कर्नाटक लोकसभा चुनाव नतीजों से सबक: कांग्रेस की गारंटी जातिगत कारक के आगे गिरी
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लिंगायत और वोक्कालिगा समुदायों को इस बात का डर है कि कर्नाटक में कांग्रेस सरकार उन्हें एक किनारे कर सकती है, जिससे पार्टी की राज्य की 28 लोकसभा सीटों में से ज़्यादातर जीतने की महत्वाकांक्षा पटरी से उतर सकती है.

कर्नाटक लोकसभा चुनाव नतीजों से सबक: कांग्रेस की गारंटी जातिगत कारक के आगे गिरी

चुनावों ने वोक्कालिगा और लिंगायतों को सिद्धारमैया के खिलाफ एकजुट होने के लिए प्रेरित किया - जो ओबीसी, दलितों और अल्पसंख्यकों का गठबंधन था, जिसे महिलाओं का समर्थन प्राप्त था


क्या भारतीय चुनाव किसी भी पार्टी या बहुसंख्यक विचारधारा के नियंत्रण में आने के लिए ‘बहुत बड़े और बहुत स्थानीय’ हैं, चाहे वो कितनी भी मजबूत और गहरी क्यों न हो, जैसा कि अर्जुन अप्पादुरई ने लोकसभा चुनाव के नतीजे आने से एक सप्ताह पहले कहा था? और क्या जाति लंबे समय से ऐसे स्थानीय गणनाओं की स्थिर मुद्रा रही है? लोकसभा चुनावों के दौरान कर्नाटक का अनुभव इसे कैसे साबित करता है?

एक पुरानी कहावत है कि कर्नाटक में हमेशा केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के मुकाबले राज्य में ‘विपक्षी’ सरकार होती है. लेकिन 2019 से 2023 की अवधि के बीच ‘डबल इंजन सरकार’ के दौरान ये कहावत भी टूट गयी. इसलिए, अपने चुनावी अभियान के दौरान कांग्रेस ने संघीय कार्ड को अच्छे से खेला, जो कांग्रेस के लिए मास्टर स्ट्रोक साबित हुआ.

खोखले वादों का ‘चोंबू’

कांग्रेस ने इस लोकसभा चुनाव में 'चोम्बू' को लेकर जनता के बीच खूब प्रचार किया. चोम्बू कन्नड़ भाषा में लोटे के लिए इस्तेमाल किया जाता है. आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) लागू होने से पहले कांग्रेस ने अपने विज्ञापनों की एक श्रृंखला चलाई, जिसमें कांग्रेस ने दावा दिया कि लड़ाई वास्तव में एक शत्रुतापूर्ण केंद्र सरकार और एक मजबूत स्वतंत्र राज्य के बीच है. कांग्रेस ने चोम्बू का जिस तरह से प्रचार में इस्तेमाल किया, उससे ये जनता के बीच ये सन्देश देने का प्रयास किया कि जिस तरह से चोम्बू अंदर से खोखला होता है, उसी तरह से केंद्र सरकार कर्णाटक जैसे संपन्न राज्य के हिस्से के टैक्स भी पूरी तरह से नहीं पहुंचा रही है. यानी केंद्र सरकार कर्णाटक राज्य के हिस्से के टैक्स का हिस्सा रख कर राज्य सरकार के राजस्व को भी खोखला कर रही है. साथ ही ये भी दावा किया गया कि केंद्र सरकार कर्नाटक से जो वाडे कर रही है, वो बिलकुल वैसे ही हैं, जैसे चोम्बू बहार से भरा हुआ दीखता है, लेकिन अंदर से खोखला होता है.

कान्ग्रेस ने चोम्बू को प्रचार प्रसार का माध्यम इसलिय भी बनाया क्योंकि बीजेपी ने कर्णाटक को एक ''अक्षय पात्र'(कभी खाली न रहने वाला बर्तन) की तरह विकसित करने का वादा किया था, जबकि कांग्रेस ने जनता के बीच कहा कि बीजेपी का ये दावा सच से कोसों दूर है. कर्नाटक में 200 से अधिक तालुकाओं में आए विनाशकारी सूखे की समस्या को दूर करने के लिए धन की कमी का सामना करना पड़ा, और इस प्रदेश को जन्म दर, जनसंख्या को कम करने, प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने आदि जैसे अपने कल्याणकारी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए दंडित किया जा रहा था.

