Nilanjan Mukhopadhyay

आरएसएस का शताब्दी समारोह: मोदी और भागवत के भाषण में विरोधाभास, असल मुद्दों पर चुप्पी


आरएसएस का शताब्दी समारोह: मोदी और भागवत के भाषण में विरोधाभास, असल मुद्दों पर चुप्पी
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आरएसएस की शताब्दी समारोह के दौरान अपने भाषणों में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक-दूसरे की खूब तारीफ की। मोदी ने आरएसएस और उसके सरसंघचालक की सराहना की, जबकि भागवत ने सरकार के कुछ निर्णयों का समर्थन किया।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक-दूसरे की तारीफ़ों के पुल बाँधते हुए हिंदू पहचान पर लंबी बातें कीं, लेकिन सांप्रदायिक असहिष्णुता जैसे वास्तविक मुद्दों पर चुप्पी साधे रखी।

2 अक्टूबर को नागपुर में विजयादशमी के अवसर पर हुए बहुचर्चित समारोह के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का बहुप्रतीक्षित शताब्दी समारोह अंततः निराशाजनक साबित हुआ। इससे पहले दिल्ली में नवसज्जित कार्यालय में एक भव्य कार्यक्रम आयोजित हुआ था, जहाँ आरएसएस के सबसे प्रभावशाली पूर्व ‘प्रचारक’ और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभा को संबोधित किया। लेकिन इन आयोजनों से शताब्दी समारोह का स्तर ज़्यादा नहीं उठा।

भागवत का बढ़ा-चढ़ा हुआ आह्वान

समारोह इसलिए भी फीका रहा क्योंकि इसमें कोई नया विचार नहीं था — सिवाय मोहन भागवत के इस महत्वाकांक्षी आह्वान के कि “भारत की सच्ची पहचान को एक बार फिर दुनिया में स्थापित किया जाए,” जैसा कि पहले भी हुआ करता था, जब “दुनिया के देशों के बीच शत्रुता और संघर्ष भारत की मधुर और ज्ञानपूर्ण वाणी सुनने के बाद समाप्त हो जाते थे।”

यह कहना अतिशयोक्ति होगी, लेकिन आरएसएस प्रमुख ने अपने विजयादशमी भाषण का समापन इन्हीं पंक्तियों से किया, जो दरअसल पश्चिम बंगाल के एक पूर्व संघ प्रमुख की कविता से ली गई थीं। भले ही भागवत ने यह दावा स्वयं न किया हो कि भारत (यानी ‘भारतवर्ष’) पूरी मानवता की समस्याओं का समाधानकर्ता है, लेकिन इस अवसर पर उन्होंने इस दृष्टिकोण को समर्थन देकर इसे अपना बना लिया।

मनमुटाव दूर करने की कोशिश

इस साल का विजयादशमी उत्सव आरएसएस और भाजपा, विशेषकर भागवत और मोदी के बीच के तनाव के बीच आया। लेकिन अवसर की गंभीरता को देखते हुए दोनों ने आपसी मतभेदों को किनारे रखकर एक-दूसरे की प्रशंसा की। मोदी ने संगठन और सरसंघचालक दोनों की खुलकर तारीफ की, जबकि भागवत ने सरकार के कुछ निर्णयों का समर्थन किया।

मोदी ने अपने भाषण में कहा कि आरएसएस की स्थापना “कोई पूरी तरह नई चीज़ नहीं” थी। उन्होंने कहा, “यह एक प्राचीन परंपरा का नया रूप है — वह परंपरा जिसमें भारत की सनातन राष्ट्रीय चेतना समय-समय पर अलग-अलग रूपों में प्रकट होती है, ताकि युगीन चुनौतियों का सामना कर सके।”

एक-दूसरे की तारीफ़ें

मोदी ने अपने संबोधन में यह भी कहा कि उन्होंने जो भी राजनीतिक और प्रशासनिक कौशल सीखे, वे सब आरएसएस में स्वयंसेवक और वरिष्ठ पदों पर रहते हुए हासिल किए। उन्होंने ‘शाखा’ को “ऐसा प्रेरणादायक स्थान बताया, जहाँ हर स्वयंसेवक अपनी यात्रा ‘मैं से हम’ की ओर शुरू करता है और व्यक्तिगत रूपांतरण की प्रक्रिया से गुजरता है।”

दूसरी ओर, मोहन भागवत ने अप्रैल में पहलगाम में निर्दोष नागरिकों पर हुए आतंकी हमले का ज़िक्र करते हुए पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों पर भारत सरकार की कार्रवाई को “उचित जवाब” बताया। उन्होंने देश के नेतृत्व की दृढ़ता, सशस्त्र बलों के शौर्य और तत्परता, तथा समाज की एकता की भी प्रशंसा की।

भागवत ने सरकार की नक्सलवाद को कमजोर करने की नीति की सराहना करते हुए कहा कि “सरकार की सख्त कार्रवाई और जनता के बीच इस विचारधारा की खोखलापन व क्रूरता के अहसास के कारण” यह समस्या काफी हद तक नियंत्रण में आ गई है।

