Anirban Bhattacharya
Amitanshu Verma

भूस्खलन, कर्ज़ और बेरुखी, भारत कब अपनाएगा क्लाइमेट बैंकिंग

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भूस्खलन, कर्ज़ और बेरुखी, भारत कब अपनाएगा क्लाइमेट बैंकिंग
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2024 वायनाड भूस्खलन से प्रभावित महिलाओं को केरल हाई कोर्ट ने बड़ी राहत दी। अदालत ने केंद्र की कर्ज़ राहत न देने की नीति को कठघरे में खड़ा करते हुए वसूली पर रोक लगाई।

2024 की विनाशकारी वायनाड भूस्खलन ने जिन महिलाओं की ज़िंदगी और ज़मीन दोनों उजाड़ दीं, उन्होंने 8 अक्टूबर को केरल हाई कोर्ट में एक बड़ी जीत हासिल की। जस्टिस ए.के. जयशंकरण नंबियार और जस्टिस जोबिन सेबेस्टियन की पीठ ने केंद्र सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि पीड़ित महिलाओं को कर्ज़ राहत से वंचित करना “दुर्भाग्यपूर्ण” है। अदालत ने बैंकों की उन “शाइलॉक जैसी” तरीकों की भी आलोचना की, जिनके तहत वे कर्ज़ माफ़ करने को तैयार नहीं थे।

संयुक्त राष्ट्र और स्वतंत्र विशेषज्ञों ने वायनाड की तबाही को मानवीय कारणों से बढ़े जलवायु संकट और भारी बारिश का विनाशकारी परिणाम बताया है।

आपदा के बीच सबसे कमजोर पर कर्ज़ का बोझ

एक तरफ इतिहास के “अदृश्य लोग”—गरीब, विस्थापित और कमजोर वर्ग—जलवायु संकट का सबसे ज्यादा दंश झेल रहे हैं, तो दूसरी तरफ सरकार की उदासीनता है, जो बढ़ती जलवायु आपदाओं की चुनौतियों को लेकर संवेदनहीन और निष्क्रिय दिखाई देती है। हालांकि सरकार की इस उदासीनता पर सार्वजनिक बहस तो है, लेकिन एक पहलू अभी भी कम समझा गया है—आपदाओं का दीर्घकालिक वित्तीय असर, खासकर उन पर जो पहले से ही कर्ज़ के बोझ तले दबे हैं।

पंजाब के खेतों से लेकर गुरुग्राम की चमकती सड़कों तक, महाराष्ट्र के किसानों से लेकर बिहार के गांवों तक, उत्तराखंड की ढलानों से लेकर केरल के पहाड़ों तक—हर जगह भूस्खलन, क्लाउडबर्स्ट, और चक्रवातों की बढ़ती खबरें जलवायु परिवर्तन की चेतावनी दे रही हैं। गर्मी की लहरें, समुद्र का तापमान बढ़ना, ग्लेशियरों का पिघलना, नदियों का सूखना—हर संकट अपनी आर्थिक लागत के साथ आता है।

गरीबों के लिए आपदाओं से उबरना अत्यंत महंगा साबित होता है। जो पहले से कर्ज़ में डूबे हैं, उन्हें नए कर्ज़ या कम से कम पुराने कर्जों पर राहत की ज़रूरत होती है—क्योंकि उनकी फसलें बर्बाद हो जाती हैं, संपत्तियां नष्ट हो जाती हैं और रोज़गार खत्म हो जाता है।

केंद्र के इनकार पर अदालत की नाराज़गी

हाई कोर्ट ने अपने आदेश में महिलाओं की पीड़ा को रेखांकित किया “जमीन और आजीविका खो देने के बाद अब उन्हें वही कर्ज़ चुकाने के लिए कहा जा रहा है, जिसके लिए उन्होंने अपनी जमीन को गिरवी रखा था—जो अब अस्तित्व में ही नहीं है। यह उनकी गरिमा का अपमान है, जो अनुच्छेद 21 के तहत उनके मौलिक अधिकार का हिस्सा है।”

अदालत ने केंद्र सरकार के उस रुख की आलोचना की, जिसमें उसने महिलाओं के कर्ज़ माफ़ करने की अपनी शक्ति का उपयोग करने से इनकार किया। हालांकि अदालत ने सरकार को कर्ज़ माफ़ करने का आदेश नहीं दिया, लेकिन पीड़ितों से कर्ज़ वसूली पर रोक लगा दी।

इस आदेश का संदर्भ—तबाही की वह सुबह

30 जुलाई 2024 को सुबह-सुबह चूरालमला और मुंडक्कई गांवों में हुए भीषण भूस्खलन में 250 से अधिक लोगों की जान चली गई। गांव मानो धरती से मिट गए। फ्रेंड्स ऑफ द अर्थ इंडिया के कार्यकर्ता माजू वर्गीज़ और सारथ चीलूर बताते हैं “जब लोग राहत शिविरों में थे, तभी कर्ज़ वसूली करने वाले एजेंट EMI वसूलने पहुंच गए। इससे लोगों में भारी गुस्सा फूट पड़ा।”

