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बिहार की मतदाता सूची संशोधन, वीआईपी प्रक्रिया या लोकतंत्र का अपमान?


बिहार की मतदाता सूची संशोधन, वीआईपी प्रक्रिया या लोकतंत्र का अपमान?
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बिहार में SIR प्रक्रिया को लेकर उठी आलोचनाएं एक बड़ी लोकतांत्रिक बहस को जन्म दे रही हैं। गरीब, वंचित और दस्तावेज़विहीन नागरिकों को मतदाता सूची से बाहर करना न केवल अलोकतांत्रिक है, बल्कि यह भारत जैसे विशाल और विविध देश की सामाजिक संरचना के भी खिलाफ है।

बिहार में मतदाता सूची की स्पेशल इंटेंसिव रिविजन (SIR) प्रक्रिया को लेकर चुनाव आयोग (EC) पर गंभीर सवाल उठने लगे हैं। विशेषज्ञों और नागरिक संगठनों ने इस पूरी प्रक्रिया को "अभिजात्यपूर्ण" (elitist) और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध बताया है। आरोप है कि आयोग का यह रवैया मानवीय अधिकारों के मूलभूत सिद्धांत — “जब तक अपराध साबित न हो, तब तक व्यक्ति निर्दोष होता है” का उल्लंघन कर रहा है।

दावा अतार्किक

चुनाव आयोग द्वारा यह दावा कि केवल वही तय करेगा कि कौन नागरिक वोट देने योग्य है, "घमंडपूर्ण सोच" करार दी गई है। आलोचकों का कहना है कि आयोग के तर्क विरोधाभासों से भरे हुए हैं और इन्हें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खारिज किया जाना चाहिए। सुझाव दिया गया है कि चुनाव आयोग को आगामी विधानसभा चुनावों से SIR प्रक्रिया को अलग करना चाहिए और नवंबर में होने वाले चुनाव मौजूदा सूची के आधार पर कराए जाएं, जिसमें नियमित रूप से नाम जोड़े और हटाए जाएं।

वोटर ID, आधार और राशन कार्ड को मान्यता देने की मांग

विशेषज्ञों ने मांग की है कि जब भी सूची की गहन समीक्षा की जाए, तब वोटर ID, आधार कार्ड और राशन कार्ड जैसे दस्तावेजों को वैध पहचान के रूप में स्वीकार किया जाए। यह भी कहा गया कि जिन व्यक्तियों की नागरिकता पर सवाल उठाया जाए, उनका दोष साबित करना EC की जिम्मेदारी होनी चाहिए।

2003 की सूची ही क्यों पवित्र?

चुनाव आयोग द्वारा 2003 की मतदाता सूची को प्रमाणिक मानने पर भी सवाल उठाए गए हैं। यह पूछा गया कि जब आयोग वर्तमान राशन कार्ड और वोटर ID को संदिग्ध मानता है तो 2003 में इन्हीं दस्तावेजों के आधार पर बनी सूची को कैसे पूरी तरह विश्वसनीय माना जा सकता है? क्या यह संभव नहीं कि उस समय भी फर्जी वोटर या विदेशी नागरिक सूची में शामिल हो गए हों?

गरीब और वंचितों के लिए असंभव मानक

बाढ़ और आपदाओं से प्रभावित गरीब, अर्ध-शिक्षित नागरिकों के पास ज़रूरी दस्तावेज़ नहीं हैं। आयोग ने जिन 11 दस्तावेजों की सूची दी है, उनमें से अधिकांश सरकारी कर्मचारियों, पासपोर्ट धारकों या शिक्षित लोगों के पास ही उपलब्ध हैं। जबकि देश की बड़ी आबादी इन मानकों पर खरी नहीं उतरती। उदाहरण के तौर पर:- केवल 2% भारतीयों ने कभी सरकारी नौकरी की है। 2022 के आंकड़ों के अनुसार, 10% से भी कम भारतीयों के पास पासपोर्ट है। अगर कोई बच्चा भारत में अवैध रूप से आई एक परिवार के साथ स्कूल जाता है और मैट्रिक पास कर लेता है तो आयोग इसे नागरिकता का प्रमाण मान लेता है — जो कि तर्कहीन है।

जन्म प्रमाणपत्र की चुनौती

EC का सुझाव है कि यदि किसी के पास अपना जन्म प्रमाणपत्र नहीं है तो वह माता-पिता का जन्म प्रमाणपत्र दिखाए। लेकिन सवाल उठता है कितने ग्रामीण या गरीब लोग अपने माता-पिता के जन्म प्रमाण पत्र प्रस्तुत कर सकते हैं? भारत में जन्म-मृत्यु पंजीकरण की स्थिति आज भी बेहद कमजोर है।

गांव, जमीन, प्रमाण और हकीकत

आयोग की ओर से आवास प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र, ज़मीन अलॉटमेंट और परिवार रजिस्टर जैसे दस्तावेजों को भी स्वीकार करने की बात कही गई है, पर सवाल है कि क्या यह मान लिया जाए कि हर सरकारी योजना के तहत मकान पाने वाला भारतीय नागरिक ही था?

लेख में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि चुनाव आयोग लोकतंत्र की रक्षा करने के बजाय उसकी नींव को कमजोर कर रहा है। यह दोहराया गया कि EC को यह याद रखना चाहिए कि वह जनता का सेवक है, शासक नहीं। भारत की संप्रभुता जनता में निहित है, किसी संस्था में नहीं।

(फेडरल सभी पक्षों से विचार और राय प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। लेख में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक की हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करें।)

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