आरक्षण पर हाईकोर्ट का फैसला क्यों है राजद के लिए नीतीश कुमार पर हमला करने का हथियार?
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आरक्षण पर हाईकोर्ट का फैसला क्यों है राजद के लिए नीतीश कुमार पर हमला करने का हथियार?

हाईकोर्ट का फैसला आने के कुछ ही देर बाद आरजेडी सांसद और प्रवक्ता मनोज झा ने इस आदेश को हथियार बनाते हुए पहला हमला बोला. उन्होंने कहा कि आरक्षण से जुड़े दो कानूनों को चुनौती देने वाली याचिकाएं राजनीति से प्रेरित हैं.


Patna HighCourt Verdict on Reservation: पटना हाई कोर्ट ने एससी, एसटी, ओबीसी आरक्षण के मामले में बिहार की राजनीती में दूरगामी प्रभाव डालने वाला फैसला सुनाया है. हाई कोर्ट ने नितीश कुमार की महागठबंधन वाली सरकार के उस फैसले को निरस्त कर दिया है, जिसमें राज्य सरकार ने आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत को बढ़ा कर 65 प्रतिशत कर दिया था.


अदालत ने फिर से कोटे की सीमा 50 प्रतिशत की

पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के विनोद चंदन और न्यायमूर्ति हरीश कुमार की खंडपीठ ने बिहार आरक्षण(अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए) (संशोधन) अधिनियम, 2023 और बिहार (शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में) आरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2023 को संविधान के अनुच्छेद 14(कानून के समक्ष समानता), 15 (भेदभाव का निषेध) और 16 (रोजगार में समान अवसर) का उल्लंघन माना.

उच्च न्यायालय के इस फैसले से राज्य में जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था प्रभावी रूप से बहाल हो गई है, जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा के भीतर है. हालांकि, इस फैसले का आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए केंद्रीय कानून के माध्यम से दिए गए 10 प्रतिशत कोटे पर कोई असर नहीं पड़ेगा, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने बरकरार रखा है.

विधानों के माध्यम से जाति तक पहुंच

उच्च न्यायालय द्वारा खारिज किए गए कानूनों ने बिहार में सकारात्मक कार्रवाई के दायरे को 75 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था(पिछड़ी जातियों, एससी और एसटी के लिए 65 प्रतिशत और ईडब्ल्यूएस के लिए 10 प्रतिशत). न्यायालय के समक्ष दायर कई याचिकाओं में प्रार्थना की गई थी कि बिहार सरकार द्वारा अपनी पहली जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट प्रकाशित करने के तुरंत बाद ही नवंबर 2023 में लागू किए गए दो कानून, सर्वोच्च न्यायालय और संविधान के विभिन्न प्रावधानों द्वारा आरक्षण पर लगाई गई 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन करते हैं.

जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट के साथ-साथ दोनों कानूनों को नितीश कुमार और उनके तत्कालीन प्रमुख गठबंधन सहयोगी लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव की राजद द्वारा ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित समुदायों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित किया गया था.

उस समय विपक्ष में बैठी बीजेपी ने भी राजनीतिक लाभ के लिए इन कानूनों का समर्थन किया था, क्योंकि इन दोनों कानूनों का सीधा असर बिहार के मतदाताओं के एक बड़े हिस्से पर पड़ा था. हालांकि, बीजेपी के बिहार और केंद्रीय नेताओं में से कई, खास तौर पर अगड़ी जातियों के नेताओं ने आरक्षण के दायरे को बढ़ाने पर या तो असहमति जताई थी या फिर इस फैसले को राजनीति से प्रेरित बताकर इसके इच्छित लाभों को कम करके आंका था.

राजद उच्च न्यायलय के फैसले पर राजनीती करनी की तैयारी में

नीतीश, जिन्होंने अब गठबंधन बदल लिया है और बीजेपी के साथ गठबंधन करने के बाद मुख्यमंत्री के पद पर बरकरार हैं, ने जाति सर्वेक्षण और आरक्षण कोटे में वृद्धि के पीछे के तर्क का समर्थन करना जारी रखा, जबकि राजद, कांग्रेस और वामपंथी दलों के तेजस्वी के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान दोहरे फैसले का श्रेय लेने की कोशिश की थी.

