Vivek Katju

ईरान-इज़राइल संघर्ष: भारत के लिए कूटनीतिक अग्निपरीक्षा का समय


Khamenei Modi Netanyahu
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ईरान और इज़राइल से भारत के सुरक्षा और व्यापारिक हित भी जुड़े हुए हैं

13 जून की सुबह इज़राइल ने ईरान पर जबरदस्त हवाई हमला किया। घोषित उद्देश्य था, ईरान को परमाणु हथियार बनाने की किसी भी संभावना को समाप्त करना। इसके जवाब में ईरान ने इज़राइल पर बैलिस्टिक मिसाइलों से हमला किया। हवाई युद्ध जारी है और दोनों में से कोई भी देश इसे समाप्त करने के मूड में नहीं है।

जहां ईरान ने हिंसा रोकने की इच्छा जताई है, वहीं इज़राइल अभी पीछे हटने को तैयार नहीं है। वह भारत और कई अन्य देशों की उस अपील को भी नहीं सुन रहा जिसमें कहा गया है कि दोनों देश अपने मतभेदों को कूटनीतिक मार्ग से सुलझाएं।

यह युद्ध भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक परीक्षा है क्योंकि उसके दोनों देशों से अच्छे संबंध और अहम हित जुड़े हैं। भारत यह भी नहीं चाहता कि यह युद्ध फैलकर खाड़ी देशों को प्रभावित करे, जहां लगभग 90 लाख भारतीय रहते और काम करते हैं। इन भारतीयों द्वारा भेजी गई धनराशि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेहद अहम है।

इसके अलावा, भारत के सुरक्षा और व्यापारिक हित भी इस क्षेत्र में हैं। हालांकि भारत का क्षेत्रीय प्रभाव बढ़ा है, लेकिन ईरान-इज़राइल युद्ध पर इसका असर सीमित है। इस पूरे घटनाक्रम में यदि कोई देश वाकई फर्क डाल सकता है, तो वह है अमेरिका। यही वजह है कि अब सारी निगाहें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर टिकी हैं।

ईरान और परमाणु हथियार

ट्रंप साफ कह चुके हैं कि वे ईरान को परमाणु हथियार नहीं बनाने देंगे। वास्तव में, यह बात निश्चित मानी जा सकती है कि दुनिया का कोई भी देश नहीं चाहता कि ईरान परमाणु हथियार बनाए। ईरान की ओर से लंबे समय से दावा किया जाता रहा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह शांतिपूर्ण है और उसका हथियार बनाने का कोई इरादा नहीं है। लेकिन कई देश उस पर भरोसा नहीं करते और इज़राइल तो उसके विरोध में सबसे आगे है।

इज़राइल को लगता है कि ईरान में न केवल हथियार बनाने की क्षमता है, बल्कि उसकी मंशा भी है। ईरान के पास बैलिस्टिक मिसाइलें हैं, जो परमाणु हथियारों को दूर तक ले जाने में सक्षम हैं। इसी युद्ध में ईरान ने मिसाइल ताकत का प्रदर्शन किया भी है।

इज़राइल को भरोसा है कि उसके पास हमला करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। उसने नतांज जैसे कुछ परमाणु ठिकानों को नुकसान पहुंचाया, लेकिन फोर्डो (Fordow) की गहराई में बने यूरेनियम संवर्धन केंद्र को नष्ट करना आसान नहीं है। यह केंद्र पहाड़ के भीतर है और केवल अमेरिका के पास ऐसे बम हैं जो उस तक पहुंच सकते हैं।

ट्रंप का दुविधाजनक रुख

अपने खास अंदाज़ में ट्रंप ने यह संकेत दिया कि वे ईरान पर अमेरिकी हमला शुरू कर सकते हैं। कनाडा में जी-7 सम्मेलन से पहले ही वापस लौटकर उन्होंने अपने सलाहकारों के साथ बैठक की।