कल्याणकारी योजनाएँ

उन कल्याणकारी योजनाओं पर गौर किया गया, जिनकी गारंटी दी गयी थी. जैसे महिलाओं के नेतृत्व वाले परिवारों की आर्थिक सहायता और सभी महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा की सुविधा देती हैं, साथ ही 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली देती हैं, और इतना ही नहीं बेरोजगारों को सहायता भी देती हैं. इसमें कोई संदेह नहीं है कि कर्णाटक राज्य में कामकाजी महिलाओं ने यात्रा पर होने वाले खर्च को बचाया(हालांकि अभी ये गणना करनी बाकि है कि क्या इससे कार्यबल में अधिक महिलाएं शामिल हुई हैं) है. महिलाओं ने अपने बच्चों के साथ यात्राएं, खासकर तीर्थयात्राएं करके खुद को परिवार के मुखियाओं पर आश्रित होने से मुक्त किया है.

आखिर इन सब कल्याणकारी नीतियों के बावजूद कांग्रेस का प्रदर्शन लोकसभा चुनाव में उम्मीदों के मुताबिक क्यों नहीं रहा

ये सच है, कांग्रेस इस लोकसभा चुनाव में पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले ज्यादा सीटें लायी है. जहाँ 2019 में कांग्रेस की राज्य में 1 सीट आई थी, वो वहीँ इस बार ये आंकड़ा 9 पर पहुँच गया है. फिर भी ये आंकड़ा कांग्रेस की उम्मीदों के मुताबिक नहीं है. यही वजह है कि इस परिणाम के बाद ये सवाल भी उठने लगे हैं कि योजनाओं को पूरा करने की गारंटी वोट में तब्दील होने की गारंटी नहीं है. चुनावपूर्व ऐसा अनुमान लगाया जा रहा था कि कांग्रेस अपनी योजनाओं की गारंटी से राज्य की 28 सीटों में से कम से कम 20 सीटें जीतेगी लेकिन ये गलत साबित हुआ.

बीजेपी का जवाब

लेकिन जिस तरह ये देश भर में कोई साधारण चुनाव नहीं था, उसी तरह से ये एक ऐसे राज्य में भी कोई साधारण चुनाव नहीं था, जो राज्यों के संघ के रूप में भारत में लौटने की आवश्यकता और महत्वता को स्पष्ट करने के लिए तैयार था. फिर भी, संघीय सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित करने से चुनावी प्रक्रिया को बदलने का भावनात्मक आवेश नहीं हुआ. बीजेपी ने इस चीज को भांपते हुए कि उसके पास गारंटी के खिलाफ कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं थी, उसने चर्चा को उस दिशा में वापस ले जाने की पूरी कोशिश की, जहाँ उसे सबसे ज़्यादा सहजता थी. कर्नाटक के लोगों में डर पैदा करना का प्रयास किया गया. सरकारी संपत्ति पर ‘भगवा ध्वज’ फहराने का प्रयास किया गया, लेकिन तुरंत ही उसे विफल कर दिया गया. एक दुकानदार और स्थानीय गुंडों (जिसमें हिंदू और मुस्लिम शामिल थे) के एक छोटे से गिरोह के बीच कथित झगड़े को हनुमान चालीसा के विरोध में बदलने की कोशिः हुई, लेकिन ये कोशिश भी शांत हो गयी.

सांप्रदायिक चर्चा

इस दौरान दो अन्य घटनाएँ, रामेश्वरम कैफ़े में बम विस्फोट और फ़ैयाज़ के हाथों नेहा हिरेमठ की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या, ने मानों बीजेपी की झोली में पके फल की तरह गिर गईं, जिससे उसे वो उत्साह और उर्जा मिली, जिसकी उसे सख्त जरुरत थी. लेकिन ये भी बहुत ज्यादा देर तक बीजेपी के लिए सहायक साबित नहीं हो पायी क्योंकि इनसे भी ज्यादा बर्बर घटनाए राज्य में हुई, जिनमें हिंदू पुरुषों ने अपने साथियों का सिर कलम कर दिया. इस वजह से बीजेपी को ऐसे मुद्दों से पीछे हटना पड़ा.

फिर भी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बेबाकी से कर्नाटक बीजेपी ने अपने विज्ञापनों में दावा किया कि ‘चोम्बू’ हिंदुओं के खून से भरा हुआ है, जो ‘बदला’ लेने के लिए एक कोडित आह्वान है. विद्रोही या निराश उम्मीदवारों द्वारा आंतरिक असंतोष से त्रस्त होकर, ये इस्लामोफोबिया की थकी हुई रणनीति पर वापस आ गए, ताकि वो अपने गुरु की आवाज को दोहरा सके.