आरक्षण योजना को व्यापक बनाने को लेकर कानूनी लड़ाई अब सुप्रीम कोर्ट में जाने की उम्मीद है, लेकिन हाईकोर्ट के आदेश से बिहार में राजनीतिक अशांति की लहर पैदा हो सकती है, जहां अगले साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं. आरजेडी, जिसने लोकसभा चुनावों में अपनी उम्मीदों से कम प्रदर्शन किया, लेकिन राज्य में सभी राजनीतिक दलों के बीच सबसे अधिक वोट शेयर हासिल किया, वो अब सत्तारूढ़ जेडी(यू)-बीजेपी गठबंधन के खिलाफ जनमत जुटाने के लिए हाईकोर्ट के फैसले का इस्तेमाल करने को तैयार है.

'सामाजिक असमानता' के विरुद्ध चेतावनी

हाईकोर्ट का फैसला आने के कुछ ही देर बाद आरजेडी सांसद और प्रवक्ता मनोज झा ने इस आदेश को हथियार बनाते हुए पहला हमला बोला. उन्होंने कहा कि आरक्षण से जुड़े दो कानूनों को चुनौती देने वाली याचिकाएं राजनीति से प्रेरित हैं. झा ने फैसले को "दुर्भाग्यपूर्ण" करार दिया और कहा कि इससे सामाजिक असमानता की खाई और बढ़ेगी.

केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की स्थिरता वैचारिक रूप से संकीर्ण और राजनीतिक रूप से अप्रत्याशित नीतीश के समर्थन पर निर्भर है, राजद का यह भी मानना है कि उच्च न्यायालय के फैसले को जेडी(यू) और बीजेपी के बीच दरार पैदा करने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, क्योंकि बीजेपी को ऐतिहासिक रूप से जाति-आधारित आरक्षण का विरोधी माना जाता रहा है.

कानूनों को नौवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग

मनोज झा ने द फेडरल से कहा, "केंद्र में सरकार नीतीश कुमार के समर्थन के कारण बनी है. मुझे लगता है कि बिहार के उत्पीड़ित समुदायों के विशाल बहुमत के सामाजिक-आर्थिक हितों को संरक्षित और सुरक्षित रखने के लिए ये महत्वपूर्ण है कि उन्हें केंद्र सरकार पर दबाव डालना चाहिए कि जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो इन दोनों कानूनों का मज़बूती के साथ कानूनी तौर पर बचाव किया जाए और एक बार जब ये कानून कानूनी रूप से बहाल हो जाएं, तो उन्हें संविधान की अनुसूची नौ के तहत सूचीबद्ध करके संरक्षण दिया जाए ताकि भविष्य में इन दोनों कानूनों को चुनौती न दी जा सके."

राजद नेता ने कहा कि जब से दोनों कानून बनाए गए थे और “विशेषकर नीतीश के बीजेपी के साथ फिर से गठबंधन करने के बाद”, तेजस्वी लगातार नौवीं अनुसूची के तहत कानूनों को सूचीबद्ध करने की मांग कर रहे थे और “आज जो स्थिति पैदा हुई है वो केवल इसलिए है क्योंकि तेजस्वी की सलाह का पालन नहीं किया गया”.

निरस्त किये गए कानून क्यों महत्वपूर्ण थे?

पिछले साल अक्टूबर में जारी किये गए बिहार जाति सर्वेक्षण से पता चला था कि राज्य की 63 प्रतिशत आबादी पिछड़ी जातियों(27.12 प्रतिशत पिछड़ी जातियाँ और 36.01 प्रतिशत अत्यंत पिछड़ी जातियाँ) से आती है. बिहार में अनुसूचित जातियाँ कुल आबादी का 19.65 प्रतिशत हिस्सा हैं, जबकि अनुसूचित जनजातियाँ 1.68 प्रतिशत हैं. इस प्रकार, दोनों कानूनों ने राज्य की लगभग 85 प्रतिशत आबादी को सीधे प्रभावित किया.

बिहार में जाति आधारित आरक्षण एक बहुत ही भावनात्मक मुद्दा है, ऐसे में राजद और उसके सहयोगियों का मानना है कि उच्च न्यायालय के फैसले का इस्तेमाल महागठबंधन अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले सामाजिक न्याय के लिए अपने अभियान को तेज करने के लिए कर सकता है.