नागरिक समाज और राज्य सरकार के हस्तक्षेप के बाद वैध कर्ज़ माफी की मांग उठी। केरल सरकार ने इसे स्वीकारते हुए केरल बैंक से कर्ज़ माफी की घोषणा करवाई।

आपदा के बाद मानसिक त्रासदी और आर्थिक आघात

ऐसी आपदाएं न सिर्फ शारीरिक नुकसान पहुंचाती हैं बल्कि भारी मानसिक त्रासदी भी छोड़ जाती हैं। संपत्ति खत्म, कर्ज़ बढ़ जाता है, रोजगार छिन जाता है। इसके ऊपर से कर्ज़ वसूली एजेंटों की दबावभरी यात्राएं समुदाय की चिंता को और बढ़ा देती हैं।

एक राष्ट्रीय समस्या: जलवायु आपदा से कर्ज़ आपदा तक

यह समस्या केवल केरल तक सीमित नहीं है। भारत भर में मानव-निर्मित जलवायु संकट अब ऋण संकट (Debt Disaster) का रूप ले रहा है।2023 में सिक्किम और पश्चिम बंगाल में GLOF से 14,000 करोड़ की तीस्ता स्टेज 3 परियोजना ध्वस्त हुई, सैकड़ों लोग मारे गए।हाल ही में पंजाब में तबाही के बाद छह महीने का लोन मोरेटोरियम घोषित हुआ।

लेकिन वायनाड के बाद केंद्र सरकार का कदम उल्टा रहा—उसने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम में संशोधन कर दिया, और कर्ज़ माफी की अनुमति देने वाली धारा ही हटा दी। इस पर भी केरल हाई कोर्ट ने कहा कि केंद्र सरकार इस संशोधन का सहारा लेकर वायनाड पीड़ितों को कर्ज़ राहत से वंचित नहीं कर सकती।

केंद्र की बेरुखी और नौकरशाही का बहाना

केंद्र का रुख बेहद ठंडा और असंवेदनशील रहा। उसका जवाब था:RBI की गाइडलाइन में “loan waiver” का कोई प्रावधान नहीं। सरकार ने बैंकों की “स्वायत्तता” का हवाला दिया। लेकिन सवाल यह है—यदि बैंक कॉरपोरेट्स के 25 लाख करोड़ रुपये लिख सकते हैं। तो आपदा पीड़ितों के लिए क्यों नहीं?

आल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कन्फेडरेशन के पूर्व महासचिव थॉमस फ्रैंको लिखते हैं “जब NCLT मामलों में औसतन 67% का हेयरकट दिया जा सकता है, तो आपदा पीड़ितों के कर्ज़ क्यों नहीं माफ़ किए जा सकते?”

न्यायालय की सख्ती: बैंक और सरकार दोनों जवाब दें

हाई कोर्ट ने न केवल वसूली पर रोक लगाई, बल्कि बैंकों को निर्देश दिया कि वे शपथपत्र दाखिल कर बताएं क्या वे कर्ज़ माफ़ करने के लिए तैयार हैं? अगर नहीं, तो इसका औचित्य क्या है? उधर, 100 से अधिक नागरिक संगठनों—जिनमें मेधा पाटकर, रवी चोपड़ा, दिशा रवि और अन्य शामिल हैं—ने केंद्र, RBI और बैंकों से 2025 मानसून आपदा से प्रभावित लोगों के लिए तत्काल कर्ज़ राहत की मांग की है।

जरूरत है स्पष्ट राष्ट्रीय मानकों की

बैंकों और केंद्र सरकार की चुप्पी यह सवाल उठाती है कि क्या हमारे पास जलवायु आपदाओं के लिए कोई मानक प्रक्रिया होनी चाहिए, जिससे राजनीतिक पक्षपात खत्म हो।

राहत तुरंत और पारदर्शी तरीके से मिले पीड़ित परिवार सामान्य जीवन की ओर लौट सकें। क्योंकि जलवायु संकट के वित्तीय पहलू पर चर्चा अब वक्त की मांग है।

क्या सरकार और बैंक अपनी ही बात पर अमल करेंगे?

सरकार, RBI और बैंक जलवायु जोखिम पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भाषण तो देते हैं, लेकिन सवाल है क्या वे वास्तव में उस पर अमल करने को तैयार हैं?

(द फेडरल हर तरह के नज़रिए और राय पेश करने की कोशिश करता है। आर्टिकल में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक की हैं और ज़रूरी नहीं कि वे द फेडरल के विचारों को दिखाते हों)

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