
तमिलनाडु के राज्यपाल पर फैसले का केरल और बंगाल पर जबरदस्त असर पड़ेगा, जो अपने राज्यपालों के साथ लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे हैं।
पिछले कुछ समय से हमने देखा है कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसले बहुत साधारण या विवादित रहे हैं। कई बार ऐसा लगता है जैसे कोर्ट ने सारे तथ्य और कानूनों को ठीक से समझे बिना फैसला दे दिया हो। लेकिन 8 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक और बड़ा फैसला दिया, जो राज्यपालों की शक्तियों को लेकर था। यह फैसला तमिलनाडु सरकार की याचिका पर आया और इसने साफ कर दिया कि राज्यपाल को विधानसभा द्वारा पास किए गए बिलों को रोकने का अधिकार नहीं है।
क्या कहा कोर्ट ने?
सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि राज्यपाल के अधिकार सीमित हैं। वह बिलों को अनिश्चित समय तक रोक नहीं सकते। राज्यपाल को संविधान के नियमों का पूरी तरह पालन करना होगा। राज्यपाल के पास कोई "विवेकाधीन शक्ति" नहीं है।
मामला क्या था?
तमिलनाडु सरकार ने 2023 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। राज्यपाल RN रवि ने 10 बिलों को मंजूरी नहीं दी थी और उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया था। इनमें से कुछ बिल जनवरी 2020 से ही लंबित थे। कोर्ट ने इसे "अवैध और गलत" बताया और कहा कि ऐसे बिलों को राष्ट्रपति के पास भेजना भी नियमों के खिलाफ है। कोर्ट ने कहा कि दोबारा विधानसभा से पास होने के बाद बिलों को उसी दिन मंजूरी मान ली जाएगी।
राज्यपाल के पास अब क्या विकल्प हैं?
कोर्ट ने बताया कि राज्यपाल के पास सिर्फ तीन विकल्प होते हैं।
1. बिल को मंजूरी देना।
2. मंजूरी रोक कर उसे वापस विधानसभा को भेजना।
3. बिल को राष्ट्रपति के पास भेजना (अगर मंत्रिपरिषद की सलाह हो)।
एक बार जब विधानसभा बिल को दोबारा पास करके भेजती है तो राज्यपाल मना नहीं कर सकते। उन्हें अनिवार्य रूप से मंजूरी देनी होगी। वह एक ही विकल्प चुन सकते हैं. एक से ज्यादा विकल्पों को मिलाकर बिल रोकने की कोशिश नहीं कर सकते।
अब बिल रोकने की समय-सीमा तय
कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को बिल पर फैसला "जितनी जल्दी हो सके" लेना चाहिए। इसीलिए कोर्ट ने समय-सीमा भी तय की. अगर राज्यपाल बिल पर सहमति नहीं देते या राष्ट्रपति को भेजना चाहते हैं (मंत्रियों की सलाह से) तो 1 महीने के अंदर यह करना होगा। अगर वह मंत्रियों की सलाह के खिलाफ राष्ट्रपति को भेजना चाहते हैं तो 3 महीने के अंदर यह किया जाना चाहिए। अगर वह बिना मंजूरी के वापस भेजते हैं तो 3 महीने में वापस भेजना होगा। अगर विधानसभा दोबारा बिल पास करती है तो राज्यपाल को 1 महीने में मंजूरी देनी होगी।
राज्यपाल की भूमिका
कोर्ट ने एक और बड़ी बात कही – संविधान में राज्यपाल के लिए "अपने विवेक से" कोई निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। यह शब्द पहले के कानून (1935 के अधिनियम) में था। लेकिन संविधान बनाते समय इसे हटा दिया गया। इसका मतलब है कि राज्यपाल को राजनीति से ऊपर रहकर संविधान के अनुसार काम करना चाहिए।
राज्यपाल बनाम राज्य सरकार
राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच टकराव कोई नई बात नहीं है। पहले यह टकराव सरकार गिराने, मुख्यमंत्री नियुक्त करने या राष्ट्रपति शासन लगाने तक सीमित था। लेकिन अब यह टकराव विधानसभा कब बुलाई जाए, विधेयकों पर देरी,
सरकार की आलोचना करने और यहां तक कि एक तरह की "सामांतर सरकार" चलाने तक पहुंच गया है। विशेष रूप से 2014 के बाद से जब केंद्र में भाजपा की सरकार आई, तब से विपक्षी राज्यों में यह टकराव और बढ़ा है।
पहले और अब के राज्यपाल
पहले राज्यपाल ऐसे लोग होते थे, जो राजनीति से लगभग रिटायर हो चुके होते थे। वे टकराव से बचते थे। अब राज्यपालों में वे नेता होते हैं, जो अभी भी राजनीति में सक्रिय हैं और आगे भी बड़ी पोस्ट चाहते हैं। इसलिए वे केंद्र सरकार को खुश करने के लिए राज्य सरकार से टकराव करते हैं।
केरल का मामला
केरल सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। वहां 7 विधेयक राज्यपाल के पास कई महीनों या वर्षों से अटके हुए हैं। इनमें 5 यूनिवर्सिटी कानूनों में बदलाव से जुड़े बिल, एक सहकारी बैंक घोटाले के बाद सुरक्षा बढ़ाने वाला बिल और एक लोकायुक्त कानून में बदलाव का बिल शामिल है। इन बिलों का मकसद था कि राज्यपाल के पास जो विश्वविद्यालयों के कुलपति चुनने की शक्ति थी, उसे हटाया जाए। राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने 7 कुलपतियों को हटा दिया था और अपनी पसंद के लोगों को बिना किसी प्रक्रिया के नियुक्त कर दिया था।
लोकायुक्त बिल
इस बिल में यह प्रस्ताव है कि मुख्यमंत्री के खिलाफ लोकायुक्त के फैसले पर अपील विधानसभा में होगी। मंत्रियों के मामले में मुख्यमंत्री और विधायकों के मामले में विधानसभा अध्यक्ष अपील की सुनवाई करेंगे। मतलब, अब राज्यपाल इसमें दखल नहीं दे सकते।
तो क्या राज्यपाल की ज़रूरत है?
अब ये सवाल उठ रहे हैं कि क्या राज्यपाल का पद जरूरी है? क्या वे लोकतंत्र में सिर्फ बाधा बन रहे हैं? क्यों न राज्यपाल को भी चुना जाए, जैसे बाकी प्रतिनिधियों को चुना जाता है?
(फेडरल सभी पक्षों से विचार और राय प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। लेख में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक के हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों।)