हाल ही में बिहार के काराकाट सीट से बीजेपी सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा के खिलाफ सीपीआई-एमएल उम्मीदवार के रूप में लोकसभा चुनाव जीतने वाले कुशवाहा(पिछड़ी जाति) नेता राजा राम सिंह ने द फेडरल को बताया कि महागठबंधन के घटक "उच्च न्यायालय के फैसले पर चर्चा करेंगे और आगे का रास्ता तय करेंगे".

पिछड़ी जाति के वोट में बदलाव

बिहार महागठबंधन के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि लोकसभा चुनावों में गठबंधन के प्रत्येक घटक के वोट शेयर में वृद्धि “कुछ पिछड़ी जातियों के पुनर्संयोजन से बड़े पैमाने पर हुई, जो परंपरागत रूप से जेडी(यू) या बीजेपी को वोट देती थीं, लेकिन हमारे सामाजिक न्याय के मुद्दे के कारण इस लोकसभा चुनाव में हमारी ओर चली आयीं. जेडी(यू)-बीजेपी सरकार ने उच्च न्यायालय में बढ़े हुए आरक्षण के लिए जो कमजोर बचाव किया, उसी के परिणामस्वरूप कानून को खारिज कर दिया गया, वो दिखाता है कि बीजेपी के प्रभाव में नीतीश पिछड़ी जातियों और दलितों के अधिकारों की गारंटी नहीं दे सकते. हम इस संदेश के साथ लोगों के पास जाएंगे.”

आरजेडी सूत्रों का कहना है कि अदालत के फैसले से पार्टी को उन पिछड़े समुदायों तक “अधिक आक्रामक तरीके से पहुंचने” में मदद मिलेगी, जिन्होंने “या तो अतीत में हमें वोट दिया था, लेकिन बाद में वो एनडीए में चले गए थे, या जिन्हें हम अब तक आकर्षित नहीं कर पाए हैं,"

नीतीश का घटता जनाधार

जेडी(यू) के एक सांसद ने नाम न बताने की शर्त पर स्वीकार किया कि ये फैसला नीतीश के लिए अच्छा नहीं है, जिन्होंने अपनी लगातार उलटफेरों के बावजूद गैर-यादव ओबीसी और ईबीसी से मिलने वाले समर्थन के कारण अपनी राजनीतिक स्थिति को बनाए रखा है. उन्होंने कहा, "हमने भले ही 16 लोकसभा सीटों में से 12 पर जीत हासिल की हो, लेकिन हमारा आधार काफी हद तक खत्म हो गया है और नतीजों के हमारे शुरुआती आकलन से पता चलता है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमारा बहुत सारा पारंपरिक वोट बैंक तेजस्वी द्वारा उठाए गए सामाजिक न्याय और रोजगार के मुद्दों की वजह से आरजेडी या उसके सहयोगियों के पास चला गया."

जेडी (यू) सांसद ने कहा, "हमारा वोट शेयर लगभग पांच फीसदी कम हो गया है और अगर यह जारी रहा, तो हम विधानसभा चुनावों में बहुत अधिक सीटें खो देंगे. हम जानते हैं कि आरजेडी उच्च न्यायालय के फैसले को कैसे पेश करने वाली है. तेजस्वी ये आरोप लगाकर पूरा दोष हमारी सरकार पर डाल देंगे कि हमने केस अच्छी तरह से नहीं लड़ा. आम मतदाता कानूनी मुद्दों को नहीं समझते हैं. वे केवल ये समझेंगे कि उनका आरक्षण उसी तरह छीना जा रहा है, जैसा कि इंडिया गठबंधन की पार्टियों ने कहा था कि अगर बीजेपी सत्ता में आती है, तो ऐसा होगा और स्वाभाविक रूप से, हम एनडीए का हिस्सा होने के नाते इसके लिए चुनावी रूप से नुकसान उठाएंगे. जब तक कि हम उच्च न्यायालय के आदेश को जल्द ही सुप्रीम कोर्ट से स्थगित या उलटने में सक्षम नहीं हो जाते."

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