
राज्य सरकारें भी यूट्यूबर्स, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं पर नकेल कसने में केंद्र के साथ शामिल हो रही हैं।
केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा शुरू किया गया एक रुझान अब विभिन्न राज्यों की सरकारों और विपक्षी दलों में भी तेजी से अपनाया जा रहा है। सोशल मीडिया पर यूजर्स कंटेंट बनाकर शेयर कर सकते हैं और नेटवर्किंग कर सकते हैं। यह अब भारतीय राजनीतिक वर्ग के लिए असहज होते जा रहा है। जहां कभी सोशल मीडिया भाजपा का विशेष हथियार माना जाता था, अब यह राजनीतिक स्पेक्ट्रम में व्यापक रूप से अपनाया जा रहा है। लेकिन जैसे‑जैसे इसमें सत्ता के खिलाफ बोलने वालों की संख्या बढ़ी है। राजनीतिक दलों द्वारा इसे कानूनी हथियारों से कंट्रोल करने की कोशिशें भी तेज़ हो गई हैं।
मुख्यधारा की मीडिया ढह चुकी है: प्रशांत भूषण
प्रसिद्ध वकील और सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण ने इस मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि केंद्र सरकार की राह पर चलते हुए, राज्य सरकारें भी सोशल मीडिया को कंट्रोल करने की कोशिश कर रही हैं। क्योंकि मुख्यधारा की मीडिया तो पहले ही ध्वस्त हो चुकी है।
धर्मस्थला ‘सामूहिक दफन’ मामला
इस सप्ताह की शुरुआत में कर्नाटक हाई कोर्ट ने बेंगलुरु की एक सिविल कोर्ट द्वारा जारी उस गग ऑर्डर (प्रकाशन प्रतिबंध) को रद्द कर दिया, जिसमें धर्मस्थला ‘मास बरीअल’ (सामूहिक दफन) मामले की मीडिया कवरेज पर रोक लगाई गई थी। यह आदेश YouTube चैनल "Kudla Rampage" की याचिका पर हटाया गया, जिसमें याचिकाकर्ता ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उल्लंघन की बात कही थी।
हाई कोर्ट की टिप्पणी
कर्नाटक हाई कोर्ट ने पाया कि निचली अदालत का आदेश अत्यधिक व्यापक था। यह स्पष्ट नहीं था कि किस सामग्री को मानहानिकर माना गया। इसने जनहित पत्रकारिता को मौन करने का काम किया। हाई कोर्ट के इस फैसले को धर्मस्थला मंदिर से जुड़े एक प्रमुख व्यक्ति हर्षेन्द्र कुमार डी द्वारा बाद में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है।
तेलंगाना हाईकोर्ट का रुख
इसी संदर्भ में तेलंगाना हाई कोर्ट ने हाल ही में यह स्पष्ट किया कि सरकार या मुख्यमंत्री की आलोचना करने वाले ट्वीट, फेसबुक पोस्ट या अन्य सोशल मीडिया सामग्री को तब तक आपराधिक मामला नहीं बनाया जा सकता, जब तक वह हिंसा को उकसाते या किसी व्यक्ति को प्रत्यक्ष हानि नहीं पहुंचाते।
क्या है धर्मस्थला मामला?
यह मामला तब सामने आया, जब धर्मस्थला मंजुनाथस्वामी मंदिर के एक पूर्व सफाईकर्मी ने आरोप लगाया कि साल 1995 से 2014 के बीच उसे बलात्कार और हत्या के शिकार लोगों के शवों को गुप्त रूप से दफनाने के लिए मजबूर किया गया था। इस आरोप के बाद सोशल मीडिया और कुछ स्वतंत्र यूट्यूब चैनलों ने मामले की गहन कवरेज शुरू की, जिसके बाद गग ऑर्डर जारी किया गया था।
धर्मस्थला विवाद से लेकर यूट्यूबर्स पर कार्रवाई तक
धर्मस्थला मंजुनाथस्वामी मंदिर के एक पूर्व सफाईकर्मी द्वारा लगाए गए गंभीर आरोपों से शुरू हुआ विवाद अब पूरे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सोशल मीडिया की आज़ादी पर बढ़ते कंट्रोल का मुद्दा बन गया है। इस सफाईकर्मी ने दावा किया था कि 1995 से 2014 के बीच उन्हें कई शव दफनाने के लिए मजबूर किया गया, जिनमें से अधिकांश बलात्कार और हत्या के शिकार थे।
दक्षिण भारत में बढ़ते हालात
दक्षिण भारत में भी इसी तरह की घटनाएं सामने आई हैं। 13 सितंबर को केरल की CPI(M) सरकार के तहत अर्नाकुलम सेंट्रल पुलिस ने पत्रकार सिद्दीक कप्पन और 10 अन्य को गैरकानूनी जमावड़े के आरोप में नामजद किया। क्योंकि उन्होंने कोच्चि के पत्रकार रेजाज बी शीबा सईदेक के समर्थन में एक विरोध सभा आयोजित की थी। रेजाज को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत आरोपित किया गया था।