प्रमुख जातियां एकजुट हुईं

लेकिन इस बीच, अन्य भय भी काम कर रहे थे, जिनके कारण बीजेपी की रणनीति ने कांग्रेस के धार्मिक और गैर-सांप्रदायिक अभियान पर विजय प्राप्त की. ये वोक्कालिगा और लिंगायत के बीच एक ऐतिहासिक समझौता था, जिससे राज्य की दो सबसे प्रमुख जातियों को सिद्धारमैया के खिलाफ एकजुट होने का मौका मिला. महिलाओं द्वारा समर्थित ओबीसी, दलितों और अल्पसंख्यकों का गठबंधन.

कर्नाटक के अपने जाति ‘सर्वेक्षण’ द्वारा उत्पन्न आंकड़ों के संभावित रिलीज की घोषणाओं ने प्रमुख जातियों से ‘वैज्ञानिक पुनर्सर्वेक्षण’ के लिए एक समेकित मांग को जन्म दिया था. लोकसभा चुनावों ने आम तौर पर एक-दूसरे के विरोधी रहे प्रभुत्वशाली जातियों को एक साथ ला खड़ा किया है, जो न केवल आर्थिक और शैक्षिक संसाधनों पर अपनी पकड़ को चुनौती मिलने से भयभीत हैं, बल्कि वे इसलिए भी डर रहे हैं कि कहीं वे राजनीतिक हितों के लिए खतरा न बन जाएं.

राज्य की राजनीति में ही नहीं, बल्कि राजनीतिक क्षेत्र में भी

ये कोई संयोग नहीं है कि उन्होंने(कम से कम अस्थायी रूप से) बागलकोट में पंचमसाली पीठ के बसव जयमृत्युंजय स्वामीजी द्वारा शुरू किए गए आरक्षण श्रेणियों में बदलाव के लिए लंबे समय से चल रहे अंतर-लिंगायत अभियान को दबा दिया है. उन्होंने गडग में शिरहट्टी तालुका के बलेहोसुर मठ के विलक्षण फकीरा डिंगलेश्वर स्वामी को भी वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया, जिन्होंने धारवाड़ में अपने साथी लिंगायत, बीजेपी उम्मीदवार प्रहलाद जोशी के खिलाफ ‘धर्मयुद्ध’ की घोषणा की थी.

इसने महिलाओं के खिलाफ जबरदस्त तरीके से काम किया, जो अपने जीवन में लाए गए छोटे से क्रांति के लिए आभारी थीं, और अल्पसंख्यकों और दलितों के खिलाफ, जो संवैधानिक परिवर्तन या आरक्षण सहित लंबे समय से पोषित सामाजिक न्याय कार्यक्रमों को हटाने से होने वाले संभावित परिवर्तनों से भयभीत थे.

कांग्रेस बनाम जातियाँ

कुछ मामलों में, जैसे कि बैंगलोर ग्रामीण, जहाँ दोनों उम्मीदवार एक ही जाति से थे, एक राजनेता के रूप में एक दुर्जेय प्रतिष्ठा वाला(डीके सुरेश) और दूसरा एक प्रतिभाशाली डॉक्टर और चिकित्सा प्रशासक(डॉ मंजूनाथ) के रूप में प्रतिष्ठा वाला, ये स्पष्ट है कि उनके 'मठाध्यक्ष' ने इस बदलाव के लिए ज़िम्मेदारी ली होगी.

संक्षेप में, कांग्रेस की गारंटी प्रमुख जातियों की स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को मात नहीं दे सकती

कर्नाटक में नफ़रत के सुनियोजित सामान्यीकरण के अंत के संकेत के रूप में इन घटनाक्रमों से हिम्मत जुटाना जल्दबाजी होगी. इसे उन लोगों की जीत के रूप में घोषित करना जल्दबाजी होगी, जिनमें कई समर्पित नागरिक सामाजिक संगठन शामिल हैं, जिन्होंने संविधान की रक्षा की, कड़ी मेहनत से स्वतंत्रता और स्वतंत्रता हासिल की, वास्तव में, कानून का शासन। इसमें कोई संदेह नहीं है कि चुनावी प्रक्रिया के बारे में सीखने की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से लगे लोगों का एक बड़ा हिस्सा - नागरिक समाज समूह - अब 'स्थानीय' कारकों को स्वीकार करने के लिए मजबूर होंगे - अंकगणित के बजाय रसायन विज्ञान - जिसने कर्नाटक को यह मिश्रित परिणाम दिया.

(फेडरल सभी पक्षों से विचार और राय प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। लेख में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक के हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों)

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