सरकार की आलोचना भी की

हालाँकि, सरसंघचालक ने यह भी माना कि नक्सलवाद की जड़ें उन इलाकों में हैं जहाँ “शोषण और अन्याय, विकास की कमी और प्रशासन की संवेदनहीनता” है। उन्होंने कहा, “अब जब ये बाधाएँ दूर की जा चुकी हैं, तो ज़रूरी है कि इन क्षेत्रों में न्याय, विकास, सद्भावना, सहानुभूति और एकता सुनिश्चित करने के लिए एक समग्र कार्ययोजना बनाई जाए।”

स्पष्ट है कि मोहन भागवत नहीं चाहते कि सरकार अपनी पिछली उपलब्धियों पर आराम करे। उन्होंने आतंकवाद के ख़तरे के बारे में सतर्क रहने और “हमारी सुरक्षा क्षमताओं को और विकसित करने” की ज़रूरत पर भी बल दिया।

आर्थिक मोर्चे पर अप्रसन्नता

आर्थिक मुद्दों पर भागवत के शब्द संभवतः मोदी और सरकार के अन्य नेताओं को ज़्यादा रास नहीं आए होंगे। उन्होंने वर्तमान वैश्विक आर्थिक व्यवस्था की आलोचना करते हुए कहा कि इसमें “कुछ ऐसी खामियाँ हैं जो अब पूरी दुनिया में स्पष्ट हो रही हैं — अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई, आर्थिक शक्ति का एक जगह केंद्रित होना, ऐसे नए तंत्रों का मजबूत होना जो शोषकों को और आसान शोषण की सुविधा देते हैं, पर्यावरण को नुकसान पहुँचना, और मानवीय रिश्तों के स्थान पर लेन-देन और अमानवीयता का बढ़ना।”

कट्टरता की चुनिंदा आलोचना

हालाँकि, भागवत और मोदी — दोनों ने अपने भाषणों में एकता और विभाजन से ऊपर उठने की आवश्यकता दोहराई।

मोदी ने कहा कि “जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता जैसे सामाजिक दोष हिंदू समाज के लिए बड़ी चुनौतियाँ हैं।” उन्होंने जोड़ा, “डॉ. हेडगेवार जी के समय से लेकर आज तक, संघ के हर स्वयंसेवक और हर सरसंघचालक ने ऐसे भेदभाव के ख़िलाफ़ संघर्ष किया है।”

लेकिन सवाल यह है — मोदी या भागवत सिर्फ़ जाति-आधारित भेदभाव पर ही क्यों बोलते हैं, धर्म के आधार पर होने वाले भेदभाव पर क्यों नहीं?

मोदी ने अपने भाषण में आरएसएस के विभिन्न सरसंघचालकों के अभियानों का उल्लेख करते हुए कहा कि 2009 से अब तक भागवत “एकता का स्पष्ट आह्वान करते रहे हैं — एक कुआँ, एक मंदिर और एक श्मशान सभी के लिए।”

मोदी के दावे की दो समस्याएँ

पहली — अगर पिछले एक सदी से आरएसएस प्रमुख लगातार जाति-आधारित भेदभाव खत्म करने का अभियान चला रहे हैं, और फिर भी मौजूदा प्रमुख को इस पर काम करना पड़ रहा है, तो साफ़ है कि पिछले प्रयास पर्याप्त नहीं थे।

दूसरी — मोदी और भागवत दोनों केवल जाति के आधार पर अन्याय की बात करते हैं, धर्म के आधार पर नहीं।

असल समस्या भागवत की परिभाषा में है। उनके अनुसार, “हिंदू समाज भारत का जिम्मेदार समाज है। यह एक समावेशी समाज है। इसमें ‘हम और वे’ की मानसिकता नहीं है और न ही होगी, जो सतही भिन्नताओं के आधार पर समाज को बाँटती है। हिंदू समाज ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की महान भावना का संवाहक और संरक्षक है।”

भागवत के भाषण में विरोधाभास

2014 के बाद, जब मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता में आई, भागवत के बयानों की समीक्षा और आलोचना अधिक तेज़ी से होने लगी। उनकी दोहरी बातों पर कई बार सवाल उठ चुके हैं। यही दोहराव उनके दशहरा संबोधन में फिर दिखा, जब उन्होंने भारत को “अत्यधिक विविधता वाला देश” बताया।

उन्होंने कहा ,“अनेक भाषाएँ, कई धर्म, विविध जीवनशैली, भौगोलिक विविधता के कारण अलग-अलग खानपान, जातियाँ और उपजातियाँ — ये सब भारत की पुरानी सच्चाई हैं।”

लेकिन यही बात उनके उस कथन से टकराती है जिसमें वे “हिंदू समाज” को ही भारत के लिए जिम्मेदार बताते हैं। अगर भारत की पहचान विविधता है, तो उसे सिर्फ़ हिंदू समाज तक सीमित क्यों किया जाए?

