Subir Bhaumik

हसीना को मौत की सजा, गृहयुद्ध के मुहाने पर बांग्लादेश


हसीना को मौत की सजा, गृहयुद्ध के मुहाने पर बांग्लादेश
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यूनुस और उनके सहयोगी अवामी लीग को किनारे कर रहे हैं। पहले उसे एक "सुनियोजित अभियान" में अपदस्थ करके और फिर उसे चुनावी जनादेश पाने के लिए राजनीतिक जगह देने से इनकार करके।

बांग्लादेश की बेदखल पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण (आईसीटी) द्वारा सोमवार को सुनाई गई मौत की सज़ा ने अवामी लीग और यूनुस-नेतृत्व वाले अंतरिम सरकार के बीच बड़े टकराव की पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। यह सरकार पाकिस्तान-समर्थक जमात-ए-इस्लामी जैसे कट्टरपंथी इस्लामी समूहों के समर्थन से चल रही है।

ग़ैर-हाजिरी में चलने वाले मुकदमों में बचाव का अवसर हमेशा सीमित होता है, विशेषकर तब जब आरोपी को अपना वकील नियुक्त करने की अनुमति भी न दी जाए। हसीना को अदालत द्वारा नियुक्त वकील से ही काम चलाना पड़ा, जिसने न तो सुनवाई टालने का अनुरोध किया और न ही पांच सप्ताह की सुनवाई के दौरान एक भी बचाव गवाह पेश किया।

हसीना को मिली मौत की सज़ा का तत्काल कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, जब तक वे भारत में हैं। लेकिन इस फैसले का अवामी लीग के लिए क्या अर्थ है? इससे स्पष्ट है कि यूनुस सरकार ने पार्टी पर लगे प्रतिबंध को हटाने या उसे फरवरी में प्रस्तावित चुनाव में हिस्सा लेने देने का कोई इरादा नहीं रखा है। बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करने वाली और देश के लगभग आधे स्वतंत्रता-काल में शासन करने वाली इस पार्टी के बिना कोई भी चुनाव समावेशी नहीं हो सकता।

अवामी लीग कभी सशस्त्र क्रांति की पार्टी नहीं रही; वह हमेशा चुनावों के माध्यम से सत्ता हासिल करने में विश्वास करती रही। केवल 1970 के पाकिस्तान चुनावों में ऐतिहासिक जीत के बाद जब उसे सत्ता से वंचित किया गया और बंगालियों पर नरसंहार थोपा गया, तब पार्टी हथियार उठाने को मजबूर हुई। अब 1971 में पाकिस्तानी सैन्य शासन की तरह ही यूनुस और उनके कट्टरपंथी सहयोगी अवामी लीग को पूरी तरह दीवार से लगाना चाहते हैं—पहले “सुनियोजित अभियान” के ज़रिये सरकार हटाकर, जिसकी यूनुस ने खुद स्वीकारोक्ति की और फिर पार्टी को चुनावी राजनीति से बाहर रखकर।

हिंसा बढ़ने का खतरा

हसीना के पुत्र सजीब वाजेद जॉय ने संकेत दिया है कि यदि अवामी लीग को चुनाव से दूर रखा गया तो हिंसा भड़क सकती है। बांग्लादेश की राजनीति में कई बार सड़क शक्ति ने निर्णायक भूमिका निभाई है। अब स्थिति उलटती दिख रही है। यूनुस को अवामी लीग द्वारा संगठित बड़े जन प्रदर्शनों का सामना करना पड़ सकता है। इनका दमन करने के लिए उन्होंने पुलिस को खुली छूट दे दी है और अपने सलाहकार असीफ महमूद शोजिब भुइयां को "नेशनल आर्म्ड रिज़र्व" के नाम पर तैयार एक इस्लामी मिलिशिया तैनात करने की अनुमति दी है। लगभग 8,000 मिलिशिया सदस्यों को पुलिस की वर्दी और दंगा-नियंत्रण उपकरण दिए गए। यह कानून-व्यवस्था संबंधी मानक प्रक्रियाओं का खुला उल्लंघन है।

अगर अवामी लीग के प्रदर्शनकारियों पर पुलिस और मिलिशिया द्वारा हथियारों का इस्तेमाल किया जाता है तो वे भी प्रतिरोध करने को मजबूर हो सकते हैं और इसकी पूरी जिम्मेदारी केवल यूनुस पर होगी।

भारत के पास विकल्प

भारत में कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि जटिलताओं से बचने के लिए दिल्ली को शेख हसीना को वापस भेज देना चाहिए। लेकिन यूनुस और उनके इस्लामवादी समर्थकों को खुश करने का भारत के पास कोई कारण नहीं है—विशेषकर जब उनका पाकिस्तान के साथ बढ़ता सामंजस्य सभी के सामने है। पाकिस्तान और बांग्लादेश की तेज़ी से बढ़ती सैन्य साझेदारी भी चिंताजनक है, जिसमें इस्लामाबाद से कई सैन्य प्रतिनिधिमंडल ढाका जा चुके हैं। इससे पाकिस्तान सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर को इतनी हिम्मत मिली है कि उन्होंने भविष्य के संघर्ष में भारत को “पूर्व से वार” की धमकी तक दे दी।

मुनीर साफ़तौर पर भारत के खिलाफ दो-फ्रंट प्रॉक्सी युद्ध की संभावनाएं तलाश रहे हैं—1971 से पहले जैसे हालात थे और यूनुस शासन इसमें उनकी अहम ताकत है। भारत के लिए बांग्लादेश में हालात को संभालने के सरल रास्ते नहीं हैं। 1971 के मुक्ति संग्राम की विचारधारा पर आधारित राष्ट्रवादी भारत-समर्थक ताकतें ही दिल्ली की सबसे विश्वसनीय सहयोगी रही हैं। भारत को उन्हीं को सशक्त करना होगा, भले इसके लिए आवामी लीग के भीतर उन संदेहास्पद तत्वों को अलग करना पड़े, जिन्होंने सत्ता में रहते हुए हिफ़ाजत-ए-इस्लाम जैसे कट्टरपंथी संगठनों से समझौते किए थे।

अफ़गानिस्तान की तरह ही बांग्लादेश में भी भाषा और संस्कृति आधारित राष्ट्रवाद, कट्टरपंथी इस्लाम के मुकाबले भारत की वास्तविक ढाल बना रह सकता है। जो नीति पश्चिम में काम आई, वही पूर्व में भी कारगर होनी चाहिए। जैसा कि 1971 में हुआ था। लेकिन केवल तब, जब दिल्ली अपनी प्राथमिकताएँ स्पष्ट रखे।

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