
दक्षिण एशिया में धार्मिक हिंसा सामान्य होती जा रही है। धर्म, सत्ता और डिजिटल अफ़वाहों की जुगलबंदी ने नैतिकता और लोकतंत्र दोनों को खतरे में डाल दिया है।
दक्षिण एशिया में धार्मिक हिंसा अब कोई अपवाद नहीं रही। यह एक चिंताजनक रूप से नियमित घटना बन चुकी है। क्रिसमस मनाने वाले लोगों पर हमले, अफ़वाहों के आधार पर की गई लिंचिंग, और सोशल मीडिया के ज़रिये कुछ ही घंटों में जुटाई गई भीड़ ये अब अलग-थलग घटनाएं नहीं, बल्कि क्षेत्र के सार्वजनिक जीवन की बार-बार दोहराई जाने वाली सच्चाई बन गई हैं। जब हिंसा इतनी नियमित हो जाए, तो यह केवल पुलिसिंग या ख़ुफ़िया तंत्र की विफलता नहीं होती। यह नैतिक कल्पना (मोरल इमैजिनेशन) के पतन का संकेत है यानी किसी समाज की वह क्षमता समाप्त हो जाना, जिसमें वह किसी को दुश्मन घोषित करने से पहले उसकी इंसानियत को पहचान सके। यह पतन अब पूरे उपमहाद्वीप में, भारत के पड़ोसी देशों सहित, फैल चुका है और यह हमें गहरे स्तर पर विचलित करना चाहिए।
यह उस क्षेत्र में एक सभ्यतागत पतन को दर्शाता है जिसने कभी धार्मिक अहंकार और नैतिक निश्चयवाद की दुनिया की सबसे गहन आलोचनाएँ प्रस्तुत की थीं।
नैतिक आवरण के रूप में धर्म
दक्षिण एशिया कभी अंधविश्वास की सभ्यता नहीं रहा। इसकी दार्शनिक परंपराओं ने निरपेक्ष सत्य और कठोर मान्यताओं पर संदेह किया। उपनिषदों ने संदेह को ही ज्ञान का मार्ग बताया। बौद्ध दर्शन ने चेताया कि कठोर आस्था दुःख का कारण बनती है। सूफ़ी कवियों ने नैतिक घमंड के भीतर छिपी क्रूरता को उजागर किया और भक्ति संतों ने बाहरी पदानुक्रम को तोड़ते हुए करुणा और आंतरिक भक्ति को महत्व दिया।
ये परंपराएँ केवल सह-अस्तित्व में नहीं थीं; इन्होंने मिलकर एक ऐसी नैतिक पारिस्थितिकी बनाई जो सत्ता के प्रति संशयवादी, पूर्ण निश्चितता से सतर्क और आस्था के नाम पर होने वाली क्रूरता की शत्रु थी। आज जो हम देख रहे हैं, वह इन परंपराओं के साथ विश्वासघात नहीं है। समकालीन धार्मिक हिंसा को चलाने वाली शक्ति धर्मशास्त्र नहीं है—बल्कि सत्ता है।
कोई भी धर्मग्रंथ लिंचिंग का आदेश नहीं देता। कोई भी आस्था निर्दोषों की हत्या या घर जलाने को पवित्र नहीं ठहराती। हिंसा तब फूटती है जब धर्म अहंकार को नियंत्रित करने के बजाय उसे वैध ठहराने लगता है; जब आस्था राजनीतिक सत्ता से जुड़ जाती है और आत्म-आलोचना को त्याग देती है। उस बिंदु पर क्रूरता को नैतिक आवरण मिल जाता है। हत्या “आत्मरक्षा” बन जाती है। नफ़रत को “साहस” का नाम दे दिया जाता है। भक्ति पीछे हट जाती है।
यह किसी एक धर्म के दूसरे पर हमले की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस स्थिति की कहानी है जब कोई भी आस्था न्याय करने, दंड देने और मिटा देने का अधिकार अपने हाथ में ले लेती है।
धार्मिक लामबंदी और युवा आबादी
यह परिवर्तन एक ऐसे जनसांख्यिकीय परिदृश्य में हो रहा है जो इसे और भी विस्फोटक बनाता है। दक्षिण एशिया असाधारण रूप से युवा है। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में करोड़ों युवा तीस वर्ष से कम उम्र के हैं, जो ऐसे श्रम बाज़ारों में प्रवेश कर रहे हैं जो उन्हें समाहित नहीं कर पा रहे और ऐसे शिक्षा तंत्रों से निकल रहे हैं जो उन्हें समुचित कौशल नहीं दे पा रहे।
