
SAVE ARAVALLI: गुजरात के पर्यावरण कार्यकर्ता सरकार की बातों से क्यों नहीं संतुष्ट?
इस सप्ताह आंदोलनकारियों का जत्था राज्य की राजधानी गांधीनगर पहुंचा, जहां उन्होंने गुजरात के वन और पर्यावरण मंत्री अर्जुन मोढवाडिया से मुलाकात की।
गुजरात में ‘सेव अरावली’ आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने कहा है कि केंद्र और राज्य सरकार द्वारा नए खनन पट्टों पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद अरावली की नाजुक पारिस्थितिकी अब भी खतरे में है। अरावली रेंज दिल्ली से गुजरात तक फैली हुई है और इसमें गुजरात के साबरकांठा, पाटन, मेहसाणा, अरावली और बनासकांठा जिले आते हैं।
अभियानकारियों की चिंता
इस सप्ताह आंदोलनकारियों का जत्था राज्य की राजधानी गांधीनगर पहुंचा, जहां उन्होंने गुजरात के वन और पर्यावरण मंत्री अर्जुन मोढवाडिया से मुलाकात की। आंदोलन में राजस्थान से आए लोग, मेनाल के मंदिरों के पुजारी और श्रद्धालु, अरावली जिले के विपश्यना केंद्र ‘धम्म अरावली’ के सदस्य, ईसाई धर्म से जुड़े धार्मिक केंद्र के पुजारी और आदिवासी कार्यकर्ता शामिल थे। मंत्री मोढवाडिया ने मीडिया से कहा कि हमारी सरकार ने अरावली और उसके वन क्षेत्रों में किसी भी खनन की अनुमति नहीं दी है। हमारी सरकार कभी ऐसा नहीं करेगी।
पूरी तरह से खनन निषेध
राज्य सरकार ने 25 दिसंबर को दोबारा स्पष्ट किया कि ईको-संवेदनशील क्षेत्रों, रिजर्व क्षेत्र, वेटलैंड और CAMPA प्लांटेशन साइटों में खनन पूरी तरह निषिद्ध रहेगा। वहीं, केंद्र सरकार ने भी नए खनन पट्टों पर रोक लगाने का आदेश जारी किया।
आंदोलनकारियों की प्रतिक्रिया
हालांकि केंद्र और राज्य सरकारों ने अरावली की सुरक्षा की गारंटी दी है, लेकिन आंदोलनकारी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हैं। रिव फ्रदर थॉमस मावेरी ने इस कदम को स्वागत योग्य बताया और कहा कि अरावली न केवल पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण हैं बल्कि धार्मिक और आध्यात्मिक केंद्रों का घर भी हैं। वहीं, AAP नेता और आदिवासी कार्यकर्ता चैतर वासवा ने कहा कि भाजपा सरकार हमेशा उद्योग और खनन के पक्ष में रही है, आदिवासियों की आजीविका की कीमत पर। यह केवल एक और उदाहरण है।” उन्होंने यह भी कहा कि सरकार द्वारा खनन समर्थक निर्णय वापस लेने के बावजूद वे सतर्क हैं और भविष्य में किसी नए कानून या फैसले से खतरा हो सकता है।
अरावली की पारिस्थितिकी और कानूनी इतिहास
अरावली रेंज आदिवासी समुदायों जैसे भील, मीना और गरासिया का घर है। पर्यावरणविद रोहित प्रजापति ने कहा कि अरावली न केवल वनस्पति और जीव-जंतु के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि साबरमती और मेशवो नदियों का स्रोत भी हैं। ये पहाड़ थार रेगिस्तान को उत्तर गुजरात तक फैलने से रोकते हैं और गर्म रेगिस्तानी हवाओं को मध्य गुजरात में प्रवेश करने से रोकते हैं।
1990 के दशक से ही अरावली में अनियंत्रित खनन के खिलाफ कई कानूनी केस चल रहे हैं। 1990 में अलवर आधारित NGO ‘तरुण भारत’ ने साड़ीसा नेशनल पार्क के आसपास चूना पत्थर खनन और भूमिगत जल स्तर गिरने के खिलाफ याचिका दायर की थी। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश और 1992 में केंद्र सरकार द्वारा जारी अरावली अधिसूचना ने खनन पर नियंत्रण और संरक्षण की दिशा में पहला कदम उठाया।
1992 की परिभाषा
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, 1992 में अरावली रेंज को इसकी भू-आकृति, भूमि प्रकार और वनस्पति के आधार पर परिभाषित किया गया था, न कि ऊंचाई के आधार पर। इसे तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया – गैर मुमकिन पहाड़ (अउपजाऊ पहाड़ी भूमि), बंजन बीड़ (अउपजाऊ सामान्य भूमि) और रुंध (वन्य या संरक्षित भूमि)। आंदोलनकारियों का कहना है कि अब भी कानून और आदेशों की सही लागू होने की निगरानी महत्वपूर्ण है, ताकि अरावली की पारिस्थितिकी और आदिवासी समुदायों का संरक्षण सुनिश्चित किया जा सके।

