
जब हज़ारों लोग संकर घाटियों से होकर उस समय यात्रा करते हैं, जब बादल फटने और मलबे के बहाव की संभावना सबसे अधिक होती है, तो यह एक ऐसी व्यवस्था बन जाती है जो खुद ही विनाश को न्योता देती है।
भारत में देवताओं का निवास माने जाने वाले हिमालय आज एक खतरनाक मोड़ पर खड़े हैं। आस्था की सदियों पुरानी परंपरा, तीर्थयात्रा, अब पारिस्थितिक नाज़ुकता और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते असर से टकरा रही है। अनियंत्रित पर्यटन, भौगोलिक दृष्टि से लापरवाह विकास और चरम मौसम की घटनाओं ने इसे केवल पर्यावरणीय संकट नहीं रहने दिया, बल्कि यह अब एक मानवीय त्रासदी बन चुका है जो न केवल पवित्र हिमालयी स्थलों को बल्कि तीर्थयात्रियों के जीवन को भी खतरे में डाल रहा है।
संवेदनशील पर्वतीय इलाकों में मानवीय भीड़ पहले कभी इतनी नहीं रही। आधिकारिक आँकड़े बताते हैं कि सिर्फ उत्तराखंड में ही चारधाम यात्रा में तीर्थयात्रियों की संख्या 2012 में 4.5 लाख से बढ़कर 2023 में 50 लाख से ऊपर पहुंच गई — एक ही दशक में दस गुना इजाफा।
बढ़ती नाजुकता
यह प्रवृत्ति सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित नहीं है। नीति आयोग ने धार्मिक पर्यटन को भारतीय हिमालयी क्षेत्र का प्रमुख क्षेत्र माना है और अनुमान लगाया है कि इसमें हर साल 15 से 20 प्रतिशत की वृद्धि होगी, जो इन इलाकों की क्षमता से कहीं अधिक है।
इस मानवीय लहर को संभालने के लिए बेतहाशा बुनियादी ढाँचे का निर्माण हुआ है, जो भौगोलिक वास्तविकताओं की अनदेखी करता है। समस्या सिर्फ गर्म और अधिक बरसाती वातावरण की नहीं है, बल्कि इस बात की भी है कि हम किस तरह पहाड़ों में सड़कें चौड़ी करते हैं, खड़ी ढलानों और नदी-तटों पर होटल-धर्मशालाएँ खड़ी करते हैं और संकरी घाटियों में लाखों की भीड़ उतार देते हैं। धार्मिक पर्यटन की आलोचना आस्था पर नहीं, बल्कि जोखिम के गणित पर है।
अस्थिर पहाड़ों पर सड़क चौड़ीकरण, ढलानों और नदी-तलों पर निर्माण, और चरम वर्षा या बर्फ़बारी के समय ढलानों के धंसने से नदियाँ अवरुद्ध हो जाती हैं, अचानक बाढ़ आती है और बस्तियाँ बह जाती हैं। यह केवल “प्राकृतिक” आपदाएँ नहीं हैं, इंसानी दखल भी उतना ही ज़िम्मेदार है।
जलवायु परिवर्तन: ख़तरे का गुणक
जलवायु परिवर्तन इस संकट का “फ़ोर्स मल्टिप्लायर” बन गया है। मौसम विभाग के अनुसार, पश्चिमी हिमालय में पिछले दो दशकों में अत्यधिक वर्षा की घटनाएँ तेज़ी से बढ़ी हैं। वनों की कटाई, अंधाधुंध निर्माण और प्राकृतिक नालों के अवरोध ने जलग्रहण क्षेत्रों को कमजोर बना दिया है। नतीजा, भीषण बाढ़ और भूस्खलन, जो भीड़भाड़ वाली घाटियों को तबाह कर देते हैं।
इसका असर कई बड़ी आपदाओं में दिख चुका है, 2013 की केदारनाथ त्रासदी, 2021 की ऋषिगंगा बाढ़, 2022 की अमरनाथ बादल फटना, और हर साल तीर्थ मार्गों पर भूस्खलनों का सिलसिला।
पर्यावरणीय कीमत
अध्ययन बताते हैं कि गंगोत्री जैसे प्रमुख तीर्थस्थलों पर रोज़ाना 50 टन से ज़्यादा प्लास्टिक कचरा निकलता है। केदारनाथ क्षेत्र के 65% प्राकृतिक स्रोत सूख चुके हैं, जिनका सीधा संबंध यात्रियों की बढ़ती मांग और recharge ज़ोन के बिगड़ने से है। पवित्र नदियाँ अब गंदगी और सीवेज की धाराओं में बदल रही हैं।
राजनीतिक चुनौती
हिमालय की वहन क्षमता (carrying capacity) स्पष्ट रूप से पार हो चुकी है। पवित्र धामों की रक्षा और आपदाओं से बचाव के लिए यात्री संख्या सीमित करना ज़रूरी है। लेकिन यह करना आसान नहीं है। क्या मौजूदा राजनीति, कॉरिडोर निर्माण और “हमेशा खुले” यात्रा कैलेंडर के बीच तीर्थयात्रियों की संख्या पर नियंत्रण संभव है? प्रोत्साहन तो इसके उलट दिशा में जाते दिखते हैं।