तेलंगाना हाई कोर्ट का बड़ा फैसला
तेलंगाना हाईकोर्ट ने बुधवार (18 सितंबर) को बीआरएस के सोशल मीडिया कार्यकर्ता दुर्गम शशिधर गौड़ के खिलाफ दर्ज तीन आपराधिक मुकदमे रद्द कर दिए। अदालत ने राज्य सरकार की आलोचना की कि वह ऑनलाइन आलोचना के आधार पर नागरिकों के खिलाफ बेतरतीब मुकदमे दर्ज कर रही है, जिसे ‘अवैध और अस्वीकार्य’ बताया। अदालत ने कहा कि पुलिस को कानून और संविधान के अनुसार काम करना चाहिए और मौलिक अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए, न कि असंवैधानिक तरीके से विरोध को दबाने की कोशिश करनी चाहिए। हाई कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सरकार या मुख्यमंत्री की आलोचना करने वाले ट्वीट या फेसबुक पोस्ट तब तक आपराधिक मामला नहीं बन सकते ,जब तक वे हिंसा भड़काने या किसी व्यक्ति को प्रत्यक्ष नुकसान पहुंचाने का कारण न बनें।
यूट्यूबर गिरफ्तारियां और अभिव्यक्ति पर हमला
इस वर्ष मार्च में हैदराबाद की एक स्थानीय अदालत ने दो यूट्यूबरों, रेवती पोगडडंडा (Pulse Digital News Network की प्रबंध निदेशक) और तनवी यादव (कर्मचारी) को जमानत दी। उन्हें पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री ए रेवंत रेड्डी की आलोचना करने वाली सामग्री साझा करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। आलोचकों का कहना है कि ममता बनर्जी की पश्चिम बंगाल सरकार के कथित भ्रष्टाचार की खबरें जब सामने आने लगीं तो राज्य सरकार और तृणमूल कांग्रेस पुलिस का इस्तेमाल करके आरोप लगाने वालों को निशाना बनाने लगी।
उनके वकील जक्कुला रमेश ने जमानत याचिका में कहा कि उनकी गिरफ्तारी राजनीतिक प्रेरित थी और दबाव में की गई। अदालत ने दोनों पक्षों की सुनवाई के बाद यूट्यूबरों को जमानत पर रिहा करने का निर्देश दिया। तेलंगाना में कुल 266 मामलों में से सबसे अधिक 39 मामले यूट्यूबरों के खिलाफ दर्ज हैं।
मुक्त अभिव्यक्ति पर सियासी दबाव
भारत में पहले जो स्वतंत्रता और राजनीतिक सक्रियता की मिसाल थे, वे आज इतिहास की धूल होते जा रहे हैं। भाजपा के मॉडल को अपनाते हुए नौकरशाह, धार्मिक संगठन, कंपनियां, कारोबारी और यहां तक कि दंडित अपराधी भी उन तथ्यों पर लगाम लगाते नजर आ रहे हैं जो उन्हें मंजूर नहीं।
सुप्रीम कोर्ट की टक्कर
पिछले साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार को नोटिस जारी किया और यूट्यूबर 'सावुक्कु' शंकर की हिरासत पर जवाब मांगा। शंकर को तमिलनाडु पुलिस ने गोंडा एक्ट के तहत रोक रखा था। उनकी मां ने हैबियस कॉर्पस याचिका में आरोप लगाया कि सरकार ने उनके बेटे की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित किया, ताकि वह वर्तमान सरकार को चुनौती न दे सकें। उन्होंने कहा कि शंकर ने राज्य की सत्ताधारी पार्टी के भ्रष्टाचार और अवैध गतिविधियों को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
यूट्यूबर्स और पत्रकारों पर बढ़ा दबाव
पिछले पांच वर्षों में ममता बनर्जी सरकार में भ्रष्टाचार के आरोप सुर्खियों में आने के बाद पश्चिम बंगाल सरकार और तृणमूल कांग्रेस ने आरोप लगाने वालों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है। इस कार्रवाई में पुलिस की भूमिका सवालों के घेरे में आई है। खासतौर पर ऐसे यूट्यूबर्स जो सत्ता की आलोचना कर रहे थे और उनके तथ्यों को उजागर कर रहे थे, उन्हें लगातार पुलिस मामलों का सामना करना पड़ा। प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण ने बताया कि केंद्र सरकार के नक्शेकदम पर राज्य सरकारें भी सोशल मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही हैं, क्योंकि मुख्यधारा का मीडिया पहले ही ध्वस्त हो चुका है।
बिकाश रंजन भट्टाचार्य का बयान