हालांकि, अमेरिकी सरकार के भीतर इस मुद्दे पर मतभेद हैं। कुछ चाहते हैं कि ट्रंप हमला करें, तो कुछ मानते हैं कि ट्रंप हमेशा से विदेशी युद्धों से अमेरिका को दूर रखना चाहते हैं। ट्रंप ने दो दिन पहले कहा कि वे दो हफ्ते में निर्णय लेंगे, लेकिन उनका यह रुख इज़राइल को निराश कर रहा है।

इज़राइल चाहता है कि अमेरिका फोर्डो और अन्य परमाणु ठिकानों पर बमबारी करे। अमेरिका की झिझक के बीच, अन्य देश कूटनीतिक समाधान की संभावनाएं तलाश रहे हैं। 20 जून को जिनेवा में ईरानी विदेश मंत्री और फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी के विदेश मंत्रियों की बैठक हुई। लेकिन ईरान ने साफ कर दिया कि जब तक इज़राइल के हमले रुकते नहीं, वह अमेरिका से कोई बातचीत नहीं करेगा।

इज़राइल के लिए यह हमला रोकना एक तरह से ईरान की जीत मानने जैसा होगा। इसलिए संभावना यही है कि इज़राइल अब फोर्डो को निष्क्रिय करने के और सैन्य विकल्प तलाशेगा या ट्रंप को युद्ध में शामिल करने की हर संभव कोशिश करेगा।

अमेरिकी हस्तक्षेप से बढ़ेगा खतरा

अब तक युद्ध ईरान और इज़राइल के बीच सीमित है। लेकिन यदि अमेरिका शामिल होता है, तो हालात तेजी से बिगड़ सकते हैं। जैसे-

1. ईरान अपने मिसाइलों से अमेरिकी ठिकानों को निशाना बना सकता है।

2. शिया-सुन्नी मतभेदों के बावजूद इस्लामी देशों में अमेरिका विरोधी प्रदर्शन शुरू हो सकते हैं।

3. इस्लामी देश जिन्हें अब तक केवल निंदा तक सीमित रहना पड़ा, वे जनता के दबाव में ईरान की किसी न किसी रूप में मदद कर सकते हैं।

4. खाड़ी देशों से ऊर्जा आपूर्ति प्रभावित हो सकती है, खासकर अगर ईरान होरमुज़ की खाड़ी में जहाजों की आवाजाही रोकने की कोशिश करे।

5. इस पूरे संकट से चीन को इस क्षेत्र में अपनी पकड़ बढ़ाने का एक अवसर मिल सकता है।

इन तमाम खतरों के बावजूद ट्रंप का इरादा ईरान को परमाणु बम हासिल करने से रोकने का है। अगर उन्हें लगेगा कि इसका एकमात्र उपाय ईरान के परमाणु ठिकानों को तबाह करना है, तो वह खतरा उठाने से नहीं चूकेंगे। लेकिन असली चुनौती होगी, ईरान में पहले से मौजूद फिसाइल (विस्फोटक) सामग्री को खोजना और कब्जे में लेना।

ईरान में सत्ता परिवर्तन की चाह

इज़राइल और अमेरिका व यूरोप के कई लोग ईरान में सत्ता परिवर्तन चाहते हैं। उनका मानना है कि मौजूदा मौलवी-प्रणाली पश्चिम विरोधी है और इसकी जगह एक आधुनिक लोकतंत्र आना चाहिए।

लेकिन समस्या यह है कि ईरान में ऐसा कोई राजनीतिक दल या ताकत नहीं है जो मौजूदा शासन को चुनौती दे सके। 1979 में अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में जो शासन बना, उसने किसी भी वैकल्पिक व्यवस्था को पनपने नहीं दिया। और मान लें कि शासन बदल भी गया, तो भी परमाणु हथियार का सपना शायद नहीं छूटेगा।

ईरान को लेकर ट्रंप के पास कोई आसान विकल्प नहीं हैं।

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