
राजनीति और समाज में बेजोड़ पहुंच के साथ, संघ गहरी होती फूट, वैचारिक तनाव और बदलती दुनिया में काम के बने रहने की चुनौती से निपट रहा है।
एक सदी तक इतिहास के उतार–चढ़ाव का सामना बहुत कम संगठन कर पाते हैं। अक्टूबर 2025 में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने अपना शताब्दी वर्ष मनाया, तो वह उस मुकाम पर खड़ा था जिसकी कल्पना उसके संस्थापकों ने भी नहीं की होगी। कभी एक सीमित स्थानीय प्रभाव वाला ढीला-ढाला स्वयंसेवी नेटवर्क, आरएसएस आज एक प्रभावशाली नागरिक–समाज आंदोलन बन चुका है, जिसकी वैचारिक दृष्टि भारत की राजनीतिक नेतृत्व–शैली को प्रभावित करती है। इसके स्वयंसेवक देश की सत्ताधारी पार्टी के विभिन्न स्तरों पर मौजूद हैं और इसकी विचारधारा नीति निर्धारण, शिक्षा, सामाजिक कल्याण और सार्वजनिक विमर्श को लगातार आकार दे रही है।
लेकिन जहाँ इसका प्रभाव विस्तृत हुआ है, वहीं इसके ऐतिहासिक उत्तराधिकार, भारत के अल्पसंख्यकों के प्रति इसके जटिल संबंध और देश–विदेश में इसके भविष्य के लक्ष्यों पर सवाल भी उतनी ही तीव्रता से उठते रहे हैं। कई उदारवादी बुद्धिजीवियों के लिए गांधी की हत्या के समय का वैमनस्यपूर्ण माहौल और आरएसएस के बीच नैतिक संबंध आज भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। दूसरी ओर, संघ के लिए वह प्रकरण राज्य के अतिक्रमण और राजनीतिक बलि–बकरा बनाए जाने का प्रतीक है। व्याख्या का यही अंतर इसकी जन–छवि को आज भी प्रभावित करता है।
आरएसएस को वर्तमान में समझने के लिए न तो उसकी निंदा जरूरी है, न अतिरंजित प्रशंसा, बल्कि यह स्वीकारना आवश्यक है कि यह वह संगठन है जिसने साम्राज्यों, राजनीतिक चक्रों और वैचारिक लहरों को झेलते हुए खुद को टिकाए रखा — और अब अपने इतिहास में पहली बार इतनी विशाल शक्ति और जिम्मेदारी के बीच संतुलन साधने की चुनौती का सामना कर रहा है।
हिंदू सामाजिक असुरक्षा से जन्मा संगठन
1925 में नागपुर में डॉ. के.बी. हेडगेवार द्वारा स्थापित आरएसएस का उदय खलीफत आंदोलन के दौर में हिंदू समाज की असुरक्षा–भावना से हुआ। हेडगेवार का निदान राजनीतिक से अधिक सभ्यतागत था — उनका मानना था कि जातीय और क्षेत्रीय विभाजनों से टूटा हुआ हिंदू समाज आत्म–शासन के लिए आवश्यक एकता से वंचित है। इसका समाधान उन्होंने संगठनात्मक अनुशासन में देखा — दैनिक शाखाएँ, समान वेशभूषा और स्थानीय स्वयंसेवकों का मजबूत नेटवर्क।
एम.एस. गोलवलकर के नेतृत्व (1940–1973) में संघ को स्पष्ट वैचारिक फ्रेम मिला। उन्होंने ‘हिंदू राष्ट्र’ की अवधारणा प्रस्तुत की — जिसे संघ धर्मतंत्र नहीं, बल्कि साझा सांस्कृतिक–सभ्यतागत विरासत पर आधारित राष्ट्र मानता है। आलोचकों के लिए यह बहिष्कारी विचार था; समर्थकों के लिए भारतीय पहचान का सांस्कृतिक पुनरुद्धार। लेकिन किसी भी दृष्टि से देखें, यह आधुनिक भारत में सबसे निरंतर, सामाजिक–सांस्कृतिक–राष्ट्रवादी प्रोजेक्ट की बौद्धिक नींव बन गया।
गांधी की हत्या की छाया
1948 में महात्मा गांधी की हत्या आरएसएस के इतिहास पर सबसे लंबी छाया बनकर उभरी। वरिष्ठ संघ नेता एम.जी. वैद्य ने ‘द हिंदू’ को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि यह संघ के लिए सबसे कठिन समय था — जनता, सरकार और मीडिया तीनों उसके खिलाफ थे, और परिणामस्वरूप संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। प्रतिबंध तभी हटा जब आरएसएस ने लिखित संविधान अपनाने और औपचारिक संचालन की सहमति दी।
उदारवादी हलकों में आज भी यह बहस जारी है कि क्या गांधी के प्रति फैलाए गए वैमनस्य का नैतिक भार आरएसएस से जुड़ा था। वहीं संघ इसे राज्य के दमन और राजनीतिक आरोप–प्रत्यारोप की मिसाल मानता है। यह वैचारिक अंतर आज भी सार्वजनिक धारणा को आकार देता है।
देवरस के दौर में निर्णायक बदलाव
आरएसएस की राजनीतिक यात्रा में सबसे बड़ा परिवर्तन 1973 में गोलवलकर के उत्तराधिकारी बने माधवराव ‘बालासाहब’ देवरस के दौर में आया। गोलवलकर जहां विचारक थे, वहीं देवरस रणनीतिकार। उन्होंने समझा कि सामाजिक प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए संघ को अपनी सीमित जातीय संरचना से बाहर निकलकर लोकतांत्रिक संस्थानों से संवाद स्थापित करना होगा।
