Saurabh Kumar Gupta

भाषा की अपनी राजनीति और ज़ुबानों के बेग़ाने शहर


भाषा की अपनी राजनीति और ज़ुबानों के बेग़ाने शहर
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बोली को भाषा बनने की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। यूँ कहें कि अपनी स्वतंत्रता, अंदाज और कलेवर का बलिदान करना पड़ता है, तब जाकर राजनीती उसे भाषा का रूप देती है।

भाषा महज़ शब्दों का अनुशासन नहीं बल्कि भावनाओं का अनगढ़ प्रवाह है। यह तमीज़ और तंज़ के बीच की महीन लकीर है जहाँ लोरी भी गाई जाती है और गालियाँ भी दी जाती हैं। यह ज़िन्दगी के अनौपचारिक रंगों से भरी हुई वह दुनिया है जिसे किताबों और सरकारी कागज़ों में जगह मिलने में सदियाँ लग जाती हैं। एक बोली दरअसल भाषा बनने के इंतज़ार में खड़ी एक ऐसी संधि रेखा है, जिसे पार करने के लिए सिर्फ़ व्याकरण का सहारा नहीं सत्ता की मुहर भी चाहिए।

बोलियाँ सड़कों पर जन्म लेती हैं—गली-चौराहों पर, खेतों की मेडों पर, बाज़ार की चिल्लपों में। वे अनायास निकलती हैं, खिलखिलाती हैं, जुगत भिड़ाती हैं। लेकिन जब तक कोई उन्हें किताबों में क़ैद नहीं करता तब तक वे सरकारी फ़ाइलों में दर्ज नहीं होतीं तब तक वे बोली ही बनी रहती हैं—अपने ही घर में किरायेदार की तरह।
फिर एक दिन कोई फ़ैसला होता है। बोली को भाषा बना दिया जाता है। उसे नियमों में बाँधा जाता है, व्याकरण का जामा पहनाया जाता है, स्कूलों में पढ़ाया जाता है। लेकिन सवाल वही रहता है—यह बदलाव होता कब है? क्या जब उसमें पहली किताब लिखी जाती है? जब वह किसी संविधान के पन्ने में दर्ज होती है? या जब उसके बोलने वाले यह तय कर लेते हैं कि अब वे किसी और की भाषा में अपनी पहचान नहीं तलाशेंगे?

भाषा का फैसला जनता नहीं सत्ता करती है
भाषा का जन्म सत्ता के गलियारों में नहीं जनमानस में होता है। लेकिन उसकी औपचारिक मान्यता वही तय करते हैं जिनका भाषा से नहीं उसके प्रभाव से सरोकार होता है। इतिहास गवाह है कि भाषाओं का अस्तित्व लिपियों, व्याकरणों और शब्दकोशों से कम और राजनीतिक समीकरणों से ज़्यादा तय हुआ है। संस्कृत कभी सत्ता की भाषा थी इसलिए वह ‘शास्त्रीय’ बनी रही भले ही वह अब सिर्फ़ देवताओं की पूजा में बुदबुदाई जाती हो। वहीं भोजपुरी जो करोड़ों की ज़ुबान है, आज भी अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रही है।
हिंदी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। यह कभी कई बोलियों में से एक थी—बाज़ारों में बहती, गलियों में गूँजती, मेलों में सजती। लेकिन जब इसे राष्ट्रभाषा बनाने का अभियान चला इसे नियमों में समेटा गया, इसकी सीमाएँ तय की गईं, इसकी परिभाषाएँ गढ़ी गईं। उर्दू जो इसकी सबसे क़रीबी साझेदार थी। सत्ता के फ़ैसले के कारण एक अलग भाषा बना दी गई। यह बदलाव व्याकरण का नहीं राजनीति का था।
लेकिन बोली से भाषा बनने की इस प्रक्रिया में कुछ खो भी जाता है। भाषा जब तक बोली थी बेतकल्लुफ़ थी—ख़ुद को बदलने के लिए आज़ाद। लेकिन जैसे ही उसे संस्थागत पहचान मिली वो नियमों में जकड़ गई। उसका प्रवाह क़ैद हो गया, सहजता घिस गई। ठीक वैसे ही जैसे कोई बाग़ी नौजवान जब ‘ज़िम्मेदार’ बनने की कोशिश करता है तो वही बन जाता है जिससे बचने के लिए उसने बग़ावत की थी।

युवाओं की ज़ुबान: नई भाषा की पदचाप
हर पीढ़ी अपनी भाषा खुद गढ़ती है—पुराने शब्दों की सिलाई उधेड़कर उन्हें नए संदर्भों में सिलती है। जो शब्द कल प्रतिष्ठित थे वे आज मज़ाक बन जाते हैं। जो कल गाली थे वे आज स्नेहसूचक संबोधन बन जाते हैं।
आज की भाषा में व्याकरण कम है, रफ़्तार ज़्यादा। इमोजी, मीम, शॉर्ट फॉर्म और इंटरनेट स्लैंग ने एक नई भाषा को जन्म दिया है जिसे कोई स्कूल में नहीं पढ़ाता लेकिन हर युवा धाराप्रवाह बोलता है। यह भाषा व्हाट्सएप चैट्स में पनपती है, इंस्टाग्राम स्टोरीज़ में बहती है और X पर तंज़ बनकर उड़ती है। हिंदी और अंग्रेज़ी के बीच की इस ‘हिंग्लिश’ को कभी भाषा की तौहीन कहा जाता था लेकिन अब यही लाखों लोगों की पहली भाषा बन चुकी है।
युवा भाषा को सत्ता से नहीं अपनी ज़रूरतों से परिभाषित करते हैं। उनके लिए ‘भाई’ खून का रिश्ता नहीं दोस्ती का इक़रार है। ‘LOL’ अब सिर्फ़ हंसी नहीं बल्कि एक भाव है—उपेक्षा, व्यंग्य, ठहाके का एक संक्षिप्त कोड। ‘सीन’ सिर्फ़ फिल्मी दृश्यों का नहीं पूरे समाज का वर्णन करने वाला शब्द है। ‘फील आ रही है’ कोई ठोस एहसास नहीं बल्कि मन की एक धुंधली-सी स्थिति है जिसमें भावनाएँ स्पष्ट न होकर भी पूरी तरह मौजूद रहती हैं।
क्या यह भाषा कभी ‘औपचारिक भाषा’ बनेगी? क्या कोई इसे व्याकरण में बाँधने की कोशिश करेगा? हो सकता है। लेकिन असली सवाल यह है कि भाषाओं की पहचान किताबों और सत्ता से तय होगी या फिर उन लोगों से जो इसे जीते हैं, गढ़ते हैं और आगे बढ़ाते हैं?

अस्तित्व की लड़ाई
भाषाएँ बनती हैं, बिगड़ती हैं, मिटती हैं, फिर से जन्म लेती हैं। सत्ता उन्हें अपने हिसाब से आकार देती है लेकिन असली पहचान वे अपने बोलने वालों से पाती हैं।
एक बोली भाषा कब बनती है? शायद तब जब लोग यह पूछना बंद कर दें कि यह भाषा है या नहीं। जब इसे बोलने वाले अपने लहजे से उसे संवार लें, जब किताबों की मोहताज न होकर भी वह हर जगह गूँजने लगे।
तब तक वह बोली बनी रहेगी—अनौपचारिक, अस्वीकृत लेकिन ज़िंदा।


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