यह केवल आर्थिक चुनौती नहीं, बल्कि एक नैतिक आपातकाल है। जब शिक्षा आलोचनात्मक सोच विकसित नहीं कर पाती और रोज़गार गरिमा नहीं देता, तो युवा उन विचारधाराओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो जाते हैं जो उन्हें तुरंत पहचान, सरल व्याख्याएँ और स्पष्ट दुश्मन प्रदान करती हैं। धार्मिक लामबंदी ये तीनों देती है।
आज एक ऐसा युवा, जिसके पास अवसर नहीं हैं लेकिन स्मार्टफ़ोन है, कुछ ही घंटों में असंतोष की राजनीति में भर्ती किया जा सकता है। आर्थिक बहिष्कार को सभ्यतागत अपमान के रूप में पेश किया जाता है। जो प्रक्रिया पहले वर्षों में होती थी, वह अब एल्गोरिदम-आधारित फ़ीड्स के ज़रिये हफ्तों में पूरी हो जाती है। पूरे क्षेत्र में लिंच भीड़ में शामिल लोगों की उम्र अक्सर कम होती है।
मंदिरों में तोड़फोड़ करने वाले, चर्चों पर हमले करने वाले या धार्मिक संहिताएँ लागू करने वाले विजिलांटी समूहों में असमान रूप से युवा पुरुष शामिल होते हैं—जिन्हें बहिष्कार के बदले पहचान सौंप दी जाती है।
डिजिटल तकनीक: हिंसा का उत्प्रेरक
डिजिटल तकनीक ने इस अस्थिरता को और तेज़ कर दिया है। आज अफ़वाहें घातक गति से फैलती हैं। जो बातें पहले दिनों में फैलती थीं, वे अब मिनटों में लाखों लोगों तक पहुँच जाती हैं। सोशल मीडिया पर फैली अफ़वाहों के बाद बांग्लादेश में एक हिंदू लड़के की हत्या इसका प्रतीक है—जहाँ अप्रमाणित दावे जाँच या संयम से पहले ही “सत्य” बन जाते हैं।
सोशल मीडिया केवल पूर्वाग्रह को बढ़ाता नहीं है, बल्कि उसे गढ़ता भी है।
नैतिक रूप से अक्षम्य उदासीनता
भारत के शहरी, शिक्षित मध्यम वर्ग के लिए इस हिंसा को कभी-कभार होने वाली अति मानकर नज़रअंदाज़ करने का प्रलोभन मौजूद है। यह प्रलोभन नैतिक रूप से अक्षम्य है। लोकतंत्र प्रायः नाटकीय तख़्तापलट से नहीं गिरते। वे चुप्पी के ज़रिये, स्थिरता के नाम पर दी गई तर्कसंगतियों के ज़रिये, और क्रूरता की सीमाओं को एक-एक घटना करके नीचे खिसकाने से क्षरित होते हैं।
डिजिटल युग में यह क्षरण दशकों में नहीं, बल्कि एक ही समाचार चक्र में हो सकता है। प्रमाण स्पष्ट हैं। भारत में गाय के वध की अफ़वाहों पर मुस्लिम पुरुषों की लिंचिंग एक भयावह पैटर्न बन चुकी है, जहाँ सबूत की जगह अफ़वाह ले लेती है और भीड़ स्वयं न्यायाधीश बन जाती है। हमलों को रिकॉर्ड कर उत्सव की तरह साझा किया जाता है। चर्चों पर हमले हुए हैं, ननों के साथ मारपीट की गई है और पादरियों को “धर्मांतरण रोकने” के नाम पर पीटा गया है। दलितों को तब निशाना बनाया जाता है जब जातिगत पदानुक्रम को धार्मिक परंपरा के रूप में बचाया जाता है—उनका उत्पीड़न लाइव-स्ट्रीम होकर मज़ाक बनता है।
बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ़ हिंसा चिंताजनक नियमितता के साथ हो रही है—मंदिरों में तोड़फोड़, घरों को जलाना, परिवारों को विस्थापित करना—जिससे उस धर्मनिरपेक्ष वादे को खोखला किया जा रहा है जिस पर देश की स्थापना हुई थी। पाकिस्तान में असहिष्णुता संस्थागत रूप ले चुकी है—हज़ारा शियाओं को निशाना बनाया जाता है, अहमदियों को अपराधी बनाया गया है, और ईशनिंदा के आरोप ऑनलाइन उकसाई गई भीड़ द्वारा मौत की सज़ा में बदल दिए जाते हैं। श्रीलंका और म्यांमार इस राह का अंतिम पड़ाव दिखाते हैं, जहाँ उत्पीड़न अति न रहकर नीति बन जाता है।
