
जैसा कि कुणाल कामरा मामले से पता चलता है, पदानुक्रम में डूबी भारतीय राजनीतिक संस्कृति, राजनीतिक हास्य को एक स्वस्थ लोकतांत्रिक अभ्यास के बजाय एक खतरे के रूप में देखती है।
लोकतंत्र में राजनीतिक व्यंग्य (Political Satire) बहुत ज़रूरी होता है। यह सरकार की नीतियों की आलोचना करता है, नेताओं की गलतियों को सामने लाता है और सत्ता को जवाबदेह बनाता है. लेकिन भारत में आजकल ऐसा लगता है कि इस तरह की आज़ादी धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है. कॉमेडियन कुणाल कामरा जैसे लोगों को बार-बार कानूनी मामलों का सामना करना पड़ता है। हाल ही में महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को "ग़द्दार" कहने पर उनके खिलाफ FIR हुई, जिसे लेकर बॉम्बे हाई कोर्ट ने गिरफ्तारी पर रोक लगाई है।
भारतीय नेता मज़ाक क्यों नहीं सह पाते?
नेता, खासकर जो सत्ता में होते हैं, अक्सर ऐसे लोगों से घिरे रहते हैं, जो उनकी हां में हां मिलाते हैं। यह एक तरह का "नार्सिसिस्टिक कूकून" होता है — एक ऐसा माहौल जहां मज़ाक भी उन्हें खतरा लगता है। कुछ नेता खुद को "राष्ट्र का प्रतीक" समझते हैं। इसलिए जब उनके ऊपर व्यंग्य होता है तो वे उसे सीधे देशद्रोह मान लेते हैं।
भारतीय राजनीति में हंसी का अभाव
भारत की राजनीतिक संस्कृति में नेता अक्सर खुद को एकदम गंभीर और अचूक (गलती न करने वाला) दिखाते हैं। जबकि अमेरिका और यूरोप में नेता खुद पर बने व्यंग्य को सहजता से लेते हैं — जैसे अमेरिका में "Saturday Night Live" या ब्रिटेन की संसद में नेताओं की खुली खिंचाई। यह रवैया कहीं न कहीं औपनिवेशिक सोच और भारत की पारंपरिक सत्ता-सम्मान की संस्कृति का नतीजा है।
कानून भी व्यंग्य के खिलाफ
हालांकि संविधान बोलने की आज़ादी देता है, फिर भी कई पुराने कानून — जैसे देशद्रोह या धार्मिक भावनाएं आहत करने से जुड़े कानून का दुरुपयोग कर व्यंग्यकारों को डराया जाता है।
भारत में प्रेस की स्थिति
2014 से 2021 के बीच 800 से ज़्यादा लोगों पर देशद्रोह के मामले दर्ज हुए — ज़्यादातर राजनीतिक आलोचना के कारण। प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2024 में भारत का स्थान 180 देशों में 159वां रहा। इसका मतलब है कि यहां बोलने की आज़ादी लगातार घट रही है। सुप्रीम कोर्ट ने भले ही कई बार मुक्त अभिव्यक्ति के पक्ष में फैसले दिए हों। लेकिन ज़मीनी स्तर पर हालात नहीं बदले हैं।
दूसरे देशों में राजनीतिक व्यंग्य
- अमेरिका: वहां के राष्ट्रपति भी टीवी शो में मज़ाक का हिस्सा बनते हैं। जैसे – "SNL", "The Daily Show" आदि।
- जर्मनी: चांसलर एंजेला मर्केल पर व्यंग्यात्मक कविता बनी। लेकिन उन्होंने कार्रवाई नहीं की।
- फ्रांस: "Charlie Hebdo" जैसे पत्रिका आज भी खुलकर व्यंग्य करती हैं।
ये देश व्यंग्य को लोकतंत्र का हिस्सा मानते हैं, न कि अपमान।
भारत को क्या करना चाहिए?
1. कानूनी सुधार: देशद्रोह और मानहानि जैसे पुराने कानूनों को बदलना चाहिए ताकि बोलने की आज़ादी सुरक्षित रहे।
2. राजनीतिक सोच में बदलाव: नेताओं को खुद पर बने व्यंग्य को सहन करने की आदत डालनी होगी। जैसे पश्चिमी देशों के नेता करते हैं।
3. नागरिकों की भूमिका: मीडिया, आम जनता और न्यायपालिका को मिलकर इस अधिकार की रक्षा करनी होगी। वरना धीरे-धीरे विरोध की आवाज़ भी दबा दी जाएगी।
व्यंग्य के बिना लोकतंत्र
भारत की राजनीति में व्यंग्य हमेशा एक अहम भूमिका निभाता रहा है। यदि इसे खो दिया गया तो लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी खत्म हो जाएगा। एक ऐसा देश जो खुद पर हंस नहीं सकता, वह कमजोर हो जाता है। आज सवाल ये नहीं है कि व्यंग्य बच पाएगा या नहीं, सवाल ये है कि क्या भारत का लोकतंत्र व्यंग्य के बिना जिंदा रह पाएगा? इसका जवाब हम सभी भारतीयों को देना है।