Tikender Singh Panwar

कुंभ मेला: आस्था का संगम, पर क्या प्रकृति पर भारी पड़ रही है भीड़?


कुंभ मेला: आस्था का संगम, पर क्या प्रकृति पर भारी पड़ रही है भीड़?
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हम न केवल अपनी नदियों के प्रति, बल्कि भावी पीढ़ियों के प्रति भी इस बात पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य हैं कि हम किस प्रकार प्रकृति का उत्सव मनाते हैं, उसके साथ एकत्र होते हैं और उसके साथ सह-अस्तित्व में रहते हैं।

प्रयागराज में हर 12वें साल होने वाला कुंभ मेला एक विशाल धार्मिक आयोजन है, जिसमें करोड़ों लोग गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर आस्था की डुबकी लगाने आते हैं। हालांकि, यह भक्ति और संस्कृति का उत्सव है, पर इसके साथ आती हैं पर्यावरण, सुरक्षा और भीड़ प्रबंधन से जुड़ी गंभीर चुनौतियां।

इस बार क्यों था कुंभ मेला खास?

इस बार का आयोजन 'महाकुंभ' कहलाया। क्योंकि 144 साल बाद गुरु, सूर्य और चंद्रमा का विशेष योग बना। यह आयोजन सिर्फ धार्मिक ही नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान का बड़ा प्रतीक बन गया।

ज़मीनी हकीकत

उत्तर प्रदेश सरकार ने दावा किया कि नए घाट बनाए गए, सड़कों का चौड़ीकरण हुआ, अस्थायी टेंट लगाए गए, विशेष ट्रेनें और बसें चलाई गईं। लेकिन हकीकत में भीड़ नियंत्रण में विफलता, ट्रैफिक जाम, ट्रेनें खचाखच भरी, हजारों श्रद्धालुओं को किलोमीटर पैदल चलना पड़ा. इतना ही नहीं, 29 जनवरी 2025 को मची भगदड़ में 30 लोगों की मौत और 60 से ज़्यादा घायल हुए। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 45 दिन में 66 करोड़ लोग पहुंचे। कुंभ मेला एक अस्थायी शहर की तरह होता है, जहां पानी, सफाई, कचरा प्रबंधन, परिवहन और सुरक्षा – सभी पर ज़बरदस्त दबाव पड़ता है।

पर्यावरण पर असर

गंगा और संगम के किनारे की नाजुक पारिस्थितिकी (ecology) पर सबसे ज़्यादा असर। प्लास्टिक, खाना, कपड़े, इंसानी कचरा सब नदी में पहुंचता है। फ्लडप्लेन पर निर्माण से मिट्टी दब जाती है, जिससे नदी का बहाव बदलता है। अस्थायी शौचालयों से गंदा पानी भूजल और नदी में मिल जाता है। ‘ग्रीन कुंभ’ के दावे किए जाते हैं। लेकिन जल परीक्षण बताते हैं कि आयोजन के बाद पानी की गुणवत्ता बेहद खराब हो जाती है।

ऐसे में क्या हम अपनी नदियों के साथ अन्याय कर रहे हैं? गंगा को हम मां कहते हैं, पर उसी में गंदगी डालते हैं। सरकार की ‘नमामि गंगे’ जैसी योजनाओं का असर कम हो जाता है, जब ऐसे महोत्सव नदी को प्रदूषित कर देते हैं। श्रद्धा के नाम पर हम कहीं अंधश्रद्धा तो नहीं दिखा रहे?

स्वास्थ्य और भीड़ प्रबंधन

बीमारियाँ फैलने का खतरा– जैसे डायरिया, हैजा, हेपेटाइटिस। सफाईकर्मी और कचरा उठाने वाले बिना सुरक्षा के काम करते हैं। भीड़ नियंत्रण– डिजिटल निगरानी के बावजूद हर बार अफरातफरी।

अब समय है बदलाव का

क्या कुंभ मेले को डिजिटल पंजीकरण से सीमित किया जा सकता है? क्या हम अलग-अलग स्थानों पर आयोजन करके भीड़ का दबाव कम कर सकते हैं? क्या हर श्रद्धालु को "प्रकृति रक्षक"** की भूमिका दी जा सकती है? क्या कुंभ को सस्टेनेबल और पर्यावरण-हितैषी आयोजन में बदला जा सकता है?

संवेदनशीलता और संतुलन की ज़रूरत

कुंभ मेला एक धार्मिक और सांस्कृतिक चमत्कार है। लेकिन इस चमत्कार को प्राकृतिक आपदा में बदलने से बचाना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। आस्था बनी रहे, पर प्रकृति की रक्षा के साथ। संस्कृति बचे, पर नदियां और जीवनदायिनी संसाधन भी सुरक्षित रहें।

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