
डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने एच-1बी वीज़ा फीस 100,000 डॉलर कर दी है। यह भारत के आईटी पेशेवरों पर सीधा हमला और मोदी सरकार के लिए बड़ा कूटनीतिक संकट है।
डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन के हालिया फैसले ने भारत सरकार को गहरे संकट में डाल दिया है। मोदी सरकार के “प्रिय मित्र” की यह कार्रवाई, भारत के लिए आर्थिक और रणनीतिक दोनों स्तरों पर एक करारा झटका साबित हो रही है। एच-1बी वीज़ा पर 100,000 डॉलर की नई फीस—जो 2016 में सिर्फ 4,000 डॉलर थी। सीधे-सीधे भारतीय आईटी पेशेवरों पर हमला है। इस कदम को ट्रंप की उपनिवेशवादी सोच के एक नए चरण के रूप में देखा जा रहा है, जिसका सिद्धांत है “एक्सटॉर्ट-बेबी-एक्सटॉर्ट” (धमकी देकर वसूली), ठीक उसी तरह जैसे ऊर्जा नीति में “ड्रिल-बेबी-ड्रिल” का नारा दिया गया था। फर्क सिर्फ इतना है कि यह वसूली अब वैश्विक स्तर पर की जा रही है।
भारतीय पेशेवरों पर सीधा प्रहार
19 सितंबर को ट्रंप प्रशासन ने एक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए, जिसमें कहा गया कि “विशेष श्रेणी के एच-1बी वीज़ा धारकों का अमेरिका में प्रवेश सीमित” होगा और हर नए आवेदन के साथ 100,000 डॉलर की अतिरिक्त राशि जमा करनी होगी। साथ ही, अमेरिकी गृह सुरक्षा विभाग और उसकी प्रवर्तन शाखा आईसीई (इमिग्रेशन एंड कस्टम्स एनफोर्समेंट) को निर्देश दिया गया कि भारतीयों द्वारा एच-1बी वीज़ा के “ग़ैर-कानूनी उपयोग” पर सख्त कार्रवाई की जाए।
प्रशासन का तर्क है कि अमेरिकी टेक कंपनियां स्थानीय कर्मचारियों को निकालकर कम वेतन पर भारतीय ठेकेदारों को नियुक्त कर रही हैं। एक उदाहरण देते हुए कहा गया कि एक कंपनी ने 2025 में 5,189 एच-1बी कर्मचारियों को मंजूरी दिलाई, जबकि उसने लगभग 16,000 अमेरिकी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया। ट्रंप प्रशासन का दावा है कि यह प्रवृत्ति भविष्य के अमेरिकी युवाओं को STEM क्षेत्रों में जाने से हतोत्साहित कर रही है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है।
भारत को कठोर अल्टीमेटम
इस पूरी स्थिति में भारत को “सबकुछ छोड़ दो, या अमेरिकी साम्राज्यवादी आदेशों का सामना करो” जैसा अल्टीमेटम दिया गया है। यह असमान व्यवहार चीन, यूरोपीय संघ, कोरिया और जापान जैसे देशों से की गई अमेरिकी नीति से बिल्कुल अलग है। अमेरिकी वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लटनिक ने कहा, “अब बड़ी कंपनियां विदेशी कर्मचारियों को ट्रेनिंग नहीं देंगी। अगर ट्रेनिंग देनी है तो अमेरिकी विश्वविद्यालयों के ग्रेजुएट्स को दीजिए।” 15 सितंबर को उन्होंने भारत को चुनौती देते हुए कहा, “भारत गर्व करता है कि उसके पास 1.4 अरब लोग हैं, तो फिर 1.4 अरब लोग अमेरिका का एक बुशल मक्का क्यों नहीं खरीद सकते?”
पुराना विवाद, नई चरमसीमा
एच-1बी वीज़ा का यह विवाद नया नहीं है। मार्च 2016 में भारत ने इसी मुद्दे पर अमेरिका के खिलाफ WTO में व्यापार विवाद दर्ज किया था। भारत ने बढ़ी हुई फीस और वीज़ा की संख्या पर लगे प्रतिबंध को GATS (जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड इन सर्विसेज़) का उल्लंघन बताया था। लेकिन कुछ महीनों के भीतर ही भारत ने यह विवाद वापस ले लिया। यदि नई दिल्ली डटा रहता तो अमेरिका की मनमानी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उजागर हो सकती थी।
ट्रंप का आर्थिक हमला
यह वीज़ा हमला, भारत पर ट्रंप प्रशासन के लगातार हो रहे आर्थिक प्रहार का ही हिस्सा है। इस फैसले का समय भी अहम है। यह कदम उस समय उठाया गया जब ट्रंप ने हाल ही में मोदी को “बेस्ट फ्रेंड” कहकर सराहा था। भारतीय निर्यातक पहले ही स्टील और एल्यूमिनियम पर 50% तक के अमेरिकी टैरिफ झेल रहे हैं। साथ ही, रूस से तेल खरीद पर नए प्रतिबंध और ईरान के चाबहार बंदरगाह प्रोजेक्ट पर अमेरिकी छूट हटाना, भारत को “चक्रव्यूह” में फँसाने की बड़ी रणनीति का हिस्सा है।
विडंबना यह है कि भारतीय सरकार इसी माहौल में अमेरिका के साथ बड़ा द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता करने की उम्मीद कर रही है। लेकिन अमेरिकी मांगें अस्पष्ट हैं और संभव है कि कृषि व टैरिफ से आगे बढ़कर वे बौद्धिक संपदा अधिकार और सरकारी खरीद जैसी संवेदनशील नीतियों पर भारत से समझौते की मांग करें।
असमानता और रणनीतिक विफलता
ट्रंप राज में भारत को दी जा रही असमानता साफ झलकती है। अमेरिका चीन, यूरोप, कोरिया और जापान को जहां कहीं अधिक नरमी दिखाता है, वहीं भारत पर बार-बार दबाव डालता है। यह केवल व्यापार या वीज़ा संकट नहीं, बल्कि भारत की विदेश और आर्थिक रणनीति की गहरी विफलता का संकेत है। मोदी सरकार, जिसने व्यक्तिगत “केमिस्ट्री” पर भरोसा करते हुए ट्रंप प्रशासन को “नई व्यवस्था” में अपना साथी मान लिया था, अब खुद को नुकसान की स्थिति में पा रही है।
भारत की संप्रभुता पर चोट अब युद्ध के ज़रिये नहीं, बल्कि “छूट पर छूट, waiver पर waiver” के माध्यम से हो रही है। और यही ट्रंप का नया साम्राज्यवादी खेल है—जहां हर बार भारत को झुकने पर मजबूर किया जा रहा है।
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