राज्यसभा सदस्य और वरिष्ठ अधिवक्ता बिकाश रंजन भट्टाचार्य ने कहा कि लगभग हर यूट्यूबर जिसने ममता बनर्जी सरकार की आलोचना की या किसी विवादित बात को उजागर किया, उस पर बिना ठोस आधार के पुलिस मुकदमे दर्ज किए गए। ये मुकदमे उन्हें डराने-धमकाने के लिए लगाए जाते हैं, ताकि वे चुप रह जाएं। लेकिन यह रणनीति पूरी तरह असफल रही है। लगभग सभी मामलों में जब इसे कलकत्ता हाई कोर्ट में चुनौती दी गई तो सरकार की कलई खुल गई।
झारखंड में भी हालत बेहतर नहीं
झारखंड में भी ऐसी घटनाएँ कम नहीं हैं। मार्च 2025 में राज्य के स्वास्थ्य मंत्री इरफान अंसारी ने यूट्यूब चैनल के संपादक कुमार कौशलेंद्र के खिलाफ उनके खिलाफ “छवि खराब करने, चरित्र हत्या और ब्लैकमेलिंग” के आरोप में मामला दर्ज कराया। ये अकेला मामला नहीं है। साल 2023 में झारखंड के यूट्यूबर टिपु सुल्तान खान उर्फ समर को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और अन्य के खिलाफ अपमानजनक और मानहानिकारक सामग्री साझा करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। पुलिस के अनुसार, खान के यूट्यूब चैनल पर प्रसारित सामग्री “बहुत ही आपत्तिजनक, अपमानजनक, कटु और जातिगत पूर्वाग्रहों से भरी थी। टिपु सुल्तान खान पर SC/ST एक्ट, अत्याचार रोकथाम अधिनियम, भारतीय दंड संहिता (IPC) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (IT Act) की विभिन्न धाराओं के तहत मुकदमे दर्ज हैं।
अडानी समूह के खिलाफ पत्रकार पर न्यायालय की रोक
18 सितंबर को दिल्ली के रोहिणी जिला न्यायालय ने वरिष्ठ पत्रकार परणजॉय गुहा ठाकुरता द्वारा दायर याचिका पर अपना निर्णय सुरक्षित रख लिया। पत्रकार ने उस रोक के खिलाफ याचिका दायर की थी, जिसमें उन्हें अडानी एंटरप्राइजेज लिमिटेड (AEL) से संबंधित लेख प्रकाशित या प्रसारित करने से रोका गया था।
कंटेंट निर्माताओं और मीडिया पर बढ़ते दबाव
यह साफ है कि वर्तमान समय सामग्री निर्माताओं और मीडिया आउटलेट्स के लिए चुनौतीपूर्ण है। सवाल उठता है कि क्या राजनीतिक वर्ग सोशल मीडिया पर नियंत्रण स्थापित करने में सफल होगा? 6 सितंबर को न्यायालय ने पारित एक आदेश में कहा गया था कि कुछ प्रकाशनों, वेबसाइटों और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स को अडानी समूह के खिलाफ कथित मानहानिकारक सामग्री हटानी होगी। परिणामस्वरूप ठाकुरता ने यह आदेश रद्द करने की मांग की है। क्योंकि यह रिपोर्टिंग पर व्यापक प्रतिबंध लगाता है और प्रेस की स्वतंत्रता को कमजोर करता है।
नई दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने रोहिणी जिला न्यायालय के इस आदेश को “अत्यंत चिंताजनक” करार दिया है। प्रेस क्लब ने कहा कि यह एक भयंकर न्यायिक दखलअंदाजी है, जिसमें कोर्ट ने कॉर्पोरेट संस्थाओं और कार्यपालिका को बिना किसी सीमितता के सेंसरशिप लागू करने का अधिकार दे दिया है, ताकि विश्व के सबसे बड़े व्यवसायिक घरानों में से एक को कथित मानहानिकारक लेखों और ऑडियो-विजुअल रिपोर्ट्स से बचाया जा सके।
सूचना और प्रसारण मंत्रालय की भी हुई सक्रिय भूमिका
यह भी अत्यंत चिंताजनक है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने अदालत के आदेश के आधार पर 138 यूट्यूब लिंक और 83 इंस्टाग्राम पोस्ट हटाने के लिए तुरंत कार्रवाई की, जबकि यह आदेश पहले से ही कानूनी चुनौती के तहत था। जब प्रशांत भूषण से पूछा गया कि क्या राजनीतिक वर्ग सोशल मीडिया को कंट्रोल करने में सफल होगा तो उन्होंने कहा कि यह अदालतों और जनमत पर निर्भर करता है। लेकिन मेरा मानना है कि लंबे समय में यह संभव नहीं है। यह स्पष्ट है कि आज के दौर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सोशल मीडिया पर बढ़ते प्रतिबंध लोकतंत्र के लिए गंभीर चिंता का विषय हैं।
(फेडरल सभी पक्षों के विचारों और राय को प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। लेखों में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक की हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करें।)