जनता का दर्द या सहानुभूति का चुनावी पैंतरा, क्यों गए केजरीवाल?
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जनता का दर्द या सहानुभूति का चुनावी पैंतरा, क्यों गए केजरीवाल?

अगर अरविंद केजरीवाल अपने इस्तीफे के ऐलान पर अडिग रहते हैं तो दो दिन बाद पूर्व सीएम दिल्ली सरकार होंगे।


उनकी साजिशें हमारे चट्टान जैसे हौसलों को नहीं तोड़ पाईं,हम फिर से आपके बीच में हैं। हम देश के लिए यूं ही लड़ते रहेंगे,बस आप सब लोगों का साथ चाहिए। कुछ इन्हीं लाइनों के साथ अरविंद केजरीवाल अपने समर्थकों, कार्यकर्ताओं और देश की जनता से रूबरू हो रहे थे। यह पहला मौका नहीं है कि जब उन्होंने इस तरह से भावनात्मक अपील या भावनाओं को शोषण किया हो। इससे पहले भी वो मंचों से प्रेस कांफ्रेंस के जरिए खुद को कट्टर ईमानदार, विरोधियों के साजिश का शिकार जैसे तर्कों के जरिए जनता के दिल में उतरने की कोशिश करते रहे हैं और उसका उन्हें फायदा मिला। दिल्ली की जनता ने तीन दफा सीएम पद की कुर्सी दी। लेकिन इस दफा मामला अलग है। अगर वो अपने ऐलान पर अगले दो दिन तक अडिग रहते हैं तो उनके नाम के पहले पूर्व सीएम दिल्ली सरकार होगा। इन सबके बीच हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि क्या इस्तीफे का ऐलान जनता की दर्द को समझने के लिए है या सहानुभूति पाने का चुनावी पैंतरा है।

2014 से पलटीमार सिलसिला
अरविंद केजरीवाल की राजनीति को समझने वाले कहते हैं कि भारत की सियासत में ये वो शख्स है जिन्होंने सबसे अधिक जनता भावनात्मक शोषण किया। 2104 में आम आदमी पार्टी सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी थी। लेकिन सत्ता से दूर थी। सियासत का पढ़ा हुआ मास्टर या आम जनता को उम्मीद थी कि कट्टर ईमानदारी के नाम पर राजनीति में आने वाला यह शख्स कम से कम कांग्रेस के साथ समझौता नहीं करेगा। लेकिन सियासत की उस परिभाषा को अपने लिए लागू किया जो बरसों से अमल में लाई जाती रही है।

आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनाई, हालांकि उस सरकार की मियाद लंबी नहीं रही। दरअसल मियाद लंबी कैसे हो सकती थी। जब कोई राजनीतिक दल अपने विचार से इतर जाकर कुछ फायदे के लिए फैसला लेता तो उसकी उम्र छोटी होती है। यानी कि केजरीवाल ने अपने आदर्शों को लेकर पहला यू टर्न पार्टी के पैदाइश के डेढ़ महीने के भीतर ही ले लिया था। लेकिन जनता के बीच अपने आपको पीड़ित के तौर पर पेश किया। दिल्ली की जनता ने उन्हें निराश भी नहीं किया। 2015 में मौका दिया और ऐसा मौका कि विपक्ष करीब करीब साफ हो गया।

विपक्ष का सवाल- वादों का क्या हुआ
जनता को राहत देने के लिए तमाम फैसले भी किए। जमीन पर उसे उतारने का दावा भी किया। एक तरह से मुफ्त की चीजें वो जनता की जीभ को वो स्वाद दिया जिसकी मिठास 2020 तक बनी रही और एक बार उसका फायदा भी मिला। लेकिन केजरीवाल और उनकी पार्टी पर दाग लगने का जो सिलसिला शुरू हो चुका था उसका असर भी नजर आया। संख्या बल के लिहाज से विपक्ष थोड़ा ताकतवर बनकर 2020 में उभरा। विपक्ष यानी बीजेपी की लोग सवाल करने लगे कि कहां गए मोहल्ला क्लिनिक, कहां गई डीटीसी की बसें, यमुना नदी की सफाई का क्या हुआ।

इन सबके बीच दिल्ली एक्साइज का मामला आप के लिए गले की फांस बनी। आम आदमी पार्टी की सरकार जिस नगर निगम को लेकर नाकामी के तंज बीजेपी पर कसती थी उस नगर निगम पर आम आदमी पार्टी का कब्जा हो चुका था। दिल्ली नगर निगम के ऊपर शहर को साफ सुथरा रखने की जिम्मेदारी थी। लेकिव पटेल नगर में आईएएस की तैयारी कर रहे छात्र की मौत, जुलाई के महीने में कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में पानी का भरना और यूपीएससी की तैयारी करने वाले तीन छात्रों की मौत आम आदमी पार्टी की सरकार को सवालों के घेरे में कर दिया। आम आदमी पार्टी का जवाब हुआ करता था कि हम अपनी तरफ से बेहतर करने की कोशिश कर रहे हैं.

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