
बागी बलिया की कहानी,जब जनता ने खुद बना ली थी आज़ाद सरकार
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बलिया ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ खुली बगावत की, खुद की आज़ाद सरकार बनाई और गांधी टोपी पहनने पर भी मौत झेलनी पड़ी।
यूपी का यह जिला अपनी खुद की राजधानी लखनऊ से करीब 400 किमी दूर है। इस जिले का अपना समृद्ध इतिहास है। लेकिन चरित्र बगावत का रहा है। प्राचीन इतिहास से लेकर मध्यकालीन इतिहास और उसके बाद अंग्रेजी शासन में यहां के लोग कभी दबे नहीं। सामान्य तरह से समझें तो बंधनों में रहना मंजूर नहीं हुआ। जोर जुल्म बर्दाश्त नहीं हुआ। प्रशासनिक अमले की कार्यप्रणाली कभी रास नहीं आई और बलिया से पहले एक शब्द और जुड़ा बागी। इस तरह से बलिया की पहचान बागी से भी होने लगी। इन सबके बीच 1942 की एक खास घटना का जिक्र करेंगे जिसने युगांतरकारी बदलाव किया। इसके साथ ही आज की मौजूदा पीढ़ी क्या सोचती समझती है उसकी भी चर्चा करेंगे।
अगस्त 1942 से 1944 के बीच, बलिया ज़िले में ऐसा भय का वातावरण था कि कोई भी व्यक्ति गांधी टोपी पहनने की हिम्मत नहीं करता था। यहां तक कि यदि किसी ने आदतन टोपी पहन भी ली, तो उसे गोली मार दी जाती थी। ब्रिटिश शासन द्वारा फैलाए गए आतंक का यह आलम था कि गिरफ्तार किए गए लोगों का बचाव करने कोई वकील तक आगे नहीं आया। जिन्हें सज़ा हुई, उन्हें 25 से 30 साल तक की कड़ी कैद दी गई। जो कुछ गिने-चुने वकील अदालत में उतरे भी, उन्हें किसी न किसी आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।
मार्च 1944 में, फिरोज़ गांधी, इलाहाबाद के अपने वकील साथी के साथ बलिया पहुंचे ताकि वहां की स्थिति का आकलन कर सकें। जैसे ही वे रेलवे स्टेशन से चौक की ओर बढ़े, उन्होंने गांधी टोपी पहन रखी थी जिसे लंबे समय से बलिया में किसी ने नहीं देखा था। इस दृश्य ने लोगों में आत्म-सम्मान, विश्वास और उत्साह की एक नई लहर भर दी। रास्ते भर लोग उनके पीछे जुड़ते गए और यह एक विशाल जुलूस का रूप ले बैठा। इलाहाबाद से और भी वकील आए, जो बलिया के स्वतंत्रता सेनानियों को कानूनी सहायता देने के लिए तैयार थे। इससे ब्रिटिश प्रशासन द्वारा बनाए गए भय के शासन का अंत हो गया, जो 22-23 अगस्त 1942 को ब्रिटिश सेना के बलिया आगमन के साथ शुरू हुआ था।
बलिया के लोगों के बलिदान ने उसे "क्रांतिकारी बलिया" की उपाधि दिलाई। अंग्रेजों के खिलाफ इस जीत ने ब्रिटिश संसद तक का ध्यान आकर्षित किया। बलिया में स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के बाद, ब्रिटिश अधिकारी ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को आश्वस्त करने के लिए एक टेलीग्राम भेजा — "Ballia reconquered", जिसे उत्तर प्रदेश के गवर्नर मॉरिस हाले को भेजा गया।
1944 में, जब हालात थोड़े सामान्य होने लगे, तब देश के दो प्रमुख नेता पुरुषोत्तम दास टंडन और संपूर्णानंद भी बलिया आए। लेकिन स्थिति इतनी भयावह थी कि टंडन उसी शाम लौट गए। संपूर्णानंद ने एक रात वहीं बिताई, पर उनके मेज़बान को पुलिस द्वारा प्रताड़ित किया गया और उनका घर लूट लिया गया।
अक्टूबर 1945 में, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बलिया का दोबारा दौरा किया। अब तक हालात काफी हद तक सामान्य हो चुके थे। करीब 50,000 लोगों ने उनका भाषण सुना और राहत की सांस ली कि उनका संघर्ष व्यर्थ नहीं गया था और अब वे अपने राष्ट्रीय नेताओं की छत्रछाया में थे।भारत छोड़ो आंदोलन ने यह स्पष्ट कर दिया था कि ब्रिटिश राज के प्रति देशव्यापी असंतोष है और अब भारत को लंबे समय तक गुलाम बनाए रखना संभव नहीं था। 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद, ब्रिटिश जनमत भी भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देने के पक्ष में हो गया।
अब आज की मौजूदा पीढ़ी बागी बलिया के बारे में क्या सोचती है। इस जिले के रसड़ा इलाके के रहने वाले समाजसेवी अनिकेत सिंह कहते हैं कि इसमें दो मत नहीं है कि हमारे पूर्वजों ने ज्यादती बर्दाश्त नहीं की। उसकी एक झलक बैरकपुर विद्रोह में मंगल पांडे की बगावत में देखी जा सकती है। आप जानते हैं कि बैरकपुर विद्रोह 1857 की क्रांति का आधार बना। 1942 में देश के जब कुछ हिस्सों में अंग्रेजों के खिलाफ समानांतर सरकार बनी तो बलिया भी उनमें से एक था। यहां के लोगों की तासीर कुछ अलग तरह की है। जोर जुल्म और प्रशासनिक अव्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद होती रही है और उसका असर भी आप देख सकते हैं।
अनिकेत की आवाज में आवाज मिलाते हुए बेल्थरारोड के प्रभाकर तिवारी कहते हैं कि दरअसल जोर जुल्म के खिलाफ यहां का इतिहास सिर्फ आधुनिक काल से नहीं है। बल्कि मध्यकालीन इतिहास से है। आपने देखा होगा कि किस तरह से यहां के स्थानीय लोगों ने मुगल बादशाह बाबर के खिलाफ घाघरा का युद्ध लड़ा था। आप इसे ऐसे भी मान सकते हैं कि सत्ता के खिलाफ लड़ाई का चरित्र इस इलाके का रहा है।
इस विषय पर बलिया के स्थानीय पत्रकार संजय मिश्रा कहते हैं कि बलिया की भौगोलिक बसावट भी इसके बागी रूप को निर्धारित करती रही है। यहां के लोग सत्ता विमुखी रहे हैं। अगर आप स्वतंत्र भारत के इतिहास को देखें तो किस तरह से चंद्रशेखर ने कांग्रेस की स्थापित शख्सियतों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और युवा तुर्क कहलाए। दरअसल यहां का समाज देश और प्रदेश के अलग अलग हिस्सों की तरह खेतिहर रहा। लेकिन जोर जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने में आगे रहा लिहाजा प्रशासिनक अमले को यहां के लोगों को स्वभाव रास नहीं आता था और बागी संज्ञा दे दी गई।