क्रूरता का सामान्यीकरण
भारत के लिए ख़तरा किसी आयातित धार्मिक शासन में बदल जाना नहीं है। हमारा समाज अत्यधिक बहुलतावादी, तर्कशील और संवैधानिक रूप से जटिल है। असली ख़तरा अधिक सूक्ष्म और दीर्घकालिक है—क्रूरता का सामान्यीकरण, जिसे स्थानीय रूप से उचित ठहराया जाता है, सांस्कृतिक तर्क दिए जाते हैं, डिजिटल माध्यम से बढ़ाया जाता है और राजनीतिक संरक्षण मिलता है।
यह प्रवृत्ति केवल दक्षिण एशिया तक सीमित नहीं है। पूरी दुनिया में अतिराष्ट्रवाद और सशक्त नेता राजनीति ने धर्म और संस्कृति को नियंत्रण के औज़ार के रूप में फिर खोज लिया है। आस्था को आज्ञाकारिता तक सीमित कर दिया गया है। असहमति को विश्वासघात कहा जाने लगा है। भारत की संवेदनशीलता हमारे अधूरे ऐतिहासिक घावों, गहरी असमानता और बहुस्तरीय पहचानों में निहित है, जो वैश्विक सत्तावादी प्रवृत्तियों को स्थानीय धार्मिक रूप दे देती हैं।
यह क्षण स्पष्टता की मांग करता है। कोई द्विअर्थिता नहीं, कोई गणनात्मक अस्पष्टता नहीं, और न ही चुनावी लाभ को नैतिक कीमत से तौलने की चालाकी। सरकारों को संकोच छोड़कर साम्प्रदायिक हिंसा को संवैधानिक और सभ्यतागत आपातकाल की तरह लेना चाहिए।
किसी भी प्रकार की हिंसा का संरक्षण घृणित और अनैतिक है। क़ानून का शासन धर्म के आधार पर भेदभाव किए बिना लागू होना चाहिए। घृणा अपराधों की तेज़ी से जाँच होनी चाहिए और खुले तौर पर अभियोजन किया जाना चाहिए। पुलिस को राजनीतिक दबाव से मुक्त किया जाना चाहिए। अदालतों को समझना होगा कि विलंबित न्याय, मिलीभगत से अलग नहीं होता।
शिक्षा को वैचारिक कब्ज़े का विरोध करना चाहिए, लेकिन यह भी स्वीकार करना होगा कि युवाओं की असली कक्षाएँ आज डिजिटल हैं। शिकायत के रूप में पढ़ाया गया इतिहास आक्रोश और भीड़ पैदा करता है। धार्मिक संस्थानों को अपने नाम पर की गई हिंसा को स्पष्ट रूप से अस्वीकार करना चाहिए। मीडिया और नागरिक समाज की भी जिम्मेदारियाँ हैं, लेकिन असली युद्धक्षेत्र डिजिटल प्लेटफॉर्म हैं, जहाँ आक्रोश का मुद्रीकरण होता है और विभाजन को इनाम मिलता है।
सबसे बढ़कर, बड़े पैमाने पर आर्थिक अवसर पैदा करने होंगे। जो समाज लाखों युवाओं को बेरोज़गारी में धकेल देता है और साथ ही उनके हाथ में स्मार्टफ़ोन भी थमा देता है, वह अपनी ही तबाही की नींव रखता है। जब गरिमा खत्म होती है, तो धर्म सबसे प्रभावी लामबंदी की भाषा बन जाता है।
भारत एक नैतिक चौराहे पर खड़ा है। वह या तो धर्म को भय और सत्ता की भाषा के रूप में इस्तेमाल करता रहे—डिजिटल माध्यम से बढ़ाकर, बेचैन युवाओं को लक्ष्य बनाकर। या फिर वह धर्म को संयम और साझा नागरिकता के अनुशासन के रूप में पुनः स्थापित करे, साथ ही आर्थिक और शैक्षिक आधार तैयार करे जो युवाओं को दुश्मन नहीं, उम्मीद दे।
इतिहास हमें हमारे घोषित विश्वास से नहीं, बल्कि उस क्रूरता से आँकेगा जिसे हमने सहन किया।