‘विदेशियों’ पर विवादित टिप्पणी

भागवत ने कहा, “पिछले हज़ार वर्षों में कुछ विदेशी समुदाय भी भारत में आए। विदेशी तो चले गए, लेकिन हमारे अपने भाई जिन्होंने उन धर्मों को स्वीकार किया, वे आज भी भारत में हैं।”

यह कथन भी ऐतिहासिक रूप से ग़लत है। अंग्रेज़ चले गए, लेकिन मुग़लों सहित अन्य मुसलमान शासकों के वंशज इसी मिट्टी में रच-बस गए। वे इस देश के हिस्से हैं, बाहर से आए “विदेशी” नहीं।

‘बड़ी पहचान’ यानी ‘हिंदू पहचान’ पर ज़ोर

भागवत ने कहा,“हम सबका स्वागत है। हम सभी को ‘अपना’ मानते हैं, ‘दूसरा’ नहीं। हमारी विविधताएँ हमारी विशेषताएँ हैं। लेकिन इन अलग-अलग पहचानों से विभाजन नहीं होना चाहिए। हम सब एक बड़े समाज, एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र का हिस्सा हैं। हमें याद रखना चाहिए कि यह बड़ी पहचान हमारे लिए सर्वोपरि है।”

यदि यह “बड़ी पहचान” भारतीय या भारतीयता कही जाती, तो शायद कोई विवाद नहीं होता। लेकिन भागवत और उनके समर्थक इसे “हिंदू पहचान” बताते हैं, और यह आग्रह करते हैं कि देश की हर समुदाय को स्वयं को सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से हिंदू मानना चाहिए।

सतही शांति का आह्वान

भागवत के समर्थक कह सकते हैं कि उन्होंने यह भी कहा , “सभी भारतीयों को सौहार्दपूर्ण और सम्मानजनक होना चाहिए। हर किसी के अपने विश्वास, प्रतीक और पूजा स्थल हैं, जिनका हमें विचार, वचन या कर्म से अपमान नहीं करना चाहिए। सभी को नियमों का पालन करना चाहिए, व्यवस्था बनाए रखनी चाहिए, और शांतिपूर्ण आचरण दिखाना चाहिए। किसी छोटे मामले या संदेह में सड़कों पर उतरना, कानून अपने हाथ में लेना या हिंसा करना गलत है। ताक़त का प्रदर्शन किसी विशेष समुदाय को उकसाने के लिए किया जाता है।”

धार्मिक असहिष्णुता पर चुप्पी

लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि भागवत का ऐसा स्पष्ट बयान पहली बार नहीं है। समस्या यह है कि ऐसे वक्तव्य तब दिए जाते हैं जब देश में असहिष्णुता और नफ़रत का माहौल चरम पर नहीं होता।

तो फिर भागवत उन लोगों के खिलाफ़ कार्रवाई की माँग क्यों नहीं करते जो खुलेआम नफ़रत फैलाने वाले भाषण देते हैं?

वह यह क्यों नहीं पूछते कि सरकार या पुलिस यह जाँच करे कि क्या किसी राज्य में किसी समुदाय के धार्मिक प्रतीकों या श्रद्धा के प्रति हिंसक व्यवहार कानून का उल्लंघन नहीं है?

असंख्य ऐसे उदाहरण गिनाए जा सकते हैं जब मोहन भागवत को हस्तक्षेप करना चाहिए था, लेकिन उन्होंने चुप्पी साधे रखी।

‘पांच परिवर्तन’ का खोखला एजेंडा

कुछ वर्ष पहले आरएसएस ने “पांच परिवर्तन” (यानि पाँच पहल या वैकल्पिक दिशा) की घोषणा की थी, जिन पर वह आने वाले दशकों में काम करने का दावा करता है —

1. सामाजिक सद्भाव

2. पारिवारिक मूल्यों का संरक्षण

3. पर्यावरण की रक्षा

4. स्वत्व और आत्मनिर्भरता, और

5. कानूनी, नागरिक और संवैधानिक कर्तव्यों का पालन

इनमें से पहला लक्ष्य — सामाजिक सद्भाव — तब तक एक संगत विचार नहीं बन सकता जब तक संघ के नेता दोहरी भाषा बोलते रहेंगे और हिंदुओं को ही नैतिक मार्गदर्शक और राष्ट्रीय पहचान के वाहक के रूप में प्रस्तुत करते रहेंगे।

इसी तरह, एक ऐसे लोकतंत्र में जहाँ नागरिकों के मौलिक अधिकार संविधान में निहित हैं, वहाँ केवल नागरिकों पर “कानूनी, नागरिक और संवैधानिक कर्तव्यों” का बोझ डालना पर्याप्त नहीं है।

ज़िम्मेदारी एकतरफ़ा रास्ता नहीं होती, जिसका नाम ‘कर्तव्य पथ’ रख दिया जाए। यह बात भागवत और मोदी, दोनों को, अपने मतभेदों से परे समझनी और याद रखनी चाहिए।

(नोट: द फ़ेडरल विभिन्न दृष्टिकोणों को प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं और ज़रूरी नहीं कि वे द फ़ेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों।)

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