जेपी आंदोलन के दौरान एबीवीपी की सक्रिय भागीदारी ने संघ को नई वैधता दी। फिर 1975–77 का आपातकाल निर्णायक साबित हुआ — हजारों स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी के बाद संघ एक ऐसे संगठन के रूप में उभरा जिसने ‘तानाशाही के खिलाफ लड़ाई’ में भूमिका निभाई थी। देवरस ने विपक्षी दलों के साथ सहयोग बढ़ाया और जनसंघ तथा आगे चलकर भाजपा के उदय की आधारशिला मजबूत की। इसी काल में उन्होंने जाति पर ऐतिहासिक, भले ही विवादित, हस्तक्षेप किया और मुसलमानों को जोड़ने की असफल कोशिश भी की। 1974 में उन्होंने सार्वजनिक रूप से अस्पृश्यता को ‘पाप’ कहा — संघ के सामाजिक दृष्टिकोण में आंशिक बदलाव का संकेत।
भागवत के नेतृत्व में समावेशी छवि की कोशिश
2009 में मोहन भागवत के सरसंघचालक बनने के बाद संघ ने अधिक आत्ममंथन और भविष्य–केन्द्रित दृष्टि अपनाई। उन्होंने मुस्लिम समूहों से संवाद बढ़ाया, पूर्व की बहिष्कारी धारणाओं से दूरी बनाई और जाति–असमानता पर बहस को प्रोत्साहित किया। लेकिन व्यापक हिंदुत्व पारिस्थितिकी तंत्र में कई आवाजें अक्सर नेतृत्व की ‘समावेशी भाषा’ से आगे निकल जाती हैं, जिससे आरएसएस की दोहरी छवि बनती है — एक मध्यमार्गी नेतृत्व और दूसरा अधिक आक्रामक जमीनी नेटवर्क। विशेषकर भाजपा शासित राज्यों में मुस्लिम घरों पर बुलडोज़र, ईसाइयों के साथ दुर्व्यवहार, लिंचिंग की पुकार और अल्पसंख्यक व्यवसायों के बहिष्कार ने भागवत की कोशिशों पर सवाल खड़े किए हैं।
अभूतपूर्व विस्तार वाला नेटवर्क
आज आरएसएस दुनिया के सबसे व्यापक सामाजिक नेटवर्कों में से एक का नेतृत्व करता है, जिसे ‘संघ परिवार’ कहा जाता है — जिसमें भाजपा, विहिप, एबीवीपी, बीएमएस, बड़ी शिक्षा–कल्याण संस्थाएँ और प्रवासी संगठनों जैसे हिंदू स्वयंसवेवक संघ शामिल हैं। इसकी अपील का रहस्य है — अनुशासन, सामाजिक सेवा, स्थिर नेतृत्व और स्पष्ट वैचारिक कथा। डिजिटल युग, शहरीकरण और हिंदू मध्यमवर्ग के उदय ने इसकी पहुँच कई गुना बढ़ाई है।
लेकिन साथ ही इसके साथ जुड़ते हैं कठोर सवाल — सांप्रदायिक हिंसा, अल्पसंख्यक अधिकार और संस्थागत प्रभाव से जुड़े प्रश्न। संघ हिंसा से दूरी का दावा करता है, लेकिन उसके पारिस्थितिकी तंत्र के कुछ समूह तनाव और दंगों की घटनाओं में सक्रिय पाए गए हैं। भाजपा नेताओं की राम जन्मभूमि आंदोलन में भूमिका, बाबरी मस्जिद विध्वंस, उसके बाद हुए दंगे और नागरिकता संशोधन कानून—ये सभी आलोचकों के लिए संघ की ‘एंटी–माइनॉरिटी’ छवि के स्थायी प्रमाण हैं।
दुनिया में बढ़ता प्रभाव
आर्थिक उदारीकरण के बाद उभरा नया, वैश्विक जुड़ाव वाला लेकिन सांस्कृतिक रूप से जड़ वाला भारतीय मध्यमवर्ग संघ की विचारधारा के लिए उपजाऊ जमीन बना। अप्रत्याशित रूप से, संघ का प्रभाव भारतीय प्रवासी समुदाय में भी तेज़ी से बढ़ा है। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा में समृद्ध और राजनीतिक रूप से सक्रिय डायस्पोरा ‘हिंदुफोबिया’ जैसी बहसों, लॉबिंग और भारत–समर्थक नेताओं को समर्थन देने में संघ–संबद्ध समूहों की भूमिका बढ़ा रहा है। अफ्रीका, दक्षिण–पूर्व एशिया और खाड़ी देशों में यह संगठन शिक्षा, मंदिर निर्माण और सामुदायिक सेवा के माध्यम से एक ‘सॉफ्ट सांस्कृतिक पहचान’ स्थापित करता है।
भविष्य की राह
100 वर्ष पूरे होने पर आरएसएस अब बाहरी या हाशिये का संगठन नहीं रहा। यह भारतीय सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की ऊंची चोटियों पर बैठा है। इसकी ताकतें स्पष्ट हैं — अनुशासन, सामाजिक प्रतिबद्धता और लंबी अवधि की सोच। कमजोरियाँ भी उतनी ही स्पष्ट हैं — सांप्रदायिक तनावों से जुड़ा इतिहास, अल्पसंख्यकों के प्रति अविश्वास, और वैचारिक कठोरता।
आगे बढ़ते हुए, संघ परिवार को यह तय करना होगा कि वह भारत में असमानताओं को कम करने, अंत्योदय के वादे को मजबूत करने, अपनी पंक्तियों में अधिक समावेश लाने और सांप्रदायिक तत्वों पर नियंत्रण करने में कैसी भूमिका निभाना चाहता है।



