Ranjit Bhushan

नक्सलवाद का अंत? ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट ने बदला इतिहास


नक्सलवाद का अंत? ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट ने बदला इतिहास
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हथियार डाल रहे कैडर, कमजोर होता आधार और आक्रामक सरकारी रणनीति ये संकेत देते हैं कि नक्सलवाद अब अपने अंत की ओर बढ़ रहा है।

देश में छह दशक से अधिक समय से जारी वामपंथी उग्रवाद (Left-Wing Extremism-LWE) अब अपने अंतिम दौर में पहुंचता दिख रहा है। एक समय शहरी युवाओं को 'अर्बन नक्सल' की उपाधि दिलाने वाला आंदोलन, जो हजारों आदिवासियों के संघर्ष से जुड़ा था, अब तेजी से सिमट रहा है। केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) के प्रमुख ज्ञानेंद्र प्रताप सिंह ने हाल ही में इसे "वामपंथी उग्रवाद के अंत की शुरुआत" बताया है, खासकर पूर्व और मध्य भारत में चलाए गए ऑपरेशन ‘ब्लैक फॉरेस्ट’ के बाद।

इतिहास का सबसे बड़ा एंटी-नक्सल ऑपरेशन

छत्तीसगढ़-तेलंगाना सीमा पर स्थित कर्रेगट्टालु की पहाड़ियों में 21 दिन तक चले इस ऑपरेशन को देश का अब तक का सबसे बड़ा और रणनीतिक अभियान माना जा रहा है। इस ऑपरेशन में 31 माओवादी मारे गए। 450 IEDs और 40 हथियार बरामद। 12,000 किलोग्राम विस्फोटक, दवाइयां और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जब्त और 4 हथियार निर्माण फैक्ट्रियां उजागर किए गए। इस कार्रवाई को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने "ऐतिहासिक उपलब्धि" करार दिया है।

माओवाद की गिरती पकड़

2024 में अब तक 159 माओवादी मारे गए हैं। पिछले दो वर्षों में सुरक्षा बलों की सख्त रणनीति के चलते वामपंथी उग्रवाद को गहरा झटका लगा है। केंद्रीय सरकार के अनुसार, प्रभावित जिलों की संख्या अप्रैल 2018 में 126, जुलाई 2021 में 70 और अप्रैल 2024 में 38 रह गई है। इनमें से सबसे प्रभावित जिले अब केवल 6 हैं — जिनमें छत्तीसगढ़ के चार जिले (बिजापुर, कांकेर, नारायणपुर, सुकमा), झारखंड का पश्चिमी सिंहभूम और महाराष्ट्र का गडचिरोली शामिल हैं।

बहुपक्षीय हमले और आत्मसमर्पण

2024 में अब तक 928 माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया है। इनमें से 718 ने सिर्फ जनवरी से अप्रैल के बीच हथियार डाले। सुरक्षा अधिकारियों के अनुसार, सरकारी दबाव के चलते और आत्मसमर्पण हो सकते हैं। गृह मंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक देश को नक्सलवाद से पूरी तरह मुक्त करने की समय-सीमा तय की है।

CPI (माओवादी) ने की युद्धविराम की अपील

सरकारी दबाव के चलते माओवादी संगठन CPI (माओवादी) ने 5 से 6 बार संघर्ष विराम और संवाद की अपील की है — यह उनकी हताशा का संकेत माना जा रहा है।

नक्सल आंदोलन का लंबा इतिहास

वामपंथी उग्रवाद का इतिहास 1960 के दशक के बंगाल से शुरू हुआ था। शुरुआत में आंदोलन आदिवासी और किसान समूहों द्वारा सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से हुआ। समय के साथ आईटी और तकनीक के प्रसार ने इसके समर्थकों की संख्या घटा दी। अब अधिकांश माओवादी कैडर आदिवासी युवा हैं, जो इस संघर्ष की सबसे बड़ी कीमत चुका रहे हैं।

मानवाधिकार पर उठते सवाल

सरकारी ऑपरेशनों की सफलता के बावजूद मानवाधिकार हनन के आरोप भी लगातार सामने आ रहे हैं:

- शांतिपूर्ण आदिवासी कार्यकर्ताओं पर कार्रवाई

- कथित फर्जी मुठभेड़, अत्याचार और मनमानी गिरफ्तारियां

- ऑपरेशन प्रहार जैसे अभियानों में निर्दोषों के प्रभावित होने की शिकायतें

नागरिक समाज संगठनों का कहना है कि माओवादी दमन के साथ-साथ जनआंदोलनों को भी कुचला जा रहा है, जिससे आदिवासी असंतोष और बढ़ सकता है।

क्या अब माओवाद अप्रासंगिक हो चुका है?

आज माओवादी आंदोलन न सिर्फ कमजोर पड़ा है, बल्कि अपने उद्देश्यों से भी भटक गया है। शहरी मध्यमवर्ग और नागरिक समाज, जो कभी इस विचारधारा के समर्थक थे, अब पूरी तरह उदासीन हो चुके हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में माओवादी विचारधारा की सशस्त्र क्रांति अब एक पुरानी और अप्रासंगिक अवधारणा बनती जा रही है।

(फेडरल सभी पक्षों से विचार और राय प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। लेख में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक के हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों)

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