राजनीतिक सत्ता की धार्मिक पहुँच सुनिश्चित करने की वैचारिक प्रतिबद्धता आगंतुकों पर रोक लगाने के रास्ते में भारी बाधाएँ पैदा करती है। शासन धार्मिक पर्यटन को सांस्कृतिक पहचान और आर्थिक विकास की अभिव्यक्ति मानता है, जिससे यह प्रोत्साहन मिलता है कि लगातार बढ़ती संख्या को सीमित करने के बजाय बुनियादी ढाँचे के विस्तार से समायोजित किया जाए।
आधिकारिक आँकड़े बताते हैं कि केवल उत्तराखंड में ही चारधाम यात्रा में विस्फोटक वृद्धि हुई है, 2012 में 4.5 लाख से बढ़कर 2023 में 50 लाख से अधिक हो गए, यानी महज एक दशक में दस गुना बढ़ोतरी। भारत का आध्यात्मिक पर्यटन 2028 तक लगभग 59 अरब डॉलर का होने का अनुमान है, ऐसे में आर्थिक प्रोत्साहन पारिस्थितिक विवेक से मेल नहीं खाते। सरकार का विकास मॉडल धार्मिक अवसंरचना विस्तार को पर्यावरणीय संरक्षण पर प्राथमिकता देता है, जिससे वैज्ञानिक चेतावनियों के बावजूद आगंतुकों की संख्या पर रोक लगाना असंभव बन जाता है। धार्मिक स्थलों पर श्रद्धालुओं की संख्या सीमित करने का राजनीतिक ख़र्चा, शासन की धार्मिक राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि में, पर्यावरण संरक्षण के संभावित फ़ायदों से अधिक भारी पड़ता है।
केवल एक ही परिणाम
यदि मौजूदा रास्ता जारी रहता है तो लगातार आपदाएँ ही एकमात्र परिणाम होंगी। श्रद्धालुओं की संख्या हर साल 7–10 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है, अवसंरचना बिना पर्यावरणीय सुरक्षा के विस्तारित हो रही है, और जलवायु प्रभाव तीव्र हो रहे हैं। अगले 10 वर्षों में सिर्फ चारधाम सर्किट पर ही सालाना 1 करोड़ से अधिक श्रद्धालु पहुँच सकते हैं।
यह घनत्व, निर्माण और सड़क चौड़ीकरण से अस्थिर हुई ढलानों, कचरे और अवैध ढाँचों से भरी घाटियों, और चरम मौसम की घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति व तीव्रता के साथ मिलकर अभूतपूर्व पैमाने और घातकता के भूस्खलन और अचानक बाढ़ की परिस्थितियाँ बनाएगा। अस्थिर ज़मीन पर बार-बार बनाए गए ढाँचे तेज़ी से क्षतिग्रस्त होंगे और ध्वस्त होंगे। जलस्रोत गायब होने और नदियों के अपूरणीय रूप से प्रदूषित हो जाने से पानी की किल्लत संकट स्तर तक पहुँच जाएगी। श्रद्धालु यात्रा का आध्यात्मिक सार, ख़तरे, भीड़भाड़ और पर्यावरणीय क्षरण से दम तोड़ देगा।
इससे बचाव के लिए आवश्यक है एक बुनियादी बदलाव, जो भावनाओं में नहीं बल्कि वैज्ञानिक साक्ष्यों और साहसी शासन में निहित हो।
पर्यावरणीय पतन से बचने के लिए केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति से परे जाकर तत्काल हस्तक्षेप की ज़रूरत है। वैज्ञानिक सिफारिशें अनियंत्रित शहरीकरण, जलविद्युत परियोजनाओं के अत्यधिक विकास और संसाधनों के अंधाधुंध दोहन पर सख़्त रोक लगाने पर ज़ोर देती हैं।
कार्यान्वयन के लिए पर्यावरणीय लचीलापन के आधार पर वैज्ञानिक रूप से निर्धारित आगंतुक सीमा लागू करनी होगी, न कि आर्थिक क्षमता के आधार पर। भूगर्भीय रूप से अस्थिर और बाढ़ संभावित क्षेत्रों में निर्माण पर रोक लगानी होगी। प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों की तैनाती से हिमनदी झील फटने और भूस्खलन से जोखिम कम किया जा सकता है। हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र अंतरराष्ट्रीय है, इसलिए देशों के बीच जलवायु डेटा और आपदा प्रबंधन साझा करने में सहयोग ज़रूरी है।
हिमालय की नाज़ुकता कोई कमी नहीं, बल्कि उसकी मूलभूत विशेषता है, जिसका सम्मान होना चाहिए। वैज्ञानिक साक्ष्य स्पष्ट हैं: यात्राओं का प्रबंधन विवेक, संयम और पारिस्थितिक अखंडता की प्रतिबद्धता के साथ करें—अन्यथा देवताओं का निवासस्थान एक ऐसे युग में प्रवेश करेगा जहाँ रोकी जा सकने वाली त्रासदी और अपूरणीय क्षति अपरिहार्य होगी।