्लादेश पर शासन भी किया। दूसरी ओर, अवामी लीग जिसने स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया था, जमात-ए-इस्लामी का पुराना विरोधी रहा है, क्योंकि जमात ने उस दौर में पाकिस्तानी फौज का साथ दिया था।
बीएनपी के संस्थापक जनरल जिया-उर-रहमान ने 1975 के बाद जमात को राजनीति में पुनर्जीवित किया था ताकि अवामी लीग को चुनौती दी जा सके। बाद में जनरल एरशाद ने इस्लाम को राज्य धर्म घोषित कर जमात की स्थिति और मजबूत की। आज स्थिति यह है कि एरशाद की पार्टी अवामी लीग के करीब है, जबकि बीएनपी और अवामी के बीच पुरानी टकराहट जारी है।
रणनीति या साजिश?
बीएनपी का आरोप है कि अवामी लीग ने जानबूझकर जमात को समर्थन दिलवाया, ताकि बीएनपी और जमात के बीच दरार पैदा हो और दोनों एक-दूसरे से भिड़ें। कुछ इलाकों से दोनों के समर्थकों में टकराव की खबरें भी आई हैं। इससे जमात यह मानने लगे कि वह भविष्य में संसदीय चुनाव अपने दम पर लड़ और जीत सकती है।
कुछ बीएनपी नेता मानते हैं कि जमात से अलग होना पार्टी की छवि के लिए बेहतर होगा, क्योंकि जमात स्वतंत्रता आंदोलन के खिलाफ खड़ा था। अगर अवामी लीग चुनाव मैदान में नहीं होती, तो बीएनपी को सत्ता तक पहुंचने का साफ रास्ता दिखता है।
जमात की जीत से चिंता
हालांकि कुछ विश्लेषक मानते हैं कि अवामी लीग का असली खेल यह दिखाना है कि उसके बिना बांग्लादेश में कट्टरपंथी ताकतें हावी हो जाएंगी। विश्वविद्यालय चुनावों में जमात की जीत ने देश और पड़ोसी भारत दोनों में यह आशंका बढ़ा दी है। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चिंता पैदा हो सकती है और शायद यह दबाव बने कि अंतरिम सरकार अवामी लीग पर लगाया गया प्रतिबंध हटाकर समावेशी चुनाव कराए।
आंतरिक आलोचना और चेतावनी
बीएनपी की सांसद बैरिस्टर रुमिन फरहाना ने अपनी ही पार्टी के नेताओं को नसीहत दी कि हार का ठीकरा दूसरों पर फोड़ने के बजाय आत्ममंथन करें। उन्होंने कहा कि अनुशासनहीनता और नेताओं की नकारात्मक छवि ने भी छात्रों में बीएनपी का भरोसा कम किया है।दूसरी ओर, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी विचारक अवामी लीग को चेतावनी दे रहे हैं कि वह किसी भी हाल में जमात-ए-इस्लामी को मजबूत न करे। उनका तर्क है कि ऐसा करना बांग्लादेश की स्वतंत्रता और उसकी धर्मनिरपेक्ष नींव को खतरे में डाल देगा। अवामी लीग के शासनकाल में मदरसों का विस्तार और मान्यता पहले ही इस्लामी कट्टरपंथ को बढ़ावा दे चुकी है।
ढाका और जहांगीरनगर विश्वविद्यालय चुनावों में इस्लामी छात्र शिबिर की अप्रत्याशित सफलता ने बांग्लादेश की सियासत को नई दिशा दे दी है। जहां बीएनपी इसे अवामी लीग की चाल बता रही है, वहीं अवामी समर्थक इसे बीएनपी की कमजोरी और जनता के असंतोष का परिणाम कह रहे हैं। लेकिन इतना तय है कि इस घटनाक्रम ने बीएनपी-जमात के रिश्तों में दरार गहरा दी है और आने वाले राष्ट्रीय चुनावों पर इसका गहरा असर पड़ेगा।
(फेडरल सभी पक्षों के विचारों और राय को प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। लेख में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक की हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करें)